Monday, July 30, 2007

'प्यासा' एक नजर


कल मैंने फिर से प्यासा देखी, ये एक ऐसी फ़िल्म है जिसे मैं जितनी बार देखता हूं उतनी बार एक बार और देखने का जी चाहता है। मेरा ऐसा मानना है कि अगर कोई भी डायरेक्टर अपने जीवन में इस तरह का फ़िल्म बनाता है तो फिर उसे कोई और फ़िल्म बनाने कि जरूरत ही नहीं है, क्योंकि वो फ़िल्म व्यवसाय को इससे अच्छा उपहार दे ही नहीं सकता है। मगर जैसा कि अपवाद हर जगह होता है, बिलकुल वैसे ही गुरूदत्त जैसा अपवाद हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री को भी मिला। उन्होंने हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री को एक से बढकर एक कई अच्छे और दिल को छू जाने वाले फ़िल्म दिये। जैसे ‘कागज़ के फूल’, ‘चौदहवीं का चांद’, ‘साहिब, बीवी और गुलाम’, ‘मिस्टर एंड मिसेस 55’, ‘बाज़ी’, इत्यादी।

यहाँ मैं बस प्यासा फ़िल्म की चर्चा करने जा रहा हूं। मेरे मुताबिक ये फ़िल्म अपने आप में एक विशिष्ठ श्रेणी की फ़िल्म थी, क्योंकि यह फ़िल्म तब बनी थी जब जवाहर लाल नेहरू के सपनों के भारत का जन्म हो रहा था। और उस समय गुरूदत्त ने जो समाज का चित्रन किया था वो आज कि परिदृष्य में भी सही बैठता है।

प्यासा, जो सन १९५७ में बनी थी, में वह सबकुछ है जो किसी फ़िल्म के अर्से तक प्रभावी व जादुई बने रहने के लिए ज़रुरी होता है। सामान्य दर्शक के लिए एक अच्छी, कसी हुई, सामयिक कहानी का संतोष (फ़िल्म के सभी, सातों गाने सुपर हिट)। और सुलझे हुए दर्शक के लिए फ़िल्म हर व्यूईंग में जैसे कुछ नया खोलती है। अपनी समझ व संवेदना के अनुरुप दर्शक प्यासा में कई सारी परतों की पहचान कर सकता है, और हर परत जैसे एक स्वतंत्र कहानी कहती चलती है। परिवार, प्रेम, व्यक्ति की समाज में जगह, एक कलाकार का द्वंद्व व उसका भीषण अकेलापन, पैसे का सर्वव्यापी बर्चस्व और उसके जुडे संबंधों के आगे बाकी सारे संबंधों का बेमतलब होते जाना।

मैं यहां प्यासा फ़िल्म का एक गाना लिख रहा हूं जो कि आज के समाज पर भी उतना ही बड़ा कटाक्ष कर रहा है जैसा उस समय पर था। ये मेरे अब-तक के सबसे पसंदीदा गानों में से भी है।

ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया..
ये इंसान के दुश्मन समाजों की दुनिया..
ये दौलत के भूखे रिवाजों की दुनिया..
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है??

हर एक जिस्म घायल, हर एक रूह प्यासी..
निगाहों में उलझन दिलों में उदासी..
ये दुनिया है या आलम-ए-बदहवासी..
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है??

यहां एक खिलौना है इंसान की हस्ती..
ये बस्ती है मुर्दा-परस्तों की बस्ती..
यहां पर तो जीवन से है मौत सस्ती..
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है??

जवानी भटकती है बदकार बनकर..
जवां जिस्म सजते हैं बाजार बनकर..
यहां प्यार होता है व्यापार बनकर..
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है??

ये दुनिया, जहां आदमी कुछ नहीं है..
वफ़ा कुछ नहीं, दोस्ती कुछ नहीं है..
जहां प्यार की कद्र ही कुछ नहीं है..
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है??

जला दो इसे फ़ूंक डालो ये दुनिया..
मेरे सामने से हटा दो ये दुनिया..
तुम्हारी है, तुम ही संभालो ये दुनिया..
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है??

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3 comments:

  1. you cannot subject it to फ़िल्म व्यवसाय, its beyond that. its a classic.
    yo know that its a research paper in some US film and documentory univerity.

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  2. तुमने काफी हद तक सही कह है दोस्त, मगर मैंने इसे "फ़िल्म व्यवसाय" कहा क्योंकि अगर तुम गुरूदत्त के बारे में पढा होगा तो ये पता होगा कि "प्यासा" के बाद गुरूदत्त ने "कागज के फूल" बनाया था जो कि बाक्स आफ़िस पर बुरी तरह पिट गयी थी, और उसके बाद गुरूदत्त ने कभी भी फ़िल्म ना बनाने जैसी कसम खायी थी। जो की उनके पूर्णतः व्यवसायिक दृष्टि का प्रमाण है।

    जैसा कि इस फ़िल्म में गुरूदत्त ने पैसे का चहुःओर वर्चस्व दिखाया है उससे वो खुद भी अछूते नहीं थे। उस मायाजाल ने उन्हें भी उतना ही घेर रखा था जितना की किसी और को।

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  3. मुझे यकीन नही होता भैया मैने आपको कैसे ढ़ूँढ़ निकाला.......इतनी दूर् रहने वाले दो लोग्,जिनकी सोच में इतनी आश्चर्यजनक समानता है...
    "प्यासा" को लेके जो आपके विचार है,उनसे मैं बहुत अधिक सहमत हूँ.यहाँ एक खास बात कहना चाहूँगा कि ये मेरी सब्से पसन्दीदा फ़िल्म है,और प्यासा शब्द से एक गहरा तालुकात महसूस करता हूँ.......
    इस बात में कोई शक नही की आपकी पसन्ड् वकई बेहतरीन है....
    आप हो तो उस "प्यास" की प्यास ज़िन्दा है, ये कहने में कोइ हिचक नही कि आप जैसो से ही एहसास ज़िन्दा है...

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