Sunday, April 12, 2015

ब्योमकेश बख्शी


मैंने शरदिंदु बनर्जी जी का उपन्यास ब्योमकेश बख्शी पढ़ी नहीं है..ब्योमकेश की जो भी जानकारी मिली वह नब्बे के दशक के शुरुवाती दिनों में आने वाले टेलीविजन धारावाहिक से ही मिली.. उन दिनों उम्र अधिक नहीं थी, ग्यारह-बारह साल का रहा होऊंगा, उस ज़माने में उस उम्र में होने वाली समझ का अंदाजा भी आप लगा ही सकते हैं. मगर फिर भी इस धारावाहिक का क्रेज गजब का था.. इंटरनेट, यूट्यूब और टोरेंट से पहले जब हम सिर्फ और सिर्फ टेलीविजन पर ही इन धारावाहिकों के लिए निर्भर हुआ करते थे तब की बात है.. जब भी इस धारावाहिक का री-टेलीकास्ट हुआ, हम अपना डेरा-डंडा लेकर टेलीविजन के सामने हाजिर रहे. आज भी याद है की वह भूत कैसा था जो पंद्रह फुट ऊपर दोमंजिले मकान कि खिड़की से झाँक कर भाग जाता था.. बच्चे थे, सो डर भी लगा..अब उस भूत को जब यूट्यूब पर देखता हूँ तो लगता है वाकई बचपना ही था..आज के बच्चे तो उसे भूत ना समझ कर कोई नौटंकी वाला जोकर ही समझेंगे..

खैर, ये तो नोस्टैल्जिक बातें हुई. कुछ और बातें करते हैं. मैं यहाँ सिनेमा की समीक्षा करने नहीं बैठा हूँ, वह काम करने को कई धुरंधर बैठे हैं. बात कहानी की करते हैं. कमिक्सों को दीवानों की तरह पढ़ते रहने के कारण यह समझ जरुर पैदा हुई की जो कहानी कामिक्स में होती है, उसी कहानी को लेकर अगर सिनेमा बनाई जाए तो वह हमेशा कुछ अलग होती है कामिक्स के कथानक से. मेरी समझ से कारण मात्र इतनी सी है की सिनेमा बनाने वाले उस कहानी को उठाते हैं, उस पर आधारित अपना स्क्रिप्ट लिखते हैं और उसमें उसके कैनवास को बड़ा करते हैं. 

फ़िलहाल, चूँकि मैं पहले ही बता चुका हूँ कि मैंने शरदिंदु जी की किताब पढ़ी नहीं है और धारावाहिक को ही सामने रख कर बाते कर रहा हूँ. डा.अनुकूल गुहा, जो एक पीजी चलाते हैं, जो कोकीन का धंधा करते हैं, जो मुसीबत सामने देख हत्या करने से भी नहीं चूकते हैं.. अब धारावाहिक में वे मात्र इतना ही करते हैं..मगर सिनेमा तक आते-आते वे चीनी-जापानियों से संपर्क भी साधने लगे.. धंधा भी कोकीन का ना कर, वे हेरोइन का धंधा करने लगते हैं.. अब अपना जासूस ब्योमकेश भी कोई मामूली जासूस तो है नहीं, सो जेम्स बांड की तरह दुनिया को नहीं तो कम से कम कलकत्ता को तो बचा ही सकता है.. सो बस उसी कैनवास को बड़ा करना था..बस इतनी सी ही कहानी..

धारावाहिक के मुताबिक अनुकूल गुहा का केस सन 1934-35 का था..उन दिनों कलकत्ता को बचाने लायक कोई बहाना नहीं मिल रहा था, सो समय काल को बढाकर द्वितीय विश्व युद्ध तक लाया गया..चीनी-जापानी गैंग को भी शामिल किया गया..अब जापानी को दिखा रहे हैं तो समुराई युद्ध शैली को भी दिखा ही दो, सो वह भी दिखाया गया जिसके होने या ना होने से कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता..

धारावाहिक वाले अनुकूल गुहा को दस साल की कैद मिली जिसमें किसी दुर्घटना के कारण उनका चेहरा जल गया..यहाँ सिनेमा में उन्हें सजा तो नहीं मिली मगर चीनियों के साथ लड़ाई में उन्हें अपनी एक आँख से हाथ धोना पड़ा. धारावाहिक में भी गुहा ने धमकी दी थी की वे वापस आयेंगे, और ठीक दस साल बाद वापस आये भी, खुद का नाम ब्योमकेश रख कर.. शुरू में अपने हीरो को धोखा देने में कामयाब भी हुए, मगर बाद में माचिस और सुराही के कारण पकडे गए..पकडे जाने के बाद फिर से धमकी देते हुए वापस जेल भेजे गए..उसके बाद धारावाहिक में उनका कोई जिक्र नहीं है, शायद उपन्यास में हो.. अब सिनेमा के अगले भाग में(अगर वह बन कर तैयार हुआ तो) देखना है गुहा कि इंट्री कैसे की जाती है..

अब जहाँ तक सिनेमा की बात है तो मेरे लिए वह परफेक्ट थी.. मेरे ख्याल से सिर्फ उन्हें ही इससे दिक्कत हुई होगी जो पुराने धारावाहिक के नोस्टैल्जिया से बाहर निकले बिना यह सिनेमा देखने गए होंगे. मैं भी पूर्वाग्रह लेकर ही पहले ही दिन देखने गया था, मगर अब तठस्थ होकर सोचने पर लगता है की धारावाहिक तो इससे भी धीमा था, मगर था यथार्थ के करीब. और सिनेमा बड़े कैनवास के साथ थोड़ा सा अति की ओर झुका हुआ. वैसे भी अगर सिनेमा ऐसे ना बनाया जाता तो उसमें सिनेमा जैसी कोई बात ही नहीं रहती..

देखते हैं, शायद अगले भाग में ब्योमकेश बाबू शायद पूरी दुनिया को बचाने में कामयाब रहें!

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2 comments:

  1. मूवी अभी देख नहीं पाए, इसलिए उस पर कोई टिप्पणी नहीं...पर पोस्ट बहुत अच्छी है, इसमें कोई शक नहीं...:)

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  2. पोस्ट बहुत अच्छी है, इसमें कोई शक नहीं...:)

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