चेन्नई छोड़े मात्र एक साल हुआ है, मगर ऐसा लगता है जैसे कभी वहां था ही नहीं. वह भी तब जबकि जीवन में दूसरा सबसे लम्बा समय उस शहर में ही बीता है. पहला पटना था, और तीसरे की खोज में हिसाब-किताब करने बैठा नहीं, वरना तो किस्तों में ज़िन्दगी जाने कितने ही शहर दिखा चुकी है.
जिस शिद्दत से पटना कभी याद आता है, उतनी शिद्दत से मगर चेन्नई को कभी याद नहीं कर पाया. पता नहीं उम्र का असर ठहरा या वाकई उस शहर से उतना लगाव ही ना हो पाया हो? कारण कुछ भी हो सकता है. उम्र का असर इसलिए की समय के साथ आस-पास के जगहों का तिलिस्म टूटने लगता है. शायद यह बहुत बड़ी वजह होती है कि बचपन में बिताये समय और मित्र हमेशा ही ज़ेहन में वैसे ही याद रहते हैं जैसे कल की ही बात हो.
अब भी याद आता है, चेन्नई छोड़ने से महीने भर पहले साथ काम करने वाली एक मित्र ने पूछा था, "क्या हमें याद करोगे वहां?" उस समय तुरत बिना एक क्षण सोचे जवाब दिया था "नहीं".. फिर जैसे-जैसे बैंगलोर आने का दिन नजदीक आने लगा वैसे-वैसे ही कुछ अच्छा नहीं लग रहा था. आखिर छः साल का समय कम भी नहीं होता है. एक दिन ईमानदारी से उस मित्र को अपना जवाब फिर दिया.. "चेन्नई याद आये चाहे ना आये, मगर आप जैसे दोस्त जरुर याद आयेंगे." और अंततः वही बात सही साबित भी हुई.
मुझे अब भी याद आता है, जिस दिन मैंने वहां अपना त्यागपत्र दिया, उस दिन बहुत खुश था. मन में एक ख्याल यह भी था कि इस शहर और इस कंपनी से पीछा छूटा आखिर! मगर जैसे-जैसे दिन करीब आते गए वैसे-वैसे अकुलाहट भी बढती गई. मन मायूस सा होता गया. और आखिर आज के ही दिन अपना सामान बाँध कर रात की बस से बैंगलोर के लिए निकल लिया.
पिछले एक साल के बैंगलोर का पूरा ब्यौरा दूँ तो, कार्यस्थल पर काफी कुछ सीखने को मिला. सबसे अधिक मन में एक 'भय'.. हाँ, वह भय ही था. नयी तकनीक, नया प्रक्षेत्र(Domain) और उस पर भी अपने अनुभव के मुताबिक़ कार्य संपन्न करने का दवाब. कर पाऊंगा या नहीं, इसकी शंका. खैर, इन सबसे उबरने में अधिक मेहनत-मशक्कत नहीं करनी पड़ी. दूसरी बात यह कि वहां कई सालों से एक ही जगह कार्य करने से एक कम्फर्ट जोन में था, वह यहाँ फिर से बनाना. खैर, नए लोगों से मिलना, उन्हें जानना-समझना अच्छा लगता है, सो जल्द ही यहाँ भी अपना कम्फर्ट जोन बना ही लिया.
खैर, जीवन यूँ भी खानाबदोश हो चुका है. अपने देश में रहते हुए भी अप्रवासी होने को हम अभिशप्त हैं. कहने को भले ही कितना भी पटना को अपना कहूँ, मगर अब पटना जाने पर ही परायापन महसूस होता है. और वापस बैंगलोर(पहले चेन्नई) में प्रवेश करते ही लगता है जैसे अपने शहर, अपने घर में आ गया हूँ. पटना अब मात्र नौस्टैल्जिक होने वाला शहर ही बन कर रह गया है.
पटना को भूलना वैसे भी बड़ा मुश्किल है - (फ़िल्म दीवार: हम चाहे कितने भी अलग क्यों न हों जाएँ, हमारे बचपन एक दूसरे से अलग नहीं हो सकते)... मगर जितने शहरों में रहा कोलकाता (6 साल), दुबई (4 साल), दिल्ली (7 साल).. छोड़ते वक़्त रोया ज़रूर हूँ! मगर रिश्ते आज भी बने हैं उन शहरों से! पता नहीं क्यों बेरुख़ी नहीं हो सकी उन शहरों के प्रति, जबकि कई बहुत ही कटु अनुभव रहे!
ReplyDeleteबेंगलुरु से मेरा भी गहरा सम्बन्ध है और "डर" का रिश्ता भी!
साल मुबारक!! :)
आज के जीवन की ज़रूरतों ने सभी का ये हाल कर रखा है .... जाने कितने ही लोग यूँ अपने ही देश में अप्रवासी हैं ....
ReplyDeleteबीतीं बातें कैसी भी हो..पर उसकी याद हमेशा अच्छी होती है..
ReplyDeleteहम कभी अपना शहर छोड़ कर और कहीं रहे ही नहीं...पर फिर भी सहमत हूँ तुम्हारी बातों से...वैसे बचपन, दोस्त और कुछ ख़ास से रिश्ते...कहीं भी रहो, हमेशा याद रहते है...|
ReplyDeleteएक अच्छी सी पोस्ट के लिए बधाई...:)
उजड़ते बसते रहो :)
ReplyDeleteधीरे धीरे आप बेंगलोर में भी रम जायेंगे।
ReplyDeleteछोड़ आये हम वो गलियां !!!!
ReplyDelete"खैर, जीवन यूँ भी खानाबदोश हो चुका है. अपने देश में रहते हुए भी अप्रवासी होने को हम अभिशप्त हैं"
ReplyDeleteएक वाक्य गागर में सागर भरता है
बड़े दिन हुए आपके ब्लॉग के दर्शन किये !
शुक्रिया वरुण जी.
Deleteज़िन्दगी की यही रीत है
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