हमारे कई मित्र इस बात पर आपत्ति जता रहे हैं कि देवयानी मामले में भारत सरकार इतनी आक्रामक क्यों है? जबकि दुसरे अन्य मामलों में ऐसा नहीं था. मेरे कुछ अमेरिका में रहने वाले मित्र भी इस बात को हमारी बातचीत में उठा चुके हैं. कुछ मित्र यह भी कह रहे हैं कि "सुनील जेम्स" जो छः महीनों से टोगो के जेल में बंद...
Thursday, December 19, 2013
Monday, December 09, 2013
हम लड़ेंगे साथी
आज बस एक पुरानी कविता आपके सामने -
हम लड़ेंगे साथी हम लड़ेंगे साथी,उदास मौसम के लिए हम लड़ेंगे साथी,गुलाम इच्छाओं के लिए हम चुनेंगे साथी,जिन्दगी के टुकड़े हथौड़ा अब भी चलता है,उदास निहाई पर हल अब भी बहते हैं चीखती धरती पर यह काम हमारा नहीं बनता,प्रश्न नाचता है प्रश्न के कन्धों पर चढ़कर हम लड़ेंगे साथी...
Tuesday, October 15, 2013
Tuesday, May 28, 2013
ज्वलंत समय में लिखना प्रेम कविता
1.
जब देश उबल रहा था
माओवादी हिंसा एवं
आदिवासियों पर हुए अत्याचार पर
मैं सोच रहा था कि लिखूँ
एक नितांत प्रेम में डूबी कविता!!
2.
बुद्धिजीवियों के विमर्श का शीर्ष बिंदू
जब थी सामाजिक समस्याएँ
तब मैं सोच रहा था लिखूँ
कुछ ऐसा जो छू ले तुम्हारे अंतर्मन को
3.
तथाकथित बुद्धिजीवी
जब लगे थे इस जुगत में
की...
Friday, May 17, 2013
Thursday, April 04, 2013
अतीतजीवी
ख़्वाब देखा था, ख़्वाब ही होगा शायद. अक्सर ख़्वाबों में कई दफ़े देखा है उनको अपने पास. बेहद क़रीब. इतना जैसे कि हाथ बढ़ाओ और उन्हें छू लो.
वो आये और आकर चले गए. ऐसे जैसे आये ही ना हों. मगर वो आये थे, इसका गवाह मेरे घर में बसे उनकी खुश्बू दे रहा है. ढेर सारे आशीर्वाद और ममत्व की खुश्बू. कुछ जूठे बर्तन, कुछ...
Wednesday, March 27, 2013
सलाहें
"कहाँ घर लिए हो?"
"जे.पी.नगर में."
"कितने में?"
"1BHK है, नौ हजार में"
"तुमको ठग लिया"
सामने से स्माइल पर मन ही मन गाली देते हुए, "साले, जब घर ढूंढ रहा था तब तेरी सलाह कहाँ गई थी? इतना ही है तो अभी भी इससे कम में उसी आस-पास में ढूंढ कर दे दो. मेरा क्या है, मेरा तो पैसा ही बचेगा"
फिर से -
"कहाँ घर लिए...
Friday, March 15, 2013
ज़िन्दगी जैसे अलिफ़लैला के किस्से
अभी तक इस शहर से दोस्ती नहीं हुई. कभी मैं और कभी ये शहर मुझे अजीब निगाह से घूरते हैं, मानो एक दुसरे से पूछ रहे हों उसका पता. सडकों से गुजरते हुए कुछ भी अपना सा नहीं लगता. पहचान होगी, धीरे-धीरे, समय लगेगा यह तय है.
चेन्नई को समझने के लिए कभी इतना समय नहीं मिला. ज़िन्दगी बेहद मसरूफ़ थी और मन में भी पहले...
Wednesday, March 13, 2013
शहर
बैंगलोर कि सड़कों पर पहले भी अनगिनत बार भटक चुका हूँ. यह शहर अपनी चकाचौंध के कारण आकर्षित तो करता रहा मगर अपना कभी नहीं लगा. लगता भी कैसे? रहने का मौका भी तो कभी नहीं मिला था. २००५ में पहली दफे इस शहर में आया था, शायद जुलाई का महिना था वह. और लगभग साढ़े सात साल बाद बसने कि नियत से इस साल जनवरी में आया.
अभी...