Thursday, December 19, 2013

देवयानी पर उठे बवाल संबंधित कुछ प्रश्न

हमारे कई मित्र इस बात पर आपत्ति जता रहे हैं कि देवयानी मामले में भारत सरकार इतनी आक्रामक क्यों है? जबकि दुसरे अन्य मामलों में ऐसा नहीं था. मेरे कुछ अमेरिका में रहने वाले मित्र भी इस बात को हमारी बातचीत में उठा चुके हैं. कुछ मित्र यह भी कह रहे हैं कि "सुनील जेम्स" जो छः महीनों से टोगो के जेल में बंद हैं, उनके मामले में भारत सरकार इतनी तीव्रता से कोई कदम क्यों नहीं उठा रही है? कई लोग आधे-अधूरी जानकारी होने के कारण से भी भ्रम में हैं.

जहाँ तक मेरी जानकारी और समझ है, देवयानी भारत का प्रतिनिधित्व कर रही है. इसलिए यह मसला इतना संजीदा हो चुका है. सुनील जेम्स का मामला हो या अन्य कोई मामला, वे सभी भारत का सीधे तौर पर प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे थे. मगर यह सीधा भारत की प्रतिष्ठा से जुड़ा मामला है. यहाँ तक कि मेरे वे सभी मित्र भी भारत का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे हैं जो भारत के बाहर हैं. अभी के भारतीय राजनीति के संबंध में भी देखें तो एक और आयाम दिखता है इस मुद्दे को इतनी हवा मिलने का. कांग्रेस सरकार कई जगहों पर अपनी असफलता से उबरने के लिए और खुद को एक सख्त एवं भारतीय प्रतिष्ठा के प्रति जागरूक दिखाने के लिए भी इस मुद्दे को हाथों-हाथ ली है.

कई जगह वियेना समझौते कि बात हो रही है, जिसके तहत इस मुद्दे को
वियेना संधि के उल्लंघन का मामला भी बताया जा रहा है. तो आईये जानते हैं कि वियेना  संधि आखिर है क्या? और कैसे अमेरिकी सरकार उसका उल्लंघन कर रही है?

"अमेरिका का व्यवहार वियना समझौते के अनुच्छेद 40 और 41 का खुला उल्लंघन है. मूलत: यह एक प्रोटोकाल है, लेकिन इसने अनेक अर्थों में एक कानून का रूप ले लिया है. इस संधि के मूलत: दो भाग हैं और दूसरे भाग का संबंध दूतावास में काम करने वाले अधिकारियों और काउंसलर पोस्ट के अन्य सदस्यों को मिलने वाले अधिकार, सुविधाओं और रियायतों से है.

अनुच्छेद 40 के अनुसार कोई देश अपने यहां कार्य करने वाले दूसरे देशों के राजनयिकों के साथ यथोचित सम्मानजनक व्यवहार करेगा और उन्हें एक राजनयिक को मिलने वाली सुविधाओं से वंचित नहीं किया जाएगा तथा उनके व्यक्तित्व, स्वतंत्रता और गरिमा पर होने वाले किसी हमले से उनकी रक्षा करेगा. अनुच्छेद 41 के अनुसार केवल गंभीर प्रकृति के अपराधों के मामलों को छोड़कर दूतावास के अधिकारियों और कर्मचारियों की गिरफ्तारी नहीं की जाएगी अथवा उन्हें हिरासत में नहीं लिया जाएगा. इसी तरह अनुच्छेद 42 गिरफ्तारी, हिरासत अथवा अभियोजन की नोटिफिकेशन से संबंधित है. कुल मिलाकर ऐसी व्यवस्था की गई है कि दूतावास के किसी अधिकारी और कर्मचारी के साथ इस तरह बर्ताव किया जाएगा कि उनके सम्मान, स्वतंत्रता , गरिमा पर कोई आंच न आए. देवयानी के मामले में अमेरिका ने यह कसौटी पूरी नहीं की. तीनों आधार पर अमेरिका ने वियना संधि का उल्लंघन किया. देवयानी खोबरागडे को जिस तरह गिरफ्तार किया गया उससे उनके सम्मान पर आंच आई, जिस तरह तलाशी ली गई उससे उनकी निजता प्रभावित हुई और उन्हें जिस तरह कुख्यात अपराधियों के साथ जेल में रखा गया उससे उनकी गरिमा को आघात लगा. भारत की आपत्ति का यही आधार है और सख्त जवाबी कार्रवाई की यही वजह."


कुछ लोग यह कह रहे हैं, यहाँ तक कि मैं भी जानता हूँ की देवयानी गलत थी. मगर इसके बरअक्स यह भी सवाल मन में आता है कि जब 23 जून से ही उनकी नौकरानी लापता हैं, उनका पासपोर्ट भी इस वजह से भारत सरकार निलंबित कर चुकी है, तो अमेरिकी सरकार उस पर संज्ञान उतनी ही तीव्रता से क्यों नहीं ली जितनी कि देवयानी पर ली?

इसमें भी कोई शक नहीं कि हमारी भारतीय व्यवस्था सामंतवादी व्यवस्था है. और देवयानी ने उसी के अनुरूप कार्य करके अमेरिकी क़ानून का उल्लंघन की है. भले भारत में यह शान की बात है मगर वहां के लिए यह जुर्म है इस बात को भी अच्छी तरह समझती रही होंगी. मगर यह मामला इतना भी आसान नहीं है जितना दिखता है. क्योंकि संगीता इतनी भी बेचारी प्रतीत नहीं हो रही जितनी एक आम भारतीय के घर में कार्य करने वाले सेवक-सेविकाएँ. इसका सबसे बड़ा उदहारण यह है कि दस दिसंबर को संगीता के पति एवं पुत्र अमेरिका के लिए निकले थे और बारह दिसंबर को देवयानी कि गिरफ़्तारी हुई. एक आम भारतीय के पास अमेरिका यात्रा से पहले अनेक अर्थ संबंधी प्रश्न मुंह बाए खड़े होते हैं यह हम सभी जानते हैं. और अगर उनके टिकट का इंतजाम अमेरिकी सरकार की है तो यह और भी रोचक षड्यंत्र के तौर पर सामने आती है.

फिलहाल तो भारतीय सरकार द्वारा अमेरिकी विदेश मंत्रालय से पूछे गए वे चार सवाल मेरे मन में भी है जिसका उत्तर अभी तक नहीं दिया गया है.

1. देवयानी की घरेलू सहायक और भारतीय नागरिक संगीता रिचर्ड की खोज के बारे में क्या हुआ? संगीता भारतीय पासपोर्ट पर अमरीका पहुंची थीं और वो 23 जून से ही लापता हैं. इस बात की जानकारी तत्काल न्यूयॉर्क स्थित विदेशी मिशन विभाग को दे दी गई थी.

2. इसके अलावा इस बात की भी जानकारी मांगी गई कि पासपोर्ट और वीज़ा स्टेटस में बदलाव करने और अमरीका में कहीं भी काम करने की छूट देने संबंधी संगीता रिचर्ड की मांग के ख़िलाफ़ अमरीका ने क्या कार्रवाई की, क्योंकि ये अमरीकी नियमों के प्रतिकूल है.

3. तीसरा सवाल पूछा गया कि चूंकि संगीता का पासपोर्ट आठ जुलाई 2013 को रद्द कर दिया गया था और वो अभी भी वहां ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से रह रही है, तो अमरीकी सरकार ने संगीता को वापस भेजने में किस तरह की मदद की?

4. संगीता की गिरफ़्तारी के बारे में क्या क़दम उठाए गए क्योंकि वो देवयानी के घर से नगद पैसे, मोबाइल फ़ोन और कई ज़रूरी दस्तावेज़ उठाकर ले गई थी. यहाँ चोरी का भी मामला बनता है.


एक सवाल जो भारत सरकार ने नहीं पूछा मगर मेरे मन में है उसे भी इन सवालों कि सूची में शामिल कर रहा हूँ.

5. अमूमन अमेरिका सरकार किसी भी छोटी सी भूल अथवा किसी छोटी सी इन्फोर्मेशन कि कमी के कारण भी वीजा देने से इनकार कर देती है. मसलन अगर आप दसवीं कि अंक सूची संलग्न करना भूल गए हों मगर आपने PHd. तक कि जानकारी दे रखी है फिर भी वे वीजा रिजेक्ट कर देते हैं. मगर भारत में सुनीता पर और उसके पति के ऊपर केस चलने के बावजूद वह उन्हें वीजा के लिए उपयुक्त मानते हुए वीजा कैसे प्रदान कर दी?

जो भी इस मामले को इतनी तूल दिए जाने के विरोध में बातें कर रहे हैं उन्हें यह अच्छी तरह समझना चाहिए कि यह भार कि प्रतिष्ठा से जुड़ा प्रश्न पहले है और भारत के लिए किसी भारतीय नागरिक के पक्ष में खड़ा होते दिखाना बाद में. वैसे भी हम सभी अच्छी तरह जानते हैं कि एक पश्चिमी देश जितना अधिक अपने नागरिकों के विदेश में सुरक्षा के प्रश्न पर उनके साथ होता है उतनी तत्परता भारत जैसे विकासशील देश यदा-कदा ही दिखता हैं.

Monday, December 09, 2013

हम लड़ेंगे साथी

आज बस एक पुरानी कविता आपके सामने -

हम लड़ेंगे साथी

हम लड़ेंगे साथी,उदास मौसम के लिए
हम लड़ेंगे साथी,गुलाम इच्छाओं के लिए
हम चुनेंगे साथी,जिन्दगी के टुकड़े

हथौड़ा अब भी चलता है,उदास निहाई पर
हल अब भी बहते हैं चीखती धरती पर
यह काम हमारा नहीं बनता,प्रश्न नाचता है
प्रश्न के कन्धों पर चढ़कर
हम लड़ेंगे साथी

कत्ल हुए जज्बों की कसम खाकर
बुझी हुई नजरों की कसम खाकर
हम लड़ेगे साथी
हम लड़ेंगे तब तक
जब तक वीरू बकरिहा
बकरियों का मूत पीता है
खिले हुए सरसों के फूल को
जब तक बोने वाले खुद नहीं सूँघते
कि सूजी आँखो वाली
गाँव की अध्यापिका का पति जब तक
युद्ध से लौट नहीं आता
जब तक पुलिस के सिपाही
अपने ही भाइयों का गला घोंटने को मजबूर हैं
कि दफ्तर के बाबू
जब तक लिखते हैं लहू से अक्षर....
हम लड़ेंगे जब तक
दुनिया में लड़ने की जरूरत बाकी है....
जब बन्दुक न हुई,तब तलवार होगी

जब तलवार न हुई,लड़ने की लगन होगी
कहने का ढंग न हुआ,लड़ने की जरूरत होगी
और हम लड़ेंगे साथी....

हम लड़ेंगे
कि लड़े बगैर कुछ नहीं मिलता
हम लड़ेंगे
कि अब तक लड़े क्यों नहीं
हम लड़ेंगे
अपनी सजा कबूलने के लिए
लड़ते हुए जो मर गए
उनकी याद जिन्दा रखने के लिए
हम लड़ेंगे साथी.....

- पाश

Tuesday, October 15, 2013

बाथे नरसंहार के ठीक बाद

जिस रात यह घटना घटी उससे एक दिन बाद ही मुझे PMCH के इमरजेंसी वार्ड में एक डाक्टर से मिलना तय हुआ था. सोलह-सत्रह साल की उम्र थी मेरी. सुबह जब PMCH के लिए निकला था तब तक मुझे इस घटना की जानकारी नहीं हुई थी. अस्पताल पहुँच कर मुझे पता था की इमरजेंसी वार्ड में किस डाक्टर से और कहाँ मिलना है. मगर वहां पहुँच कर एक डर सा मन में बैठ गया. हर तरफ सैकड़ों की संख्या में पुलिस थी. पुलिस से मुझे कभी वैसा भय नहीं रहा है जैसा भय आम जनों के बीच घुला मिला है. कारण शायद यह हो सकता है की घर में पापा की नौकरी की वजह से पुलिस का आना-जाना और उनकी सुरक्षा व्यवस्था में लगी पुलिस का होना. मगर वहां इतनी अधिक पुलिस देख कर मन में भय समां गया. फिर भी हिम्मत करके इमरजेंसी वार्ड के दरवाजे पर गया तो पाया की वहां दरवाजे पर भी भारी सुरक्षा व्यवस्था थी. और किसी को भी अंदर नहीं जाने दे रही थी. मैं किसी तरह उन डाक्टर का नाम लेकर और कुछ और बहाने बना कर अंदर जा घुसा. मेरे साथ आये पापा के स्टाफ को पुलिस ने अंदर नहीं जाने दिया. शायद मैं लगभग बच्चा ही था इसलिए मुझे जाने दिया हो. अंदर पहुँचते ही सबसे पहले हॉल आता है, वहीं कम से कम तीस-चालीस लाशें रखी हुई थी. मुझमें आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं थी फिर भी यह सोच कर की जब यहाँ आया ही हूँ तो उस डाक्टर से मिल ही लूँ, और उनके कमरे की तरफ आगे बढ़ गया. उनके कमरे की तरफ जाते हुए कई लोग बिस्तर पर बेसुध हुए दिखे जो जिन्दा तो थे, मगर गोलियों से छलनी, और इलाज के लिए अपनी बारी का इन्तजार कर रहे थे. शायद इतने लोगों का एक साथ इलाज संभव नहीं रहा हो उस वक़्त. आगे बढ़ने की हिम्मत भी टूट चुकी थी. किसी तरह बाहर वापस आया और घर चला गया. मगर कई सालों तक वह भयावह दृश्य आँखों के सामने घूमता रहा.

अभी जिस दिन सभी अपराधियों को हाईकोर्ट द्वारा बरी करने की खबर आई थी तो यह सब आँखों के सामने घूम गया. साथ ही यह भी भरोसा हो चला की उन्हें किसी ने गोली नहीं मारी. वे तो आसमान से बरसती गोलियों के शिकार हुए थे. उनका हत्यारा कोई नहीं.


Tuesday, May 28, 2013

ज्वलंत समय में लिखना प्रेम कविता

1.
जब देश उबल रहा था
माओवादी हिंसा एवं
आदिवासियों पर हुए अत्याचार पर

मैं सोच रहा था कि लिखूँ
एक नितांत प्रेम में डूबी कविता!!

2.
बुद्धिजीवियों के विमर्श का शीर्ष बिंदू
जब थी सामाजिक समस्याएँ

तब मैं सोच रहा था लिखूँ
कुछ ऐसा जो छू ले तुम्हारे अंतर्मन को

3.
तथाकथित बुद्धिजीवी
जब लगे थे इस जुगत में
की कैसे साधा जाए अर्थ संबंधी
अपना नितांत स्वार्थ

मैं सोच रहा था लिखूँ कुछ ऐसा
कि तुम हो जाओ मेरी

4.
उस क्षण जब
आदिवासियों को माओवादी
और
माओवादियों को राजनितिज्ञ करार दिया गया था

मैं डूबा था
तुम्हारे प्रेम की बातों में

5.
उस वक़्त जब लोग प्रयत्नरत थे
बन्दूक की नाल से सत्ता की ओर

मैं प्रयत्नरत था प्रेम की ओर
और तोड़ने में वे सभी हिंसक
मानसिक हथियार

Friday, May 17, 2013

बयार परिवर्तन की

बिहार की राजनीति में रैलियों का हमेशा से महत्व रहा है और अधिकांश रैलियों में सत्ता+पैसा का घिनौना नाच एवं गरीबी का मजाक भी होता रहा. इस बार आया "परिवर्तन रैली".

आईये जानते हैं कि परिवर्तन किसे कहते हैं?
१. लालू-नितीश ने साथ-साथ ही राजनीति कि शुरुवात की थी. जब जे.पी. इसी गांधी मैदान जन को संबोधित करते हुए में इंदिरा गांधी को तानाशाह कहते थे तब ये दोनों साथ-साथ तालियाँ भी बजाते थे. और अभी पिछले कई सालों से सत्ता के पीछे भागते हुए एक दूसरे के विरोध में राजनीति कर रहे हैं. यह है परिवर्तन!

२. इंदिरा कि तानाशाही के खिलाफ जिन्होंने अपनी राजनीति शुरू की, वही तानाशाही इन्होंने सत्ता में आने के बाद अपनाई. इसी तानाशाही ने इंदिरा को डुबाया. फिर लालू को. अब समय नितीश के इन्तजार में है. यह है परिवर्तन!

३. कर्पूरी ठाकुर के समय में भाई-भतिजाबाद के खिलाफ राजनीति करने वाले लालू आज ख़म ठोक कर अपने बेटे को राजनीति में पेश करते हैं और नितीश से भी गरजकर पूछते हैं कि "तुम्हारा बेटा क्या कर रहा है आजकल?" यह है परिवर्तन!

४. जिस कांग्रेस के खिलाफ इन दोनों ने अपनी राजनीति शुरू की थी, काफी समय तक उसी कांग्रेस के साथ सत्ता का सुख लालू भोग चुके हैं और अब नितीश इन्तजार में हैं, कि भाजपा से अगर मोदी की वजहों से अलग होना पड़े तो कांग्रेस की नाव पर सवार हो सकें. यह है परिवर्तन!

५. ये वही लालू हैं जो बिहार में अभी गुंडा राज बता रहे हैं और सहाबुद्दीन कि बड़ी सी तस्वीर अपने हर होर्डिंग पर लगा रखे हैं. ना तो लालू अपने समय के गुंडाराज में झाँकने को तैयार हैं और ना नितीश आँख खोल कर देखने को तैयार हैं अभी के लौ-एंड-आर्डर की परिस्थियों को. यह है परिवर्तन!

ऐसे जाने कितने प्रश्न हैं जो समय इनसे पूछेगा, और ये दोनों बेशर्मी से खींसें निपोरेंगे. ये बिहार का दुर्भाग्य है जो उसकी जनता के पास इनसे बेहतर कोई विकल्प नहीं है.

आखिर कहा भी गया है, एकमात्र परिवर्तन ही अपरिवर्तनीय है!!

मैं तो कहता हूँ लखनऊ की तर्ज पर पटना में भी एक परिवर्तन चौक बना ही दिया जाए, ठीक हड़ताली चौक के आस-पास, सचिवालय के निकट. जहाँ से ऐसे झूठे परिवर्तन की बयार बहाने में इन्हें मदद मिल सके. एक हड़ताली चौक तो है ही पहले से. जनता वहां सही-गलत मुद्दे पर हड़ताल करेगी, और ये लोग वहां से परिवर्तन की बयार बहा सकेंगे.


यह तस्वीर राकेश कुमार सिंह जी के फेसबुक प्रोफाईल से ली गई है. उन्होंने यह तस्वीर इस रैली के समय पटना में रहते हुए ली थी. वहां इस तस्वीर के साथ वह कहते हैं -
"ई बाला होरडिंग देख के बहुत खटका मन में. जो अदमी सज़ायाफता मुजरिम है. लूट और मडर जैसन अभियोग में जेल में बंद है, उ समूचा पटना में टंगाए मिले. देखिए चच्‍चा तनि ई होरडिंगबा को. हाथ में लालटेन लिए, बुरखा वाली औरत! माने मुसलमान भोटर के रिझावे खातिर एतना खेल! पूछे नेता लोग से त कुछ छोटका सब त अलबला आ तिलमिला गए. बाकी, एक ठो जिम्‍मेदार नेताजी आफ द रिकाड कहे कि गलती हो गया. आगे से धेयान रखा जाएगा. "

Thursday, April 04, 2013

अतीतजीवी

ख़्वाब देखा था, ख़्वाब ही होगा शायद. अक्सर ख़्वाबों में कई दफ़े देखा है उनको अपने पास. बेहद क़रीब. इतना जैसे कि हाथ बढ़ाओ और उन्हें छू लो.

वो आये और आकर चले गए. ऐसे जैसे आये ही ना हों. मगर वो आये थे, इसका गवाह मेरे घर में बसे उनकी खुश्बू दे रहा है. ढेर सारे आशीर्वाद और ममत्व की खुश्बू. कुछ जूठे बर्तन, कुछ चाय के लिए लाया दूध, चायपत्ती कि एक डिब्बी जो अमूमन मेरे घर में नहीं रहती है, उनकी लायी कुछ मिठाइयाँ, चंद तस्वीरें जो मेरे कैमरे में बंद है, जाते समय उनके चेहरे कि मायूसी, जाते वक्त कि उनकी डबडबाई आँखें, पापा का लाल वाला चप्पल जो मेरे लिए छोड़ गए, उनके बिस्तर कि सिलवटें, घर में मौजूद मम्मी के कुछ लम्बे बाल....

कुछ कहते हुए पापा के चेहरे पर ख़ुशी बेसुमार थी. मुझे नहीं पता कि क्या कह रहे थे, मैं तो सिर्फ उनके चेहरे पर चढ़ते-उतरते भाव को ही देख रहा था. उनकी आँखें कभी छोटी, कभी बड़ी हो रही थी. हल्के झुर्रियों वाले चेहरे पर कई भाव आ जा रहे थे. अकचका कर अचानक वो मुझसे पूछते हैं, क्या देख रहे हो? मुझे खुद नहीं पता कि मैं क्या देख रहा था. बस मुस्कुरा भर दिया. होली का पर्व तो बीत चुका था, उल्लास का पर्व अब मनाया जा रहा था. देखा कि उनके गले के पास वाला वो काला मस्सा अभी भी वैसा ही है.

मम्मी के बालों को देखा, जो सामने से अब लम्बे हो गए थे. चेहरे पर कि मांसपेशियां जो पहले तनी रहती थी, अब ढुलक चुकी हैं. पहले तनाव में हमेशा दिखने वाले चेहरे पर अब हमेशा सौम्य सी मुस्कान दिखती रही. अभी बीते कुछ दिनों में अपने कुछ करीबी मित्रों की माँओं से मिलने का मौका मिला था, उन सबके बारे में सोचता हूँ. सब एक सी ही लगती प्रतीत होती हैं. लगता है जैसे एक उम्र के बाद सभी माँओं कि शक्लें एक सी ही हो जाती है. वही वात्सल्य भाव से सराबोर.

पहली रात खाना खाने के बाद पापा/मम्मी को किचेन के सिंक कि ओर बढ़ते देख चिल्लाता हूँ, ऐसे ही रख दीजिये, मैं साफ़ कर दूंगा. वे भी सिर्फ "हूँ" कहकर सिंक में छोड़ दिए. अगली सुबह उनसे थोड़ी देर से जगा तो पाया कि सारे बर्तन साफ़ हैं. अगली रात सारे बर्तन साफ़ करके सोया.

पहली सुबह पापा के फोन से नींद खुली, पता चला कि कहीं गए थे सुबह-सुबह और रास्ता भटक गए. मैं और मम्मी देर तक इस पर हँसते रहे. वापस घर आकर पापा भी हँसते रहे. लगा जैसे पूरा घर खुश है, दीवार और खिड़की पर टंगे परदे भी हंस रहे थे. लगा जैसे घर मुझे घूर रहा है, इतने कहकहे उसने अभी तक एक साथ नहीं देखे थे कभी.

शाम में पापा को लेकर बैंगलोर कि कुछ गलियाँ, कुछ मौसम, कुछ फैशन दिखलाता रहा. उन्हें मेरी बाईक पर बैठने में डर लगता है, पीछे का सीट कुछ ऊंचा है किसी भी स्पोर्ट्स बाईक की तरह इसलिए. फिर भी बिना ना-नुकुर किये मेरे साथ भटकते रहे, इस भरोसे के साथ कि बेटे के साथ हूँ तो क्या डर? और मैं सोच रहा था बचपन से लेकर अभी तक मैं भी तो अपने हर डर पर उनके साथ इसी तरह काबू पाना सीखा हूँ. घर आया तो देखा घर कुछ अधिक व्यवस्थित है, मम्मी काफी कुछ ठीक कर रखी थी.

सोमवार कि सुबह साढ़े आठ बजे तब वे जा चुके थे. पीछे छोड़ गए थे ढेर साडी हिदायतें. ऐसी हिदायतें जिनकी या तो जरूरत नहीं थी, या फिर वे भी जानते थे कि मैं वे सब चीजें पहले से ही करता हूँ, और जो नहीं करता वो आगे भी नहीं करूँगा. मैं उन्हें टैक्सी में बिठा कर वापस आकर घर के हॉल में लगे कुर्सी पर बैठ निर्वात में ताकता रहा. साढ़े नौ बजे अपने तक उसी अवस्था में बैठा सोचता रहा कि क्या वे वाकई यहाँ थे? फिर उठा बेमन से और वापस किसी यांत्रिक मानव कि तरह सारे कार्य करने लगा.

Wednesday, March 27, 2013

सलाहें

"कहाँ घर लिए हो?"
"जे.पी.नगर में."
"कितने में?"
"1BHK है, नौ हजार में"
"तुमको ठग लिया"
सामने से स्माइल पर मन ही मन गाली देते हुए, "साले, जब घर ढूंढ रहा था तब तेरी सलाह कहाँ गई थी? इतना ही है तो अभी भी इससे कम में उसी आस-पास में ढूंढ कर दे दो. मेरा क्या है, मेरा तो पैसा ही बचेगा"

फिर से -
"कहाँ घर लिए हो?"
"जे.पी.नगर में."
"कितने में?"
"1BHK है, नौ हजार में"
"अकेले रहते हो तो इतना पैसा क्यों बर्बाद कर रहे हो? किसी PG में क्यों नहीं ढूंढ लेते हो?"
फिर से मन में गाली देते हुए, "पैसा मैं कमाता हूँ, घर में मैं रहता हूँ, घर का किराया मैं देता हूँ, तो तुम्हें क्या दिक्कत है हज़रत? कोई PG चलाते हो क्या? या किस PG वाले कि एजेंट हो?"

फिर से -
"कहाँ घर लिए हो?"
"जे.पी.नगर में."
"कितने में?"
"1BHK है, नौ हजार में"
"और ऑफिस कहाँ है?"
"वहीं पास में, घर से आधे किलोमीटर पर"
"चार किलोमीटर दूर ले लेते तो दो हजार कम लगता"
फिर से मन में सोचते हुए, "और उसके साथ दो घंटे के ट्रैफिक का धुवाँ और धूल भी मुफ़्त में ही मिलता + दो घंटे बर्बाद अलग से, आपको आपकी अपनी धूल मुबारक़, हमें अपना बचा हुआ समय मुबारक़."

फिर से -
"कहाँ घर लिए हो?"
"जे.पी.नगर में."
"कितने में?"
"1BHK है, नौ हजार में"
"कितना अडवांस लिया?"
"साठ"
"थोडा और निगोसिएट करना चाहिए था तुमको"
मन में सोचते हुए, "जब घर ले रहा था तब भी तुम सबको पता था. जब इतनी ही चिंता थी तो तभी आकर खुद निगोसिएट करके कम में अडवांस तय करवा देते"

दोस्तों को मेरी सलाह है, मुफ़्त की सलाह अपने ही पास रखें. मुझे पता है कि मैं क्या कर रहा हूँ.
PS : पिछले दो महीनों में ऐसी कितनी ही बातें सुन-सुन कर पक चुका हूँ. अगर आप मदद कर सकते हैं तो सलाह दें, वरना अपनी सलाह अपने मुंह में ही रखें.

Friday, March 15, 2013

ज़िन्दगी जैसे अलिफ़लैला के किस्से

अभी तक इस शहर से दोस्ती नहीं हुई. कभी मैं और कभी ये शहर मुझे अजीब निगाह से घूरते हैं, मानो एक दुसरे से पूछ रहे हों उसका पता. सडकों से गुजरते हुए कुछ भी अपना सा नहीं लगता. पहचान होगी, धीरे-धीरे, समय लगेगा यह तय है.

चेन्नई को समझने के लिए कभी इतना समय नहीं मिला. ज़िन्दगी बेहद मसरूफ़ थी और मन में भी पहले से बैठे कई पूर्वाग्रह थे, और वे सभी पूर्वाग्रह मिल कर एक ऐसा कोलाज तैयार कर चुके थे जिसमें दोस्ती का कोई सवाल ही ना था. मन में यही था कि जब तक यहाँ रहना है तब तक समय गुजार लो. फिर कौन देखने आया है? यूँ भी अपनी-अपनी जड़ों से कट कर यायावरों सी ही ज़िन्दगी तो गुजार रहे हैं हम जैसे सभी लोग, जो नौकरी कि तलाश में घर से निकल आये थे कभी! अब तो ना अपनी जगह अपनी सी लगती है और ना ही वो जगह जहाँ उस वक़्त हम होते हैं. अपनी जड़ों से कटने कि भी सजा तय है मानो, उम्र कैद!!! ताउम्र ऐसे ही भटकने कि सजा.

मगर यह भ्रम तब टूटा जब चेन्नई छूट रहा था. फेसबुक पर भैया मुझे टैग करके लिखे थे "प्रशान्त का हाल बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए वाला है". लगा कि हमारी दोस्ती तो हो चुकी थी. कब कैसे ये कुछ पता नहीं. २५ जनवरी को दफ्तर में आखिरी दिन था और एक्जिट प्रोसेस का फॉर्म मेरे पास २४ को ही आ चुके थे. जैसे ही मेरे दफ्तर के ईमेल अकाउंट में एक्जिट प्रोसेस का फॉर्म आया वैसे ही लगा जैसे कुछ छूट रहा हो. मन मानने को तैयार नहीं कि जिस शहर से मैं बस भाग जाना चाहता था उस शहर के छूटने पर तकलीफ भी हो सकती थी, मगर यही सच था. वो शहर जिसने मुझे कभी दुत्कारा नहीं, हमेशा लाड-प्यार से रखा. मगर बदले में मुझसे घृणा ही पाया.

शुरू के छः महीने, या ये कहें कि पांच महीने चेन्नई में सिर्फ नाम मात्र को हम(शिवेंद्र और मैं) होते थे. ऑफिस के दिनों में मैन्सन से ऑफिस और ऑफिस से मैन्सन. बस. और जैसे ही साप्ताहांत आया वैसे ही चेन्नई से वेल्लोर. वहां शिवेंद्र होस्टल में ना रह कर बाहर एक कमरा ले रखा था, जो बाद में उसका कमरा कम और हम दोस्तों का ऐशगाह ज्यादा बना रहा. तो चेन्नईसे वेल्लोर जाने के बाद हम वहीं ठहरते थे.

अमूमन हम जब भी चेन्नई से वेल्लोर जाते थे तब शायद ही कभी हमारी टिकट चेक हुआ हो. मगर एक बार कि घटना है, हम टिकट के लिए लाइन में लगे हुए थे, और ट्रेन बस खुलने ही वाली थी. हमने देखा कि ट्रेन खुल रही है, बस उसी वक़्त हमने तय किया कि टिकट तो वैसे भी कोई चेक करता नहीं है, सो पकड़ लो, वरना अगली गाडी तीन घंटे बाद है. जीवन में सिर्फ एक ही दफे बिना टिकट यात्रा करते पकड़ा भी गया था. इन्टर्न करने वाले और उससे मिलने वाले स्टाइपेंड के पैसे से जीने वाले के पास पैसे आमतौर पर नहीं हो होते हैं, मगर संयोग से पास में पैसे थे नहीं तो खुदा ही मालिक होता.

मैं ठहरा सामिष, और शिवेंद्र निरामिष. अब इसी नॉन-वेज को लेकर भी उसी पांच महीने में दो मजेदार घटनाएं घटी. पहली घटना तब जब हमारे कुछ मित्र किसी इंटरव्यू के लिए चेन्नई आये हुए थे, और उनके जाते समय हम उन्हें छोड़ने चेन्नई सेन्ट्रल पर आये. रात के साढ़े आठ या नौ बज रहे थे. मुझे छोड़ सभी भूखे भी थे और ट्रेन खुलने में कुछ समय भी था. मैं दफ्तर के पास ही शाम में कुछ खाया था. वहीं पास के एक बिरयानी स्टाल से सभी ने अपनी-अपनी सुविधानुसार बिरयानी लिए, कोई अंडा बिरयानी तो कोई चिकेन बिरयानी और कुछ वेज बिरयानी. उन्हें देने के बाद वो स्टाल भी बंद हो गया. शिवेंद्र ने एक चम्मच ही खाया और मुझे जबरदस्ती बहुत अधिक इंसिस्ट करते हुए खाने के लिए कहा. बोला कि बहुत शानदार बिरयानी है, थोडा टेस्ट कर लो. मैंने जैसे ही टेस्ट किया मुझे चिकेन का टेस्ट आया, समझ गया कि वेज बिरयानी में चिकेन ग्रेवी डाला गया है. मैं जबरदस्ती उससे छीन कर सारा खा गया, मगर उसे कुछ बताया नहीं. इस बाबत उसकी गालियाँ मुझे तब तक सुननी पड़ी जब तक मैंने उसे सारा हाल नहीं बताया. उसे इस बात को लेकर मैं अभी तक चिढाता हूँ.

दूसरी घटना उस जगह कि थी जहाँ हम रोज रात में खाना खाने जाते थे. वहीं पास में स्टेडियम था जहाँ अक्सरहां क्रिकेट मैच हुआ करता है. हम जहाँ खाते थे वो छोटा सा होटल एक पंजाबी दम्पति का था. बाद में उन्होंने ने ही बताया कि वो निःसंतान भी थे, सो ढेर सारे पैसे का कोई मोह नहीं था और इसलिए वो सिर्फ रात में ही होटल खोलते थे. वर्ना उनका होटल हम जैसे उत्तर भारत से आये लड़कों कि वजह से खूब चलता था. वहां फुल्के वाली रोटी तीन रुपये कि थी और कोई भी दाल या सब्जी पंद्रह रुपये की. लगभग एक समय का भोजन तीस रुपये में अच्छे से हो जाता था. नॉन-वेज के नाम पर वो सिर्फ अंडाकड़ी रखते थे. वो तीस रुपये में दो अंडे के साथ मिलता था. वो शायद २००७ का अप्रैल का महिना था. हमें एक-डेढ़ महीने में ही अपना इन्टरन का प्रोजेक्ट ख़त्म करके वापस घर जाना था और फिर जून में वापस आना था. शिवेंद्र बहुत तृप्त होकर मुझसे कहता है, "अंकल-आंटी के खाने का एक और फायदा है, ये लोग साफ़-सफाई पर बहुत ध्यान देते हैं. वेज और नॉन-वेज को कभी मिक्स नहीं करते हैं." उस दिन मैंने खुद के लिए अंडाकड़ी मंगाया था. हमारे ठीक सामने अंकल सब्जी और अंडाकड़ी निकाल रहे थे और आंटी रोटी बना रही थी. अंकल ने पहले अंडाकड़ी निकाला और फिर उसी चम्मच से सब्जी भी निकाल कर सामने रख दिए..बेचारा शिवेंद्र कहे तो क्या कहे? बस अंकल को बोला सब्जी दुसरे चम्मच से निकाल कर दो. मगर यह भी समझ गया कि पता नहीं कितनी बार वो ऐसे ही खा चुका होगा.

खैर, ज़िन्दगी के ये किस्से भी तो अलिफ़लैला के किस्सों से अलग नहीं ही होते हैं. हर दिन हम गर गौर से देखें तो एक नया किस्सा निकल आता है. फिलवक्त के लिए अलविदा.

Wednesday, March 13, 2013

शहर

बैंगलोर कि सड़कों पर पहले भी अनगिनत बार भटक चुका हूँ. यह शहर अपनी चकाचौंध के कारण आकर्षित तो करता रहा मगर अपना कभी नहीं लगा. लगता भी कैसे? रहने का मौका भी तो कभी नहीं मिला था. २००५ में पहली दफे इस शहर में आया था, शायद जुलाई का महिना था वह. और लगभग साढ़े सात साल बाद बसने कि नियत से इस साल जनवरी में आया.

अभी भी लगता है जैसे कल कि ही बात थी. कालेज के दिनों में पहली बार अपने दो दोस्तों के साथ यहाँ आया था, इरादा कुछ तफरी करने का था. वेल्लोर से बैंगलोर. जब २००५ जुलाई कल कि बात लग सकती है तो २००७ जनवरी तो उससे भी अधिक नजदीक का मामला है. २००६ दिसंबर में जयपुर दीदी के घर गया था, ठीक ३१ दिसंबर को रेल से चेन्नई उतरा. कहने को तो उससे पहले भी चेन्नई से होकर गुजरने का मौका मिला था, मगर रेल से होकर ही निकल लेता था. हाँ, जब पहली दफे वेल्लोर जा रहा था कालेज में एडमिशन के लिए तब चेन्नई एयरपोर्ट से चेन्नई सेन्ट्रल तक का रास्ता टैक्सी में तय किया था. मगर तब घबराहट रास्तों को और उस शहर को देखने अधिक थी.

जब भी चेन्नई होते हुए वेल्लोर जाता था तब सिर्फ इतना ही समझ में आया था, कि जिस स्टेशन पर गाड़ी के रुकते ही पसीने से तर-ब-तर हो जाओ, वही चेन्नई है.

३१ दिसंबर को चेन्नई उतरने के बाद शिवेंद्र का इन्तजार थोड़ी देर किया. वह वेल्लोर से चेन्नई आया था. २ जनवरी को हमें अपनी पहली नौकरी ज्वाइन करनी थी चेन्नई में, मगर उससे पहले रहने का ठिकाना भी तलाश करना था. फिर तो हमारे लिए बेहद अजीबोगरीब नामों का सिलसिला ही निकल पड़ा, जिसमें सबसे पहला नाम "चुलाईमेदू" था. एक सीनियर ने हमें बताया था कि वहीं रहते हैं, और उनके ही मैन्सन में हमारा भी इंतजाम हो जाएगा, जो कि ना हो सका. और फिर उसके बाद तो एक झड़ी सी लग गई ऐसे नामों की. जैसे कोयम्बेदू, त्यागराया(जिसे अंग्रेजी में Thyagaraya लिखते हैं और हम उत्तर भारत के लोग उसे "थ्यागराया" पढ़ते हैं, टी नगर में टी का मतलब यही है), ट्रिप्लिकेन, वरासलावक्कम, नुगमबक्कम, केलाबक्कम, पैरिस, थोरईपक्कम.. खैर हमें इतना ही समझ आया कि चेन्नई में जगहों का नाम कुछ "अक्कम-बक्कम" टाईप होता है और बैंगलोर में "हल्ली-पल्ली" टाईप.

एक और नई बात पता चली कि यहाँ PG को लोग मैन्सन कहते हैं. सच कहूँ तो मुझे उस वक़्त तक पता नहीं था कि मैन्सन का मतलब क्या होता है? मुझे बाद में शब्दकोष का सहारा लेना पड़ा था. खैर!! जब चुलाईमेदू में ना मिला तो फिर कुछ ने सलाह दी कि टी नगर में ढूंढो, वहां मिल जाएगा. खैर वहां भी ना मिला, मगर वहां ढूँढने के चक्कर में चेन्नई के एक ऐसे इलाके का पता चला जिसे देख कर हम दंग रह गए थे. हम कोडम्बक्कम से लोकल लेकर माम्बलम में उतरे, जो कि टी नगर का लोकल स्टेशन है, और जैसे ही स्टेशन से बाहर निकलने वाली गली में घुसे, लगा जैसे ग़दर मचा हुआ हो. एक लम्बी से गली, उसमें जितने दूकान, उन सब का नाम सर्वणा स्टोर, और लोग ऐसे धक्कम धक्का मचाये हुए जैसे आज ना लिए तो कल कुछ नहीं मिलेगा. जैसे कर्फ्यू लगने के बाद थोड़े समय कि ढील दी गई हो लोगों को खरीददारी करने के लिए. हम पहली बार चेन्नई कि गर्मी को देख रहे थे, उसमें भी ऐसी जगह आ गए थे. वह तो बाद में पता चला कि सालों भर उस जगह का यही हाल रहता था.

फिर वहीं किसी ने कहा कि ट्रिप्लिकेन चले जाओ, वहां जरूर मिल जाएगा. वहां मिल भी गया. और वो भी मुश्किल से दस-पंद्रह मिनट के मशक्कत में ही. वहां जाने पर ऐसा लगा जैसे दिल्ली के मुनिरका या कठबरियासराय-जियासराय वाले इलाके में आ गए हों. माहौल वैसा ही, सिर्फ एक ही भाषाई अंतर मिला, अलबत्ता सब एक बराबर. हाँ, यहाँ कि सड़के कठबरियासराय-जियासराय से अधिक चौड़ी थी. मेरा यह यकीन और पुख्ता हो चला कि सारे शहर का मिज़ाज एक सा ही होता है, बाहर से चमचमाती दिखती महानगर अंदर से ऐसे ही इलाकों में गरीबी में गिजगिजाती है, जहाँ अधिकांश नौकरी करने वाले अथवा पढने के लिए बड़े शहर में आने वाले युवा रहते हैं. शहर के अभिजात्य वर्ग ऐसे इलाकों को नफ़रत से देखती है, मगर शहरें संभली होती हैं ऐसे ही बिगड़े हुए इलाकों से.

Tuesday, February 05, 2013

बोंसाई


दमनकारी चक्र के तहत
जड़ो एवं तनों-पत्तियों को काट-छांट कर
बहाकर उन मासूम पौधों का खून
तमाशा देखते लोग
हर पौधे पे वाह-वाह का शोर

दमनकारी चक्र के तहत
हमारी जड़ों एवं प्रतिभाओं को काट-छांट कर
बहाकर प्रतिभाओं का खून
तमाशा देखते लोग
हर व्यक्ति पे वाह-वाह का शोर!!!