Monday, August 01, 2011

प्रलाप

एक अरसा हुआ कुछ लिखे हुए.. कई लोग मेल करके पूछ चुके हैं कि कई दिन हुए ! क्यों नहीं लिखता हूँ इसका जवाब जानता हूँ.. जो भी लिखूंगा वह कुछ भला सा नहीं होगा.. वह कुछ ऐसा ही प्रलाप होगा जैसे कोई पागल बीच चौराहे अपने कपड़े फाड़-फाड़ कर अर्धनग्नावस्था में घूमता है, और उसे देखकर या तो लोग बगल हट जाते हैं या तो 'च्च च्च' की आवाज देते हैं या तो कोई डबल रोटी का एक टुकड़ा फ़ेंक जाता है या तो कोई सहानुभूति जताता है, मगर अपनाने को कोई आगे नहीं आता.. और अंततः हर सहानुभूति, हर डबल रोटी का टुकड़ा और हर 'च्च च्च' की आवाज किसी आधुनिक समाज के प्रपंच से अधिक नजर नहीं आता है.. अरे मैं उन सब भावों में घृणा का भाव तो भूल ही गया था.. वह पागल पता नहीं क्या समझता होगा और क्या नहीं, मगर मैं उन दीन भावों को नहीं सह सकता..