बचपन से 'बाढ़' शब्द सुनते ही विगलित होने और बाढ़-पीड़ित क्षेत्रों में जाकर काम करने की अदम्य प्रवृति के पीछे - 'सावन-भादों' नामक एक करुण ग्राम्य गीत है, जिसे मेरी बड़ी बहिन अपनी सहेलियों के साथ सावन-भादों के महीने में गाया करती थी । आषाढ़ चढ़ते ही - ससुराल में नयी बसनेवाली बेटी को नैहर बुला लिया जाता है । मेरा अनुमान है कि सारे उत्तर बिहार में नव-विवाहिता बेटियों को 'सावन-भादों' के समय नैहर से बुलावा आ जाता है...और जिसको कोई लिवाने नहीं जाता वह बिचारी दिन-भर वर्षा के पानी-कीचड़ में भीगती हुई गृहकार्य संपन्न करने के बाद नैहर की याद में आँसुओं की वर्षा में भीगती रहती है । 'सावन-भादों' गीत ऐसी ही, ससुराल में नयी बसने वाली कन्या की करुण कहानी है :
भाभी भूली नहीं थी, उसने अपने पति को ताने देकर बुलाने के लिए भेजा । भाई अपनी बहिन को लिवाने गया...इसके बाद गीत की धुन बदल जाती है । कल तक रोनेवाली बहुरिया प्रसन्न होकर ननदों और सहेलियों से कहती है :
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"कासी फूटल कसामल रे दैबा(अब तो चारों और कास भी फूल गए यानि वर्षा का मौसम बीतने को है । पिछली बार तो बाबा खुद आये थे । इस बार बाबा ने सुधि नहीं ली । बाबा अब निर्मोही हो गए हैं । भैया को 'जमीन-जगह' के मामले में हमेशा कचहरी में रहना पड़ता है । लेकिन, मेरी प्यारी भाभी मुझे कैसे भूल गई?)
बाबा मोरा सुधियो न लेल,
बाबा भेल निरमोहिया रे दैबा
भैया के भेजियो न देल,
भैया भेल कचहरिया रे दैबा
भउजी बिसरी कइसे गेल...?"
भाभी भूली नहीं थी, उसने अपने पति को ताने देकर बुलाने के लिए भेजा । भाई अपनी बहिन को लिवाने गया...इसके बाद गीत की धुन बदल जाती है । कल तक रोनेवाली बहुरिया प्रसन्न होकर ननदों और सहेलियों से कहती है :
"हाँ रे सुन सखिया ! सावन-भादव केर उमड़ल नदियाओ ननद-सखी ! सावन भादों की नदी उमड़ी हुई है । फिर भी मेरे भैया मुझे बुलाने आये हैं । तुम जरा सासजी से पैरवी कर दो कि मुझे जल्दी विदा कर दें...सास कहती है, मैं नहीं जानती अपने ससुर से कहो । ससुर ताने देकर कहता है कि नदिवाले इलाके में बेटी की शादी के बाद दहेज में नाव क्यों नहीं दिया । अंत में, पतिदेव कुछ शर्तों के साथ विदा करने को राजी होते हैं । ससुराल की दुखिया-दुलहिन हंसी-खुशी से भाई के साथ मायके की और विदा होती है । लेकिन, नदी के घाट पर आकर देखा - कहीं कोई नाव नहीं । अब क्या करें ! भाई ने हिम्मत से काम लिया । कास-कुश काटकर, मूँज की डोरी बनाकर और केले के पौधों के ताने का एक 'बेड़ा' बनाया और उस पर सवार होकर भाई-बहिन उमड़ी हुई कोशी की धरा को पार करने लगे । बेड़ा डगमग करने लगा । और, आखिर :
भैया अईले बहिनी बोलावे ले - सुन सखिया..."
"कटि गेल कासी-कुशी छितरी गेल थम्हवा(नदी के उत्ताल तरंगों और घूर्णिचक्र में फंसकर बेड़ा टूट गया । भाई का हाथ छूट गया । और, भाई का बेड़ा डूब गया । भाई ने तैरकर बहिन को बचाने की चेष्टा की, किन्तु, तेज धरा में असफल रहा । डूबती हुई बहिन ने अपना अंतिम संदेशा दिया - माँ के नाम, बाप के नाम...फिर किसी बेटी को सावन-भादों के समय नैहर बुलाने में कभी कोई देरी नहीं करे । और देरी हो जाए तो जामुन का पेड़ कटवाकर नाव बनवाए, और तभी लड़की को लिवाने भेजे !)
खुलि गेल मूँज केर डोरिया - रे सुन सखिया !
...बीचहि नादिया में अइले हिलोरवा
छुटि गेलै भैया केर बहियाँ - रे सुन सखिया !
...डूबी गेलै भैया केर बेडवा - रे सुन सखिया !!"
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फणीश्वर नाथ 'रेणु' जी की किताब "ऋणजल धनजल" से लिया हुआ ।