Sunday, May 09, 2010

माँ से जुडी कुछ बातें पार्ट 1

मैंने मम्मी से बचपन में कभी राजा-रानी या शेर-खरगोश कि कहानी नहीं सुनी.. या शायद कोई भी कहानी नहीं सुनी है.. जब से होश संभाला, मैंने उन्हें डट कर मेहनत करते पाया.. पूरे घर को एक किये रहती थी.. और उस एक करने के चक्कर में हम बच्चे उनसे डरे सहमे रहते थे.. किसी बात पर गुस्सा होकर किसी से २-४ दिन या शायद १२-१३ घंटे बात नहीं करती थी.. शायद इसलिए क्योंकि मुझे याद नहीं, वह उम्र कुछ याद करने कि थी भी नहीं और उस उम्र कि बाते अक्सर किसी को याद रहती भी नहीं है.. उनके किसी से बात ना करने के समय अक्सर हम बच्चों को उनके पास भेजा जाता था.. मनाने के लिए नहीं, बस यूँ ही.. और उसमे भी प्राथमिकता मेरे ऊपर ही अधिक होती थी (छोटा होने कि वजह से).. उनके गुस्से कि वजह अक्सर क्या होती थी मुझे नहीं पता, और ना ही मैंने कभी माँ से इस बाबत पूछा है.. मगर अंदाज से बता सकता हूँ कि एक संयुक्त परिवार का सारा बोझ अकेले ढोना ही वह वजह हो सकती थी.. अब इससे अधिक मुझे और कुछ याद नहीं है, आखिर मैं उस समय ४-५ साल से अधिक का नहीं था.. हाँ मगर यह बात जरूर थी कि हम बच्चे माँ से अधिक पिता कि गोद में समय बिताते थे.. पापा जी का गोद हम सभी के लिए सबसे अधिक सुरक्षित जगह हुआ करती थी..

कभी कभी अंतर्मन में बसी हुई कुछ बीती बातें किसी सिनेमेटिक सीन कि तरह फ्लिक करके निकल जाती है.. जिसमे मैं मम्मी कि गोद में बैठ उनसे कुछ उटपटांग बाते पूछता रहता हूँ, वे बाते क्या थी यह नहीं दिखता है.. शायद वैसी ही बाते होंगी जैसे कि दीदी कि बिटिया दीदी से सवाल पूछती है, या फिर भैया का बेटा कुछ और महीने बाद भाभी से वैसे ही प्रश्न पूछे..

जब घर से पहली बार अपनी दुनिया तलाश करने बाहर निकला तब मेरे साथ कुछ अजीब से संयोग बनते गए.. जब पहली बार दिल्ली जा रहा था तब पटना में घर में कोई नहीं था, सभी मुझे कुछ दिन रुक कर जाने के लिए कह रहे थे और मैंने किसी कि ना सुनते हुए अपना सामान बाँधा और निकल गया अपनी जमीन तलाशने.. घर कि चाभी सामने पड़ोस में रहने वाली भाभी को दे दिया.. फिर उसके बाद जब भी घर(पटना) आता तो वहाँ कोई नहीं होता था.. मैं उन्ही पड़ोस वाली भाभी से चाभी लेता, कुछ घंटे आराम करता और गोपालगंज के लिए निकल लेता जहाँ पापा उस समय पोस्टेड थे.. ऐसे ही होते-होते लगभग एक साल निकल गए.. मेरा दिल्ली-पटना-गोपालगंज आना जाना चलता रहा.. मुझे याद है, पहली बार माँ को याद करके दिल्ली के उस एक छोटे से कमरे में रोया था, जिसे लोग बरसाती के नाम से दिल्ली में जानते हैं..

फिर एक दिन अचानक से VIT से MCA के प्रवेश के लिए बुलावा आ गया, और जिंदगी में पहली बार हवाई जहाज कि यात्रा भी कि.. मन में अजीब से ख्यालात भी चलते रहे थे उस ढाई घंटे कि हवाई यात्रा में.. कम से कम उत्साह तो कहीं भी नहीं था.. थोडा सा डिप्रेशन और घबराहट के साथ-साथ मन में यह भी चल रहा था कि पापाजी के मेहनत से कमाए दस हजार इस बेकार कि हवाई यात्रा में खर्च हो रहे हैं.. डिप्रेशन इस बात की थी कि मैं घर जाने और मम्मी से मिलने के लिए छटपटा रहा था.. और घबराहट इस बात की थी कि मेरे पास कुछ भी सामान नहीं है, नई जगह होगी, नई भाषा के साथ-साथ नए लोग भी होंगे.. कैसे सब ठीक से कर पाऊंगा? अंग्रेजी ठीक से बोल नहीं पाता था उस समय, और ऐसे शहर में अकेला जा रहा था जहाँ अंग्रेजी ही एकमात्र माध्यम था बातचीत का.. थोड़ी बहुत उन दिनों भैया से भी शिकायत थी कि कम से कम वही तो मेरे साथ चलते, मगर बाद में समझ आया कि वो भी अपना कैरियर बनाने में उस समय उलझे हुए थे..

खैर, प्रवेश ले लिया और कक्षा शुरू होने में ५-६ दिन थे.. मैंने निर्णय लिया कि वापस पटना जाऊं और मम्मी से मिलने के साथ-साथ अपने जरूरी सामान भी लेता आऊंगा.. रेल से २ दिन वापस पटना आना और २ दिन वापस कालेज जाने को छोड़कर सिर्फ एक या डेढ़ दिन हाथ में थे.. घर फोन करने पर पता चला कि कुछ जरूरी चीजों के कारण पटना में कोई नहीं रहेंगे, और चाभी बगल वाली भाभी के पास रहेगा..

जारी...

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12 comments:

  1. बहुत बातों को लिख देने से किसी और का अपना निजत्व उजागर हो यह उचित नहीं है। संस्मरण लिखते समय इस बात का खयाल तो रखना ही चाहिए।

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  2. जी बिलकुल. उन बातों का ख्याल रखा गया है.

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  3. जारी रहिये..पढ़ रहे हैं संस्मरण!

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  4. चार दिन रेल में और केवल ड़ेढ़ दिन हाथ में मिला और इतने पर भी माँ वहाँ नहीं, वेरी सेड...

    आगे पढ़ रहे हैं।

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  5. आपका घर तो 'ताले वाला घर' हो गया था। माँ का इतना व्यस्त होना कि आप बच्चों के साथ सहज खेल व मजे के लिए समय न बिता पाना उनके लिए भी दुखद रहा होगा।
    घुघूती बासूती

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  6. hmm, padh raha hu bandhu, jari rakhein

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  7. रेल यात्रा से ही छुट्टियाँ प्रारम्भ हो जाती हैं तो रेल यात्रा भी छुट्टियों की लय में करिये ।

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  8. हम्म पढ़ रहें हैं....पार्ट 2 का इंतज़ार है...माँ को भी कितना अफ्सोस हुआ होगा...वे तुम्हे खजूर निमकी नहीं दे पायी होंगी...बना के

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  9. bahut khub....
    likhte rahein....
    yun hi likhte rahein...
    -----------------------------------
    mere blog mein is baar...
    जाने क्यूँ उदास है मन....
    jaroora aayein
    regards
    http://i555.blogspot.com/

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  10. प्रियदर्शी जी बहुत सुन्दर लिखते हैं आप

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  11. बढ़िया है...यादें सहेजने योग्य.

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  12. सोच रही थी की तुम्हारी संस्मरणात्मक पोस्ट इत्मीनान से पढूंगी इसलिए आज आयी हूँ ...
    "पूरे घर को एक किये रहती थी.. और उस एक करने के चक्कर में हम बच्चे उनसे डरे सहमे रहते थे." कुछ-कुछ ऐसे ही हमारी अम्मा भी लगी रहती थी काम में और गुस्सा होने पर कई दिन तक बात नहीं करती थीं.
    अच्छा लगता है तुम्हें पढ़ना, बिलकुल मिलती-जुलती यादें !

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