वो कई सालों तक हमारे साथ रहा.. हम बच्चों के जिद पर ही उसे घर में लाया गया था.. पटना सिटी के किसी पंछियों के दूकान से पापाजी खरीद कर लाये थे.. उससे पहले भी हमने कई बार कोशिश कि थी तोता पालने कि, मगर हर बार कोई ना कोई जुगत लगाकर सभी रफूचक्कर हो जाते थे..
दूकान वाले ने बताया था कि यह पहाड़ी तोता है, और उस जमाने में एक सौ पचास रूपये में तोता बहुत महंगा माना जाता था फिर भी पापाजी वही खरीद लाये थे.. बाकी तोतों से लगभग दोगुने साइज का था.. उसके पंख पर लाल, हरा और नीले रंग का निशान था.. पहले के अनुभव ने यही सिखाया था कि अधिकांश तोतों को तरह-तरह के रंगों में रंग दिया जाता है जिससे देखने में वह खूबसूरत दिखे और दाम भी कुछ ऊपर चढ़ जाए, सो पहली नजर में इसके पंख को लेकर भी ऐसा ही कुछ लगा था.. लगभग महीने भर हम इसे खूब नहलाते थे, जिससे इसका नकली रंग निकल जाए और यह अपने प्राकृतिक रंग में वापस आ जाये.. वह तोता भी बेचारा हैरान-परेशान, क्या करता, चुपचाप नहाता रहा.. जब उसके पुराने पंख झर गए और नए पंख आये, फिर समझ में आया कि यह इसका प्राकृतिक पंख ही है.. :) कुल मिलकर निहायत ही दिलकश पंछी था वह..
सब कुछ होने के बावजूद भी हम उसे कितना भी सिखाये कि कुछ बोले, मगर वह कुछ सिखा नहीं.. खुद में ही कुछ गुलगुलाता, और हम उसे ही उसका बोलना समझ लेते.. मेरी नानी जब भी घर आती थी तो घंटों बैठकर "बोल मिट्ठू सीत्ता-राम" तो कभी "कटोरे-कटोरे" सिखाना चाहती थी.. अब कभी मजाक में हम कहते हैं कि नानी उसको सिखा-सिखा कर मर गई, लेकिन उस नालायक को नहीं सीखना था सो नहीं सीखा.. :) एक हमारा रसोइया "विनोद जी" भी उसे खूब सिखाना चाहे थे, मगर वह भी नाकाम रहे थे..
पहले के तोतों के अनुभव से यह भी समझ में आ गया था कि इसका भोजन भी अन्य तोतों से कम से कम दोगुना है.. पिंजड़ा भी दोगुने साइज का ही खरीदना पड़ा था.. एक अलग चौकी भी बनवाया गया जो उसके पिंजडा से थोडा बड़ा था.. घर के छोटे बच्चों के जैसे ही कोई फल आया या कुछ ऐसा जिसे वह खा सके तो सबसे पहले उसे ही दिया जाता था..
एक घटना याद आ रही है कि कैसे एक बार उसे "लीची" खाने को हम दिए थे.. जैसा कि तोतों कि आदत होती है कि वह खाने में किसी कड़े चीज को ढूँढता है, सो वह लीची में भी सीधा अपना चोंच गडा दिया.. लीची में जैसे ही छेद हुई, वैसे ही रस का फव्वारा उसमे से फूट कर मेरे तोते के पूरे चेहरे पर फैल गया.. और वह बेचारा उससे इतना घबरा गया कि उस मीठे फल से भाग खड़ा हुआ.. बाद में धीरे-धीरे उसे भी मजे लेकर खाना सीख लिया..
अमूमन जैसा कि दूसरों के घर में तोतों को देखते थे रोटी या चावल खाते, उससे ठीक अलग मेरा तोता वह कभी नहीं खाता था.. उसे किसमिस बेहद पसंद था.. संतरे भी चाव से खाता था.. अंगूर में तो उसकी जान ही बस्ती थी जैसे.. आम के महीनो में आम से उसका पिंजडा महकता रहता था.. सेब, पपीता.. बाद में वह उस पिंजड़े में इतना निश्चिन्त रहने लगा था कि मैं शैतानी में कमरे कि खिडकी-दरवाजे बंद कर के उसे पिंजड़े से जैसे ही निकलता, वह ५-६ सेकेण्ड मेरे आस-पास भटकने के बाद वापस उसी पिंजड़े में घुसने कि मसक्कत में लग जाता..
शुरुवाती दिनों में भैया उसे खाना देने से लेकर उसका पूरा ख्याल रखते थे.. भैया के घर से बाहर जाने के बाद मैं वही काम करने लगा.. मगर मैं उसकी पूरी फीस उससे वसूलता था.. पिंजड़े का दरवाजा खोल कर, हाथ अंदर घुसा कर उसे सहलाता, उससे खेलता.. मगर वह मुझे काटता नहीं था.. वहीं किसी दूसरे कि यह मजाल कहाँ कि वह एक अंगुली भी उसके पिंजड़े में डाल दे.. अगर किसी दिन उसे खाना देने में जरा सी भी देर हुई नहीं कि बस, किसी छोटे बच्चे सा रूठ जाता था.. फिर उसे अपने हाथ से एक-एक चने का दाना खिलाना पड़ता था.. मेरा गिना हुआ था कि वह कितना चने खाता है.. एक बार में 30 से 35 चने खाता था वह.. अगर भूखा हो तो 45-50 तक भी गिनती पहुँच जाती थी.. और अगर नखरे मारने के मूड में हो तो, चना मुंह में लेकर उसे काट-कूट के फ़ेंक देता था..
हमारा कोई एक नियत ठिकाना तो था नहीं, सो हम जहाँ कहीं भी जाते वहाँ वह हमारे साथ भी जाता.. इसी क्रम में वह पटना, बिक्रमगंज, राजगीर, गोपालगंज भी घूम चुका था..
बाद में मैं भी घर से बाहर निकल गया, अपनी जमीन तलाशने.. अब उसका ख्याल घर के नौकर-चपरासी करने लगे.. एक बार पापा-मम्मी मुझसे बोले कि "अब यह बूढा हो गया है, पता नहीं कब मर जाएगा.. पास में मरेगा तो अच्छा नहीं लगेगा, सो इसे उड़ा देते हैं.." मुझे बहुत बुरा लगा, क्योंकि अब जब यह अपनी सारी उड़न भूल चुका है.. प्राकृतिक रूप से रहना भूल चुका है, और बूढा भी हो गया है तब इसे नए सिरे से अपनी जिंदगी शुरू करने कि मशक्कत करनी परेगी.. जब वे दो-तीन बार यही बात कहे तब एक दिन मैंने कह दिया, "फिर तो कायदे से जब मनुष्य बूढा हो जाये तब उसे भी घर से निकाल दिया जाना चाहिए?" आगे मुझे कुछ कहने कि जरूरत नहीं पड़ी..
एक दिन जब मैं होस्टल में था तब घर से मम्मी का फोन आया.. हैरान-परेशान थी और रो भी रही थी.. बोली कि एक चपरासी कि गलती से वह उड़ गया.. मुझे उसके भागने का दुःख हुआ.. मगर सबसे अधिक दुःख और भय इस बात को लेकर था कि अब वह अपनी जिंदगी कैसे लड़ पायेगा.. कोई कुत्ता-बिल्ली कहीं उसे मार ना दिया हो..
खैर उसे जाना था सो वह चला गया.. अब भी कभी रात सपने में देखता हूँ कि मेरा तोता भूखा है और मैं उसे खाना देना भूल गया हूँ.. सुबह तक वह सपना भी भूल जाता हूँ अक्सर.. मअगर जेहन में कहीं ना कहीं वह याद बची हुई है जिस कारण उसे सपने में देखता हूँ.. हाँ, मगर यह भी प्रण कर चुका हूँ की कभी किसी पंछी को कैद में नहीं रखूँगा..
दूकान वाले ने बताया था कि यह पहाड़ी तोता है, और उस जमाने में एक सौ पचास रूपये में तोता बहुत महंगा माना जाता था फिर भी पापाजी वही खरीद लाये थे.. बाकी तोतों से लगभग दोगुने साइज का था.. उसके पंख पर लाल, हरा और नीले रंग का निशान था.. पहले के अनुभव ने यही सिखाया था कि अधिकांश तोतों को तरह-तरह के रंगों में रंग दिया जाता है जिससे देखने में वह खूबसूरत दिखे और दाम भी कुछ ऊपर चढ़ जाए, सो पहली नजर में इसके पंख को लेकर भी ऐसा ही कुछ लगा था.. लगभग महीने भर हम इसे खूब नहलाते थे, जिससे इसका नकली रंग निकल जाए और यह अपने प्राकृतिक रंग में वापस आ जाये.. वह तोता भी बेचारा हैरान-परेशान, क्या करता, चुपचाप नहाता रहा.. जब उसके पुराने पंख झर गए और नए पंख आये, फिर समझ में आया कि यह इसका प्राकृतिक पंख ही है.. :) कुल मिलकर निहायत ही दिलकश पंछी था वह..
सब कुछ होने के बावजूद भी हम उसे कितना भी सिखाये कि कुछ बोले, मगर वह कुछ सिखा नहीं.. खुद में ही कुछ गुलगुलाता, और हम उसे ही उसका बोलना समझ लेते.. मेरी नानी जब भी घर आती थी तो घंटों बैठकर "बोल मिट्ठू सीत्ता-राम" तो कभी "कटोरे-कटोरे" सिखाना चाहती थी.. अब कभी मजाक में हम कहते हैं कि नानी उसको सिखा-सिखा कर मर गई, लेकिन उस नालायक को नहीं सीखना था सो नहीं सीखा.. :) एक हमारा रसोइया "विनोद जी" भी उसे खूब सिखाना चाहे थे, मगर वह भी नाकाम रहे थे..
पहले के तोतों के अनुभव से यह भी समझ में आ गया था कि इसका भोजन भी अन्य तोतों से कम से कम दोगुना है.. पिंजड़ा भी दोगुने साइज का ही खरीदना पड़ा था.. एक अलग चौकी भी बनवाया गया जो उसके पिंजडा से थोडा बड़ा था.. घर के छोटे बच्चों के जैसे ही कोई फल आया या कुछ ऐसा जिसे वह खा सके तो सबसे पहले उसे ही दिया जाता था..
एक घटना याद आ रही है कि कैसे एक बार उसे "लीची" खाने को हम दिए थे.. जैसा कि तोतों कि आदत होती है कि वह खाने में किसी कड़े चीज को ढूँढता है, सो वह लीची में भी सीधा अपना चोंच गडा दिया.. लीची में जैसे ही छेद हुई, वैसे ही रस का फव्वारा उसमे से फूट कर मेरे तोते के पूरे चेहरे पर फैल गया.. और वह बेचारा उससे इतना घबरा गया कि उस मीठे फल से भाग खड़ा हुआ.. बाद में धीरे-धीरे उसे भी मजे लेकर खाना सीख लिया..
अमूमन जैसा कि दूसरों के घर में तोतों को देखते थे रोटी या चावल खाते, उससे ठीक अलग मेरा तोता वह कभी नहीं खाता था.. उसे किसमिस बेहद पसंद था.. संतरे भी चाव से खाता था.. अंगूर में तो उसकी जान ही बस्ती थी जैसे.. आम के महीनो में आम से उसका पिंजडा महकता रहता था.. सेब, पपीता.. बाद में वह उस पिंजड़े में इतना निश्चिन्त रहने लगा था कि मैं शैतानी में कमरे कि खिडकी-दरवाजे बंद कर के उसे पिंजड़े से जैसे ही निकलता, वह ५-६ सेकेण्ड मेरे आस-पास भटकने के बाद वापस उसी पिंजड़े में घुसने कि मसक्कत में लग जाता..
शुरुवाती दिनों में भैया उसे खाना देने से लेकर उसका पूरा ख्याल रखते थे.. भैया के घर से बाहर जाने के बाद मैं वही काम करने लगा.. मगर मैं उसकी पूरी फीस उससे वसूलता था.. पिंजड़े का दरवाजा खोल कर, हाथ अंदर घुसा कर उसे सहलाता, उससे खेलता.. मगर वह मुझे काटता नहीं था.. वहीं किसी दूसरे कि यह मजाल कहाँ कि वह एक अंगुली भी उसके पिंजड़े में डाल दे.. अगर किसी दिन उसे खाना देने में जरा सी भी देर हुई नहीं कि बस, किसी छोटे बच्चे सा रूठ जाता था.. फिर उसे अपने हाथ से एक-एक चने का दाना खिलाना पड़ता था.. मेरा गिना हुआ था कि वह कितना चने खाता है.. एक बार में 30 से 35 चने खाता था वह.. अगर भूखा हो तो 45-50 तक भी गिनती पहुँच जाती थी.. और अगर नखरे मारने के मूड में हो तो, चना मुंह में लेकर उसे काट-कूट के फ़ेंक देता था..
हमारा कोई एक नियत ठिकाना तो था नहीं, सो हम जहाँ कहीं भी जाते वहाँ वह हमारे साथ भी जाता.. इसी क्रम में वह पटना, बिक्रमगंज, राजगीर, गोपालगंज भी घूम चुका था..
बाद में मैं भी घर से बाहर निकल गया, अपनी जमीन तलाशने.. अब उसका ख्याल घर के नौकर-चपरासी करने लगे.. एक बार पापा-मम्मी मुझसे बोले कि "अब यह बूढा हो गया है, पता नहीं कब मर जाएगा.. पास में मरेगा तो अच्छा नहीं लगेगा, सो इसे उड़ा देते हैं.." मुझे बहुत बुरा लगा, क्योंकि अब जब यह अपनी सारी उड़न भूल चुका है.. प्राकृतिक रूप से रहना भूल चुका है, और बूढा भी हो गया है तब इसे नए सिरे से अपनी जिंदगी शुरू करने कि मशक्कत करनी परेगी.. जब वे दो-तीन बार यही बात कहे तब एक दिन मैंने कह दिया, "फिर तो कायदे से जब मनुष्य बूढा हो जाये तब उसे भी घर से निकाल दिया जाना चाहिए?" आगे मुझे कुछ कहने कि जरूरत नहीं पड़ी..
एक दिन जब मैं होस्टल में था तब घर से मम्मी का फोन आया.. हैरान-परेशान थी और रो भी रही थी.. बोली कि एक चपरासी कि गलती से वह उड़ गया.. मुझे उसके भागने का दुःख हुआ.. मगर सबसे अधिक दुःख और भय इस बात को लेकर था कि अब वह अपनी जिंदगी कैसे लड़ पायेगा.. कोई कुत्ता-बिल्ली कहीं उसे मार ना दिया हो..
खैर उसे जाना था सो वह चला गया.. अब भी कभी रात सपने में देखता हूँ कि मेरा तोता भूखा है और मैं उसे खाना देना भूल गया हूँ.. सुबह तक वह सपना भी भूल जाता हूँ अक्सर.. मअगर जेहन में कहीं ना कहीं वह याद बची हुई है जिस कारण उसे सपने में देखता हूँ.. हाँ, मगर यह भी प्रण कर चुका हूँ की कभी किसी पंछी को कैद में नहीं रखूँगा..
अभी कुछ दिन पहले अराधना अपने फेसबुक पर अपडेट कि थी की "kali no more..." अभी कुछ दिन पहले ही कली को लेकर वह आई थी.. 'कली' के जाने से पहले हर दूसरे दिन वह फेसबुक या बज्ज या ब्लॉग पर दिख ही जाती थी.. मगर 'कली' के बाद वह भूले बिसरे ही कहीं दिखी है.. बीच में उसकी एक पोस्ट आई थी "अब सब कुछ पहले जैसा है".. मुझे दुःख हो रहा था की आभासी दुनिया की एक अच्छी मित्र दुखी और परेशान है.. उम्मीद करता हूँ की जल्द ही वह इस दुःख से बाहर निकल आएगी.. अराधना ने कली का एक वीडियो फेसबुक पर भी डाली थी जिसे उसके फेसबुक मित्र यहाँ देख सकते हैं..