Saturday, May 29, 2010

जानवरों से अधिक मासूम प्रेम अब हमें मयस्सर कहाँ

वो कई सालों तक हमारे साथ रहा.. हम बच्चों के जिद पर ही उसे घर में लाया गया था.. पटना सिटी के किसी पंछियों के दूकान से पापाजी खरीद कर लाये थे.. उससे पहले भी हमने कई बार कोशिश कि थी तोता पालने कि, मगर हर बार कोई ना कोई जुगत लगाकर सभी रफूचक्कर हो जाते थे..

दूकान वाले ने बताया था कि यह पहाड़ी तोता है, और उस जमाने में एक सौ पचास रूपये में तोता बहुत महंगा माना जाता था फिर भी पापाजी वही खरीद लाये थे.. बाकी तोतों से लगभग दोगुने साइज का था.. उसके पंख पर लाल, हरा और नीले रंग का निशान था.. पहले के अनुभव ने यही सिखाया था कि अधिकांश तोतों को तरह-तरह के रंगों में रंग दिया जाता है जिससे देखने में वह खूबसूरत दिखे और दाम भी कुछ ऊपर चढ़ जाए, सो पहली नजर में इसके पंख को लेकर भी ऐसा ही कुछ लगा था.. लगभग महीने भर हम इसे खूब नहलाते थे, जिससे इसका नकली रंग निकल जाए और यह अपने प्राकृतिक रंग में वापस आ जाये.. वह तोता भी बेचारा हैरान-परेशान, क्या करता, चुपचाप नहाता रहा.. जब उसके पुराने पंख झर गए और नए पंख आये, फिर समझ में आया कि यह इसका प्राकृतिक पंख ही है.. :) कुल मिलकर निहायत ही दिलकश पंछी था वह..

सब कुछ होने के बावजूद भी हम उसे कितना भी सिखाये कि कुछ बोले, मगर वह कुछ सिखा नहीं.. खुद में ही कुछ गुलगुलाता, और हम उसे ही उसका बोलना समझ लेते.. मेरी नानी जब भी घर आती थी तो घंटों बैठकर "बोल मिट्ठू सीत्ता-राम" तो कभी "कटोरे-कटोरे" सिखाना चाहती थी.. अब कभी मजाक में हम कहते हैं कि नानी उसको सिखा-सिखा कर मर गई, लेकिन उस नालायक को नहीं सीखना था सो नहीं सीखा.. :) एक हमारा रसोइया "विनोद जी" भी उसे खूब सिखाना चाहे थे, मगर वह भी नाकाम रहे थे..

पहले के तोतों के अनुभव से यह भी समझ में आ गया था कि इसका भोजन भी अन्य तोतों से कम से कम दोगुना है.. पिंजड़ा भी दोगुने साइज का ही खरीदना पड़ा था.. एक अलग चौकी भी बनवाया गया जो उसके पिंजडा से थोडा बड़ा था.. घर के छोटे बच्चों के जैसे ही कोई फल आया या कुछ ऐसा जिसे वह खा सके तो सबसे पहले उसे ही दिया जाता था..

एक घटना याद आ रही है कि कैसे एक बार उसे "लीची" खाने को हम दिए थे.. जैसा कि तोतों कि आदत होती है कि वह खाने में किसी कड़े चीज को ढूँढता है, सो वह लीची में भी सीधा अपना चोंच गडा दिया.. लीची में जैसे ही छेद हुई, वैसे ही रस का फव्वारा उसमे से फूट कर मेरे तोते के पूरे चेहरे पर फैल गया.. और वह बेचारा उससे इतना घबरा गया कि उस मीठे फल से भाग खड़ा हुआ.. बाद में धीरे-धीरे उसे भी मजे लेकर खाना सीख लिया..

अमूमन जैसा कि दूसरों के घर में तोतों को देखते थे रोटी या चावल खाते, उससे ठीक अलग मेरा तोता वह कभी नहीं खाता था.. उसे किसमिस बेहद पसंद था.. संतरे भी चाव से खाता था.. अंगूर में तो उसकी जान ही बस्ती थी जैसे.. आम के महीनो में आम से उसका पिंजडा महकता रहता था.. सेब, पपीता.. बाद में वह उस पिंजड़े में इतना निश्चिन्त रहने लगा था कि मैं शैतानी में कमरे कि खिडकी-दरवाजे बंद कर के उसे पिंजड़े से जैसे ही निकलता, वह ५-६ सेकेण्ड मेरे आस-पास भटकने के बाद वापस उसी पिंजड़े में घुसने कि मसक्कत में लग जाता..

शुरुवाती दिनों में भैया उसे खाना देने से लेकर उसका पूरा ख्याल रखते थे.. भैया के घर से बाहर जाने के बाद मैं वही काम करने लगा.. मगर मैं उसकी पूरी फीस उससे वसूलता था.. पिंजड़े का दरवाजा खोल कर, हाथ अंदर घुसा कर उसे सहलाता, उससे खेलता.. मगर वह मुझे काटता नहीं था.. वहीं किसी दूसरे कि यह मजाल कहाँ कि वह एक अंगुली भी उसके पिंजड़े में डाल दे.. अगर किसी दिन उसे खाना देने में जरा सी भी देर हुई नहीं कि बस, किसी छोटे बच्चे सा रूठ जाता था.. फिर उसे अपने हाथ से एक-एक चने का दाना खिलाना पड़ता था.. मेरा गिना हुआ था कि वह कितना चने खाता है.. एक बार में 30 से 35 चने खाता था वह.. अगर भूखा हो तो 45-50 तक भी गिनती पहुँच जाती थी.. और अगर नखरे मारने के मूड में हो तो, चना मुंह में लेकर उसे काट-कूट के फ़ेंक देता था..

हमारा कोई एक नियत ठिकाना तो था नहीं, सो हम जहाँ कहीं भी जाते वहाँ वह हमारे साथ भी जाता.. इसी क्रम में वह पटना, बिक्रमगंज, राजगीर, गोपालगंज भी घूम चुका था..

बाद में मैं भी घर से बाहर निकल गया, अपनी जमीन तलाशने.. अब उसका ख्याल घर के नौकर-चपरासी करने लगे.. एक बार पापा-मम्मी मुझसे बोले कि "अब यह बूढा हो गया है, पता नहीं कब मर जाएगा.. पास में मरेगा तो अच्छा नहीं लगेगा, सो इसे उड़ा देते हैं.." मुझे बहुत बुरा लगा, क्योंकि अब जब यह अपनी सारी उड़न भूल चुका है.. प्राकृतिक रूप से रहना भूल चुका है, और बूढा भी हो गया है तब इसे नए सिरे से अपनी जिंदगी शुरू करने कि मशक्कत करनी परेगी.. जब वे दो-तीन बार यही बात कहे तब एक दिन मैंने कह दिया, "फिर तो कायदे से जब मनुष्य बूढा हो जाये तब उसे भी घर से निकाल दिया जाना चाहिए?" आगे मुझे कुछ कहने कि जरूरत नहीं पड़ी..

एक दिन जब मैं होस्टल में था तब घर से मम्मी का फोन आया.. हैरान-परेशान थी और रो भी रही थी.. बोली कि एक चपरासी कि गलती से वह उड़ गया.. मुझे उसके भागने का दुःख हुआ.. मगर सबसे अधिक दुःख और भय इस बात को लेकर था कि अब वह अपनी जिंदगी कैसे लड़ पायेगा.. कोई कुत्ता-बिल्ली कहीं उसे मार ना दिया हो..

खैर उसे जाना था सो वह चला गया.. अब भी कभी रात सपने में देखता हूँ कि मेरा तोता भूखा है और मैं उसे खाना देना भूल गया हूँ.. सुबह तक वह सपना भी भूल जाता हूँ अक्सर.. मअगर जेहन में कहीं ना कहीं वह याद बची हुई है जिस कारण उसे सपने में देखता हूँ.. हाँ, मगर यह भी प्रण कर चुका हूँ की कभी किसी पंछी को कैद में नहीं रखूँगा..

अभी कुछ दिन पहले अराधना अपने फेसबुक पर अपडेट कि थी की "kali no more..." अभी कुछ दिन पहले ही कली को लेकर वह आई थी.. 'कली' के जाने से पहले हर दूसरे दिन वह फेसबुक या बज्ज या ब्लॉग पर दिख ही जाती थी.. मगर 'कली' के बाद वह भूले बिसरे ही कहीं दिखी है.. बीच में उसकी एक पोस्ट आई थी "अब सब कुछ पहले जैसा है".. मुझे दुःख हो रहा था की आभासी दुनिया की एक अच्छी मित्र दुखी और परेशान है.. उम्मीद करता हूँ की जल्द ही वह इस दुःख से बाहर निकल आएगी.. अराधना ने कली का एक वीडियो फेसबुक पर भी डाली थी जिसे उसके फेसबुक मित्र यहाँ देख सकते हैं..

Friday, May 28, 2010

क्योंकि जिंदगी से बढ़कर कोई कहानी नहीं होती

इस कहानी का कोई पात्र काल्पनिक नहीं है.. या फिर ये भी कह सकते हैं कि यह कोई कहानी नहीं है.. यह असल जिंदगी कि कड़वी सच्चाई है.. वैसे भी मेरा मानना रहा है कि असल जिंदगी से बढ़कर कोई कहानी नहीं होती है.. यह मेरी एक मित्र कि कहानी है जिससे अचानक कई सालों बाद इस बड़ी सी छोटी होती हुई जा रही दुनिया में तार जुड गए.. जब सालों बाद ई-मेल के माध्यम से मुलाक़ात हुई तो बाते भी उसी समय कि शुरू हुई जब हम आखिरी बार मिले थे, और उसी समय कि बातों से ही बाते शुरू हुई.. एक सिरा पकर कर मैंने जरा सा खिंचा, और बाकी खुद-ब-खुद उधरता चला गया..

मनुष्य के भीतर कि जिज्ञासा ही मनुष्य को नई उचाईयां भी प्रदान करता है साथ ही उन्हें या दूसरों को संकट में भी डालता है.. अब जैसे मैंने यह पहले ही बता दिया है कि यह सच्ची कहानी है, कोई कोरी कल्पना नहीं.. तो मेरे पाठक अथवा मेरे मित्रों' के मन में नाम जानने कि इच्छा सबसे पहले होगी, जो मैं किसी भी हालत में नहीं बताने वाला हूँ.. कृपया मुझसे व्यक्तिगत रूप में भी यह सवाल ना पूछें, ना तो मेल में और ना ही फोन पर.. नाम कुछ भी आप सोच लें.. रेवा-रेवती, सोनल-आरती.. कुछ भी..

उसने मुझसे कहा कि "तुम लिखते हो, तो इस पर भी कोई कहानी लिख दो.." मेरा कहना था कि मैं लिखूं तो शायद कोई नाटकीयता आ जाए, सो बेहतर है कि तुम ही लिखो और मैं उसे तुम्हारा नाम बताए बिना अपने ब्लॉग पर पोस्ट कर देता हूँ.. वैसे भी मुझे कहानी लिखनी नहीं आती है.. उसने मुझे रोमण में लिख भेजा, जिसे मैंने हिंदी में कन्वर्ट किया है सो त्रुटि कि संभावना बनी हुई है.. बाकी आप खुद ही पढ़ें :

कितना चाहती थी न मैं उसको! क्या मेरे आंसू उसके लिए कोई मायने नहीं रखते? क्यूँ किया उसने मेरे साथ ऐसा?

उस से मैं एक रिश्तेदार की शादी में मिली थी.. करीब १०-१२ साल पहले. २-४ मिनट की बात में उसने मुझसे मेरा फोन नंबर मांग लिया. दिल में खुशी मगर चेहरे पे संकोच का भाव लेकर मैंने नंबर दे दिया, साथ में ये भी बता दिया की किसी लड़की से फोन करवाएं| मन में कई सपने संजो कर मैं वापस लौट आई और इंतजार करने लगी उसके कॉल का. दिन बीते, हफ्ते बीते. कई बार सोचा की मैं ही फोन कर दूं लेकिन फिल्मों में ऐसा कहाँ दिखाते हैं? उसमे तो हमेशा लड़का ही फोन करता है, उस उम्र में फिल्मो का असर भी कुछ अधिक ही होता भी है. ऐसा सोच कर फोन रख देती थी. फिर एक दिन घंटी बजी, फोन उठाया. “हेल्लो…” दिल की धडकन जैसे रुक गयी…..ये तो उसी का फोन है! एक औपचारिक बातचीत के साथ ये सिलसिला शुरू हुआ…और कब प्यार में बदल गया पता नहीं चला! खैर….प्यार तो शायद पहली मुलाकात में ही हो गया था….उसको फार्मल बनने में टाइम लग गया. बहुत चाहने लगी थी उसको! फोन की घंटी सबसे प्रिय धुन हो गयी थी और उसके बोल भगवान के शब्द. मंदिर में जब भी सर झुकाया, सिर्फ उसके लिए मन्नत मांगी, वैष्णो देवी से लेकर साईं बाबा, सब के आगे माथा टेक लिया. भगवान का प्रसाद भी दो बार लेती थी, एक उसके नाम का भी तो लेना होता था न. मन ही मन भगवान मान लिया था मैंने उसको, मेरी पूजा, मेरी आराधना सब कुछ उसको समर्पित.

समय बीतता गया, और ये सिलसिला अभी भी फोन पर ही चल रहा था(हाँ, हम दोनों अलग अलग शहर में थे). फिर उच्च शिक्षा के लिए मैं बाहर निकली. नया शहर, नए लोग…सब कुछ नया-नया. कुछ लड़कों ने प्रेम-पींग बढ़ाने की कोशिश की लेकिन मैं अपने देवता की मूर्ती को खंडित नहीं कर सकती थी, कभी नहीं. उस से मिलने की चाह में मैं उसके शहर जा पहुंची, एक तकनिकी ट्रेनिंग के बहाने. होस्टल में थी. छुप छुप के कभी कभी मिलते थे हम दोनों. होली का त्यौहार नज़दीक था और पता नहीं क्यूँ हर साल होली के आस पास मेरी तबियत ज़रूर खराब होती है सो इस बार भी हुई. मम्मी कहती हैं मौसम बदलने के चलते. सभी घर बुला रहे थे होली के अवसर पर लेकिन मैं तो उसके साथ रहना चाहती थी, एक फागुन साथ बिताना चाहती थी. सुबह हुई, दोपहर फिर शाम और रात के १०. वो आया होस्टल के बाहर, मैं तपते हुए बुखार में उस से मिलने गयी. कमजोरी भी हो गयी थी क्यूंकि सुबह से कुछ खाया नहीं था (छुट्टी के चलते मेस भी बंद था). मैंने देखा की उसके चेहरे पे शिकन तक नहीं आई मेरी दशा देख के. मैं तो मर ही जाती उसे इस हाल में देख के. लेकिन….शाम आई शाम गयी. अब तो उसके इस उपेक्षित व्यवहार की आदि हो चुकी थी मैं. और मज़े की बात ये है की मैं खुद ही कोई ‘एक्सक्यूज' बनाती उसके व्यवहार का, और खुद ही माफ कर देती उसको. बहुत चाहती थी उसको मैं!

अब उसके घर में लोगों को पता लग चुका था हमारे प्यार के बारे में, उन्हें ये कतई मंज़ूर नहीं था. वो बहुत बड़े परिवार से था और मैं एक साधारण लेकिन पढ़े-लिखे परिवार से. वैसे उन्हें पढाई लिखाई से कोई लेना देना नहीं था. एक दिन उसकी माँ और बड़े भैया मेरे होस्टल आये, कमरे में आते ही माँ ने मुझे एक थप्पड़ रसीद दिया और कहा की मैं उनके बेटे से दूर हो जाऊं. फिर बड़े भैया ने मेरा हाथ पीछे की ओर मरोड़ा और हाथ में अपना कड़ा निकला और उस कड़े से मेरे चेहरे पे वार करने लगे और ये कहने लगे की ऐसा चेहरा कर दूंगा की कोई देख भी नहीं पायेगा. वो दोनों मारते चले गए और मैं चुपचाप सहती चली गयी. कर भी क्या सकती थी. माँ की चूडियाँ टूट के बिखर चुकी थीं और कुछ मेरे शारीर पर चुकी थी…. मगर असल चुभन तो कहीं अंदर थी. जब वो दोनों थक गए तो मुझे ऐसी ही हालत में छोड़ कर चले गए. और जब मुझे होश आया, उठने की कोशिश की तो पाया की एक हाथ नहीं उठ रहा है, टूट चूका था और चेहरे और हाथ से खून निकल रहा है एक आँख भी काली होके सूज चुकी थी. कुल मिलाकर भईया का सपना पूरा हो चूका था. मैं सच-मुच देखने लायक नहीं रह गयी थी. उसे भी ये सारी बातें पता लग चुकी थीं. मेरे घर पे भी सबको पता लग चुका था, लेकिन मैंने उन्हें अपनी हालत के बारे में नहीं बताया. घर गयी, तीन दिन बीत चुके थे लेकिन उसका कोई फोन नहीं आया. सुनने में आया की वो डर के कहीं छुप गया था, घर में एक आवाज़ तक नहीं उठाई उसने. लेकिन ये घटना भी मेरे प्यार तो नहीं तोड़ पायी. पता है की बेवकूफी थी! वो भी एक बुजदिल इंसान के लिए.

धीरे धीरे बरस बीतने लगे और एक दिन जब घर पे फोन किया तो भनक लगी की मेरी शादी की बात चलने लगी है. दिल बैठ गया मेरा. कैसे कर सकती हूँ किसी और से शादी? किसी और की कैसे हो सकती हूँ मैं? मैंने उसे फोन लगाया और सारी बात बता के रो पड़ी. उसने कहा - “अच्छा..!!'” ये क्या कह रहा है वो? उसने ठीक से सुना नहीं क्या की मैंने क्या कहा? मैंने फिर से दोहराया, उसने फिर वही कहा.

अब सब कुछ समझ में आ गया था.

उसकी शादी होने वाली है. सुना है की आजकल अपनी शेरवानी और सूट डिजाईन करवाने के लिए डीजाइनर के चक्कर लगा रहा है.


वैसे मैं बताता चलूँ कि आज वो खुश है अपने जीवन में, आत्मविश्वास के साथ अपने पैरों पर खरी है.. शायद मैं वह बातें ना पूछता तो वह बताती भी नहीं.. शायद मैंने कुछ जख्म फिर से हरे कर दिए..

Sunday, May 23, 2010

हिंदी ब्लॉगिन्ग को लेकर मेरी समझ


मैं पहले ब्लौगिंग की प्रकृति को समझना जरूरी समझता हूँ फिर हिंदी ब्लॉगिंग की बात करूंगा.. ब्लॉग लिखने वाले सभी व्यक्ति जानते होंगे कि ब्लॉग शब्द "वेब लॉग" को जोड़कर बनाया गया है, और इसमें आप जो चाहे वह लिख सकते हैं.. मैंने सर्वप्रथम किसी ब्लॉग को पढ़ना शुरू किया था सन् 2002 में, और वह एक टेक्निकल ब्लॉग था.. उस समय भी और अभी भी मैंने यही पाया है कि टेक्निकल और करेंट अफेयर से संबंधित जितने भी ब्लॉग हैं उसे अन्य विषयों के मुकाबले अधिक लोग पढ़ते हैं.. अगर अंग्रेजी ब्लॉग की बात करें तो इन दो विषयों से संबंधित ब्लौग के मालिक कमाई भी अच्छी करते हैं..

अनावश्यक बहस और व्यक्तिगत आक्षेप मैंने तकरीबन हर भाषा के ब्लॉग पर देखा है.. मेरे कुछ मित्र जो मलयालम, तमिल एवं कन्नड़ भाषा में ब्लॉग लिखते हैं उनसे अक्सर ब्लॉग पर चर्चा होती है, और मैंने पाया है कि वे सभी इस तरह के अनावश्यक विवाद से चिढ़े हुये हैं, जैसा कि हिंदी ब्लॉगों में भी अक्सर देखा गया है..

मुझे याद आता है शुरूवाती दिनों में जब सौ-दो सौ ब्लॉग हुआ करते थे तब अधिकांश प्रतिशत, ब्लॉग लिखने वाले, पत्रकारिता से ही आते थे, और धीरे-धीरे लोग समझने लगे कि ब्लॉग भी एक प्रकार की कुछ छोटे स्तर की पत्रकारिता ही है.. यहां एक बहुत बड़ा अंतर स्पष्ट देखा जा सकता है अन्य भाषा, खासतौर से अंग्रेजी, के ब्लौग और हिंदी ब्लौगों में.. जहां अंग्रेजी भाषा में लोग तकनीक और सामान्यज्ञान से संबंधित ब्लौग को ही असली ब्लॉग धारा माने बैठे हैं वहीं हिंदी में लोग इसे पत्रकारिता से जोड़कर देख रहे हैं..

मेरी समझ में बस यहीं यह समझ में आ जाना चाहिये कि ब्लॉग क्या है? आप जिस विषय पर ब्लॉग को खींचकर ले जाना चाहेंगे या फिर यूं कहें कि जिस विषय पर अधिक ब्लॉग लिखे जायेंगे, पढ़ने वाले उसे ही सही ब्लॉगिंग की दिशा समझने लगेंगे.. मतलब साफ है कि ब्लॉग किसी खास विषय से बंधा हुआ नहीं है..

दो-तीन बातें हिंदी ब्लॉगिंग में ऐसी है जिसे लेकर अक्सर बहस छिड़ती है, बवाल उठता है.. जिसमें हिन्दू मुस्लिम सौहार्द्य, हिंदी ब्लॉगिंग को किसी मठ का रूप देकर इसे नियम कानून में बांटना.. तीसरी बात व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप लगाना.. कई बार लोग यहां अच्छी विषय वस्तु के उपलब्ध नहीं होने पर शिकायतें भी करते हैं..

हिन्दू मुस्लिम या फिर किसी भी धर्म को लेकर लड़ते लोग मेरी समझ में इस दुनिया में बैठे सबसे बेकार बैठे लोग हैं और जिनके पास कोई काम नहीं होता है वे इसमें अपना और दूसरों का समय बर्बाद करते रहते हैं.. सो बेकार कि बातों को लेकर मेरे पास समय नहीं है.. :) जहाँ तक बात लोग कोई एक नियम क़ानून लागू करने को लेकर करते हैं तो मेरा मानना है कि वे ऐसे लोग हैं जिन्हें इंटरनेट का कोई ज्ञान नहीं है, तभी वो ऐसी बात सोच भी सकते हैं.. यह एक ऐसी दुनिया है जहाँ कोई भी नियम लागू नहीं किया जा सकता है.. हर चीज का तोड़ है यहाँ.. एक उदहारण चीन और गूगल के बीच हुई लड़ाई है.. जहाँ गूगल ने अपना व्यापर समेत लिया मगर चीन में अभी भी गूगल पर काम किया जा सकता है.. वो सारे रिजल्ट हांगकांग से डायवर्ट कर रहे हैं(सनद रहे, यह लेख महीने भर पहले का लिखा हुआ है, अभी के हालात मुझे पता नहीं).. व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप लगाने वाले लोग जो खुद को समझदार मानते हैं, बस वही बता जाता है कि कितनी समझ है उनमे.. सामाजिक बहस करने कि सीमा में कोई एक व्यक्ति नहीं आता है.. सबसे आखिरी, मगर मेरी समझ में सबसे महत्वपूर्ण बात, अच्छी सामग्री को लेकर चलने वाली बहस.. जिस दिन हिंदी ब्लॉगिंग से पैसे आने शुरू होंगे उस दिन से मुझे पूरा भरोसा हो जायेगा हिंदी में अच्छी सामग्री को लेकर.. क्योंकि अभी गिने चुने ब्लॉग ही हैं जहाँ विषय आधारित लेख लिखे जा रहे हैं.. और विषय आधारित ब्लॉग ही हिंदी ब्लोगिंग कि दिशा और कमाई यह तय करेगा यहाँ, यह मेरा विश्वास है..

मैं कभी भी हिंदी ब्लॉग पर साहित्य कि उम्मीद में नहीं आता हूँ.. ठीक ऐसा ही अंग्रेजी ब्लॉगों के साथ भी लागू होता है.. जो लोग ब्लॉग को साहित्य समझ कर इधर झांकते हैं मेरा उनसे यह कहना है कि पहले वे ब्लॉग और इन्टरनेट को लेकर अपनी समझ विकसित करें.. यहाँ हर विषय पर लेख लिखे जाते हैं.. हाँ मगर यह तय है कि अधिकांश कविता कहानी विषयों पर ब्लॉग लिखने वाले इसका अधिक से अधिक लाभ उठा कर अपनी रचना लोगों तक पहुंचा रहे हैं.. कई अच्छा भी लिख रहे हैं..

फिलहाल तो मैं ब्लॉग के भविष्य को लेकर बेहद आशान्वित हूँ..

यह लेख मैंने विनीत के कहने पर लिखा था, उन्हें कुछ लेखों कि जरूरत थी.. आज मैं बस कापी-पेस्ट से काम चला रहा हूँ.. :)

Friday, May 21, 2010

एक गंजेरी की सूक्तियां

एक-

गँजेरी डरता है तूफ़ान से
तब
जब बची हो
सिर्फ एक तीली

और चलती हो
दिलों में आंधियां

दो-

धुवें में
बनती है शक्लें भी
बिगड़ती हैं शक्लें भी

यह कोई जेट प्लेन का धुवाँ नहीं
जो सीधी लकीर पे चले

तीन-

सिगरेट पीने वाले को गालियाँ
सिर्फ वही दे

जिसने नहीं पीया है
प्रदुषण का धुवाँ

चार-

सुना कि सिगरेट धीमा जहर है
धीरे-धीरे मारती है

जिंदगी और भी धीमा जहर है
यह बहुत दूर घेर के मारती है

पांच-

समाज के छुवाछूत को
इसी ने किया होगा
छिन्न-भिन्न सर्वप्रथम

जब एक सिगरेट को
दस लोगों ने बांटा होगा
साथ-साथ

छः-

पटना के गंजेरियों से
अलग नहीं है
दिल्ली का गंजेरी

छल्ले हर जगह एक से ही उड़ते हैं

सात-

जिन्हें नहीं चढ़ता है
नशा शराब से
वह पीता है धुवाँ भी

आखिर सब कुछ नशा ही तो नहीं होता

आठ-

लोग पूछते हैं
चाय के साथ
क्यों पीया जाता है सिगरेट
कोई अलग सुकून के लिए क्या

हम पूछते हैं
सुकून के लिए भी कोई
मुंह कड़वा करता है भला

नौ-

रात के तीन बजे
उठता है कोई

जलता है सिगरेट कोई
उठता है धुवाँ कहीं

दस-

सिगरेट जलाने वाले
जलते हैं खुद भी कहीं

एक आग सी लगती है कहीं
एक धुवाँ सा उठता है कहीं

यह पोस्ट "एक शराबी कि सूक्तियां" कि नक़ल भर है.. असली लुत्फ़ उठाना हो तो उधर जाए.. कसम धुवें और शराब कि, मजा आ जाएगा.. ;-) नजरें इधर भी इनायत करें.. :)

Thursday, May 13, 2010

दोस्ती को रीडिफाइन करने का समय

छुटपन में घर के बड़े कभी भी किसी से अधिक दोस्ती बढ़ाने के लिए नहीं कहते थे.. बिहार में उस समय जैसे हालत थे उसमे उनका यह एतराज जायज भी था.. समय बदला, हम बच्चो ने भी अपने आसमान तलाशने शुरू किये, फिर कई दोस्त भी बने.. कुछ समय के साथ चले तो कुछ चले गए.. अब से कुछ समय पहले तक के जितने भी मित्र मेरे रडार सीमा से बाहर निकले, उनमे से एक-आध को छोड़ कर किसी अन्य को लेकर दुःख नहीं हुआ.. घर के बड़े भी अब उस दोस्ती के रिश्ते में मीन-मेख निकालना छोड़ कर यह शिक्षा दिए कि यही वह एकमात्र रिश्ता है जिसे बनाने का अधिकार मनुष्य को खुद मिलता है.. शायद वे यह समझने लगे थे कि बच्चे अब बड़े हो रहे हैं और अपना भला-बुरा समझने लगे हैं..

खैर, समय के साथ हर चीज बदलती है तो फिर दोस्ती जैसे रिश्ते क्या चीज हैं? जो मुझे सबसे करीब के लगते थे, उनसे अनजानो सा व्यवहार खल रहा है.. ऐसा लग रहा है जैसे या तो मैं समय के साथ चूक गया हूँ या फिर नकार दिया गया हूँ.. चलो, जीवन का एक पाठ और सही..

मुझे आजकल ऐसा लग रहा है जैसे अब समय आ गया है कि इस रिश्ते को मैं रीडिफाइन करूँ..

नोट - मैंने इस पोस्ट पर कमेन्ट का अधिकार नहीं दिया है, कृपया किसी अन्य पोस्ट पर जाकर इससे संबंधित कमेन्ट ना करें.. अगले पोस्ट में मैं पिछले छोड़े हुए पोस्ट की कड़ी को आगे बढाता हूँ..

Sunday, May 09, 2010

माँ से जुडी कुछ बातें पार्ट 1

मैंने मम्मी से बचपन में कभी राजा-रानी या शेर-खरगोश कि कहानी नहीं सुनी.. या शायद कोई भी कहानी नहीं सुनी है.. जब से होश संभाला, मैंने उन्हें डट कर मेहनत करते पाया.. पूरे घर को एक किये रहती थी.. और उस एक करने के चक्कर में हम बच्चे उनसे डरे सहमे रहते थे.. किसी बात पर गुस्सा होकर किसी से २-४ दिन या शायद १२-१३ घंटे बात नहीं करती थी.. शायद इसलिए क्योंकि मुझे याद नहीं, वह उम्र कुछ याद करने कि थी भी नहीं और उस उम्र कि बाते अक्सर किसी को याद रहती भी नहीं है.. उनके किसी से बात ना करने के समय अक्सर हम बच्चों को उनके पास भेजा जाता था.. मनाने के लिए नहीं, बस यूँ ही.. और उसमे भी प्राथमिकता मेरे ऊपर ही अधिक होती थी (छोटा होने कि वजह से).. उनके गुस्से कि वजह अक्सर क्या होती थी मुझे नहीं पता, और ना ही मैंने कभी माँ से इस बाबत पूछा है.. मगर अंदाज से बता सकता हूँ कि एक संयुक्त परिवार का सारा बोझ अकेले ढोना ही वह वजह हो सकती थी.. अब इससे अधिक मुझे और कुछ याद नहीं है, आखिर मैं उस समय ४-५ साल से अधिक का नहीं था.. हाँ मगर यह बात जरूर थी कि हम बच्चे माँ से अधिक पिता कि गोद में समय बिताते थे.. पापा जी का गोद हम सभी के लिए सबसे अधिक सुरक्षित जगह हुआ करती थी..

कभी कभी अंतर्मन में बसी हुई कुछ बीती बातें किसी सिनेमेटिक सीन कि तरह फ्लिक करके निकल जाती है.. जिसमे मैं मम्मी कि गोद में बैठ उनसे कुछ उटपटांग बाते पूछता रहता हूँ, वे बाते क्या थी यह नहीं दिखता है.. शायद वैसी ही बाते होंगी जैसे कि दीदी कि बिटिया दीदी से सवाल पूछती है, या फिर भैया का बेटा कुछ और महीने बाद भाभी से वैसे ही प्रश्न पूछे..

जब घर से पहली बार अपनी दुनिया तलाश करने बाहर निकला तब मेरे साथ कुछ अजीब से संयोग बनते गए.. जब पहली बार दिल्ली जा रहा था तब पटना में घर में कोई नहीं था, सभी मुझे कुछ दिन रुक कर जाने के लिए कह रहे थे और मैंने किसी कि ना सुनते हुए अपना सामान बाँधा और निकल गया अपनी जमीन तलाशने.. घर कि चाभी सामने पड़ोस में रहने वाली भाभी को दे दिया.. फिर उसके बाद जब भी घर(पटना) आता तो वहाँ कोई नहीं होता था.. मैं उन्ही पड़ोस वाली भाभी से चाभी लेता, कुछ घंटे आराम करता और गोपालगंज के लिए निकल लेता जहाँ पापा उस समय पोस्टेड थे.. ऐसे ही होते-होते लगभग एक साल निकल गए.. मेरा दिल्ली-पटना-गोपालगंज आना जाना चलता रहा.. मुझे याद है, पहली बार माँ को याद करके दिल्ली के उस एक छोटे से कमरे में रोया था, जिसे लोग बरसाती के नाम से दिल्ली में जानते हैं..

फिर एक दिन अचानक से VIT से MCA के प्रवेश के लिए बुलावा आ गया, और जिंदगी में पहली बार हवाई जहाज कि यात्रा भी कि.. मन में अजीब से ख्यालात भी चलते रहे थे उस ढाई घंटे कि हवाई यात्रा में.. कम से कम उत्साह तो कहीं भी नहीं था.. थोडा सा डिप्रेशन और घबराहट के साथ-साथ मन में यह भी चल रहा था कि पापाजी के मेहनत से कमाए दस हजार इस बेकार कि हवाई यात्रा में खर्च हो रहे हैं.. डिप्रेशन इस बात की थी कि मैं घर जाने और मम्मी से मिलने के लिए छटपटा रहा था.. और घबराहट इस बात की थी कि मेरे पास कुछ भी सामान नहीं है, नई जगह होगी, नई भाषा के साथ-साथ नए लोग भी होंगे.. कैसे सब ठीक से कर पाऊंगा? अंग्रेजी ठीक से बोल नहीं पाता था उस समय, और ऐसे शहर में अकेला जा रहा था जहाँ अंग्रेजी ही एकमात्र माध्यम था बातचीत का.. थोड़ी बहुत उन दिनों भैया से भी शिकायत थी कि कम से कम वही तो मेरे साथ चलते, मगर बाद में समझ आया कि वो भी अपना कैरियर बनाने में उस समय उलझे हुए थे..

खैर, प्रवेश ले लिया और कक्षा शुरू होने में ५-६ दिन थे.. मैंने निर्णय लिया कि वापस पटना जाऊं और मम्मी से मिलने के साथ-साथ अपने जरूरी सामान भी लेता आऊंगा.. रेल से २ दिन वापस पटना आना और २ दिन वापस कालेज जाने को छोड़कर सिर्फ एक या डेढ़ दिन हाथ में थे.. घर फोन करने पर पता चला कि कुछ जरूरी चीजों के कारण पटना में कोई नहीं रहेंगे, और चाभी बगल वाली भाभी के पास रहेगा..

जारी...

Saturday, May 08, 2010

ओ देश से आने वाले बता - "पैगाम-ए-मुहब्बत"

ओ देश से आने वाले बता
किस हाल में है यार-ए-वतन
वो बाग-ए-वतन, फ़िरदौस-ए-वतन
क्या अब भी वहां के बागों में
मस्तानी हवाऐं आती हैं
क्या अब भी वहां के पर्वत पर
घनघोर घटाऐं छाती हैं
क्या अब भी वहां की बरखाऐं
ऐसे ही दिलों को भाती हैं
ओ देश से आने वाले बता
----अख्तर शीरानी

वो शहर जो हमसे छूटा है
वो शहर हमारा कैसा है
सब लोग हमें प्यारे थे मगर
वो जान से प्यारा कैसा है
ओ देश से आने वाले बता
----अहमद फ़ैराज़

ओ देश से आने वाले बता
क्या अब भी वतन में वैसे ही
सरमस्त नजारें होते हैं
क्या अब भी सुहानी रातों में
वो चांद सितारे होते हैं
हम खेल जो खेला करते थे
क्या अब भी वो सारे होते हैं
ओ देश से आने वाले बता
----अख्तर शीरानी

शब बज़्म-ए-हरिफ़ां सजती है
या शाम ढ़ले सो जाती हैं
यारों कि बसर औकात है क्या
हर अंजुमन-ए-आरा कैसा है
ओ देश से आने वाले बता
----अहमद फ़ैराज़

ओ देश से आने वाले बता
क्या अब भी महकते मंदिर से
नाकूस की आवाज आती है
क्या अब भी मुकद्दस मस्जिद पर
मस्ताना अजान थर्राती है
क्या अब भी वहां के पनघट पर
पन्हारियां पानी भरती है
अन्गराई का नक्सा बन-बन कर
सब माथे पर गागर धरती हैं
और अपने घरों को जाते हुये
हंसते हुये चुहले करती हैं
ओ देश से आने वाले बता
----अख्तर शीरानी

महरान लहू कि धार हुआ
वो लान भी क्या गुलनार हुआ
किस रंग का है दरिया-ए-अटक
रावी का किनारा कैसा है
ऐ देश से आने वाले मगर
तुमने तो ना इतना भी पूछा
वो कवि जिसे बनबास मिला
वो दर्द का मारा कैसा है
ओ देश से आने वाले बता
----अहमद फ़ैराज़

क्या अब भी किसी के सीने में
आती है हमारी चाह बता
क्या याद हमें भी करता है
अब यारों में कोई आह बता
ओ देश से आने वाले बता
लिल्लाह बता..लिल्लाह बता..
----अख्तर शीरानी



यह गीत नीरज रोहिल्ला के सौजन्य से.. :)



यह मुजफ्फर अली द्वारा कम्पोज किया हुआ एवं आबिदा परबीन द्वारा गया हुआ, "पैगाम-ए-मुहब्बत एल्बम से लिया गया है.. एक आग्रह के साथ इस गीत को पोस्ट कर रहा हूँ कि अगर किसी को इस एल्बम के MP3 का पता मालूम हो तो बताएं.. कबाड़ियों से कुछ अधिक ही उम्मीद लगाये बैठा हूँ(अगर कोई कबाड़ी मुझे पढते हो तो)..

Thursday, May 06, 2010

मैं कई बार मर चुका हूंगा - पाब्लो नेरूदा

सारी रात मैंने अपनी ज़िन्दगी तबाह की
कुछ गिनते हुए,
गायें नहीं
पौंड नहीं
फ़्रांक नहीं, डालर नहीं...
न, वैसा कुछ भी नहीं


सारी रात मैंने अपनी ज़िन्दगी तबाह की
कुछ गिनते हुए,
कारें नहीं
बिल्लियाँ नहीं
मुहब्बतें नहीं...
न!


रौशनी में मैंने अपनी ज़िन्दगी तबाह की
कुछ गिनते हुए,
क़िताबें नहीं
कुत्ते नहीं
हिंदसे नहीं...
न!


सारी रात मैंने चांद को तबाह किया
कुछ गिनते हुए,
बोसे नहीं
वधुएँ नहीं
बिस्तर नहीं...
न!


लहरों में मैंने रात को तबाह किया
कुछ गिनते हुए,
बोतलें नहीं
दाँत नहीं
प्याले नहीं...
न!


शान्ति में मैंने युद्ध को तबाह किया
कुछ गिनते हुए,
सड़कें नहीं
नगमें नहीं...
न!


छाया में मैंने ज़मीन को तबाह किया
कुछ गिनते हुए,
बाल नहीं झुर्रियाँ नही
गुम गई चीज़ें नहीं...
न!


ज़िन्दगी में मैंने मौत को तबाह किया
कुछ गिनते हुए,
क्या उस सबको भी जोड़ा जाय ?
याद नहीं पड़ता...
न!


मौत में मैंने ज़िन्दगी को तबाह किया
कुछ गिनते हुए,
नफ़ा कहूँ या नुकसान !
नहीं जानता
न ज़मीन ही...
वग़ैरह वग़ैरह..

सुरेश सलिल जी द्वारा स्पेनिश से हिंदी में अनुवादित.

नेरूदा के बारे में अधिक पढ़ने के लिए यहाँ जाएँ..

Tuesday, May 04, 2010

समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई

समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई

समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई

हाथी से आई

घोड़ा से आई

अँगरेजी बाजा बजाई, समाजवाद...

नोटवा से आई

बोटवा से आई

बिड़ला के घर में समाई, समाजवाद...

गाँधी से आई

आँधी से आई

टुटही मड़इयो उड़ाई, समाजवाद...

काँगरेस से आई

जनता से आई

झंडा से बदली हो आई, समाजवाद...

डालर से आई

रूबल से आई

देसवा के बान्हे धराई, समाजवाद...

वादा से आई

लबादा से आई

जनता के कुरसी बनाई, समाजवाद...

लाठी से आई

गोली से आई

लेकिन अंहिसा कहाई, समाजवाद...

महंगी ले आई

गरीबी ले आई

केतनो मजूरा कमाई, समाजवाद...

छोटका का छोटहन

बड़का का बड़हन

बखरा बराबर लगाई, समाजवाद...

परसों ले आई

बरसों ले आई

हरदम अकासे तकाई, समाजवाद...

धीरे-धीरे आई

चुपे-चुपे आई

अँखियन पर परदा लगाई

समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई ।

गोरख पाण्डेय जी द्वारा रचित(रचनाकाल :1978). उनकी अन्य रचनाएँ आप यहाँ पढ़ सकते हैं.