Thursday, December 17, 2009

पता नहीं, प्रोसेसर स्लो है या हार्ड डिस्क फुल?

आज सुबह ऑफिस जाने की हड़बड़ी में था तभी देखा कि पापा जी का फोन आ रहा है.. और इससे पहले भी तीन बार उनका फोन आ चुका था जिसका मुझे पता नहीं चल सका.. उन्होंने बताया कि मेरे लिये किसी सईद का फोन आया था और उन्होंने मेरा नंबर उसे दे दिया है..

मैं तब से ही सोच रहा हूं कि ये सईद कौन है? और उसके पास मेरे घर पटना का नंबर कैसे आया? क्योंकि पटना में सबसे पहले जो नंबर लिया गया था वो अब बदल चुका है, और मेरे बहुत पुराने मित्रों, जिनसे मैं 5-6 साल से नहिं मिला हूं, के पास वही पुराना नंबर होगा.. और नया नंबर मेरे चुनिंदा मित्रों के ही पास है..

खैर!! जब से सुना हूं तब से मेरे हार्ड डिस्क में सर्चिंग चालू है.. मगर यह नाम अभी तक मिला नहीं.. अब मुझे समझ नहीं आ रहा है कि ये नाम सर्च करने में लगने वाले समय के पीछे कारण क्या है?

कुछ कारण मैंने खोजे हैं, बाकी कुछ चाहें तो आप भी जोड़ सकते हैं -
1. या तो मेरे हार्ड डिस्क में बहुत सारा डाटा है.
2. या फिर मेरा प्रोसेसर स्लो हो गया है.
3. या फिर वह नाम हिडेन मेमोरी में चला गया है.
4. या फिर साफ्टवेयर करप्ट हो गया है!!!!


और अगर वह डाटा मेरे मेमोरी में है ही नहीं तो यह सर्चिंग प्रोसेस इंफायनाईट लूप में क्यों चला गया है? कुछ तो गड़बड़ जरूर है.. :)

खैर जो भी हो, अगर उसे काम होगा तो वह खुद ही फोन करेगा.. :)

Wednesday, December 16, 2009

अब भी उसे जब याद करता हूं, तो बहुत शिद्दत से याद करता हूं

समय के साथ बहुत कुछ बदला है.. मैं भी बदला हूं, मेरी सोच के साथ-साथ परिस्थितियां भी बदली है.. कई रिश्तों के मायने बदले हैं.. पहले जिन बातों के बदलने पर तकलीफ़ होती थी, अब उन्ही चीजों को देखने का नजरिया भी बदला है और उन्हें उसी रूप में स्वीकार कर आगे बढ़ने की प्रवॄति भी आ गई है.. जिन चीजों के बदलने पर तकलीफ होती थी अब उन बातों को आसानी से स्वीकारने भी लगा हूं..

जिस मित्र के साथ हर बात बांचते थे और जिसके पास मेरे बैंक एकाऊंट का पासवर्ड होना भी कोई मायने नहीं रखता था, अब उन्ही मित्रों से कई बाते छुपा जाया करता हूं.. वे भी अमूमन वैसा ही करते हैं, जैसा मैं करता हूं.. वे भी तब वैसा ही करते थे जैसा मैं करता था.. मुझमें और उनमें कोई अंतर बाकी ना रहा.. ना तब, और ना अब..

पहले कुछ भी अपना नहीं होता था, अब कई चीजें सिर्फ अपने लिये होने लगी हैं.. कभी-कभी लगता है कि कहीं स्वार्थी तो नहीं होता जा रहा हूं? मगर फिर लगता है कि अगर यह स्वार्थीपना है तो हम चारों ओर स्वार्थियों से ही घिरे हुये हैं.. वहीं कभी आशावादी तरीके से भी सोचता हूं.. सोचता हूं कि यही तो जीवन का सत्य है.. मानव स्वभाव है.. इसमें स्वार्थीपना कहीं भी नहीं है.. हर कोई अपना एक स्पेस चाहता है, तो उस स्पेस में क्यों जबरन घुसा जाये?

अपने शहर में जाता हूं तो अपने घर के इर्द-गिर्द कई नये बेजान से मकानों को देखता हूं.. हर छः महिने में कम से कम 2-3 नये मकान.. उस मैदान पर जहां मैं क्रिकेट खेला करता था और जिस पर 2-3 टीम एक साथ खेलती थी, उस पर अब एक छोटी सी टीम के खेलने लायक जगह भी नहीं बची है.. बदलावों के बयार में तो हर कुछ बह रहा है..

अब रोना कम हो गया है.. पहले हर इमोशनल बातों पर रोना आता था.. अब वैसी बाते आने पर हंसी आती है.. खिसियानी हंसी.. लगता है जैसे खुद को धोखा देने कि कोशिश में लगा हूं.. दुनिया को दिखाना चाहता हूं कि देखो, मैं कितना प्रैक्टिकल हो गया हूं.. प्रक्टिकल होना या प्रोफेशनल होना अब भी मेरी समझ के बाहर की चीज है.. अब हर बात को पॉलिटिकली करेक्ट करने की कोशिश अधिक लगती है बजाये की दिल कि बात कही जाये.. प्रैक्टिकल होना या प्रोफेशनल होने का अभी तक एक ही मतलब समझ पाया हूं, महसूस कम करना.. कुछ भी महसूस ना करना.. जो जितना कम महसूस करता है, वह उतना ही प्रैक्टिकल है..

एक बात तो समझ में आती है कि मैंने मन में गांठ बांध लिया है की "बदलाव ही जीवन का अटूट सत्य है".. देर से ही सही, समझ में तो आया.. अब तुम्हारा वह पहाड़ी वाला शहर भी अधिक तकलीफ़ नहीं देता है, और ना ही यादों में अधिक ढ़केलता है.. सच कहूं तो तुम्हारे उस शहर में जाकर अंतरमन में रस्साकस्सी बहुत अधिक चलती है.. दिल उन यादों में डूबना चाहता है, मगर दिमाग कहीं और खींचना चाहता है..

कुछ दिन पहले उसी शहर में रहने वाला एक मित्र पूछ बैठा था तुम्हारे बारे में, "क्या उसे अब भी याद करते हो?" "ना!!" तुरत जबान से निकल पड़ा.. आधे मिनट की चुप्पी के बाद मैंने कहा, "अब यादों में डूबे रहना जमाने को प्रैक्टिकल नहीं लगता है.. मगर अब भी उसे जब याद करता हूं, तो बहुत शिद्दत से याद करता हूं.." पता नहीं क्यों, मैं उससे झूठ नहीं बोल पाया.. मगर कई बातें नहीं कह पाया.. जैसे.. उस शहर में अब भी तुम्हारी खुश्बू महसूस करना चाहता हूं, मगर अब उस अहसास का पीछा नहीं करता हूं.. समझ गया हूं.. यह एक मृग-मरिचिका से अधिक और कुछ नहीं है..

चलते-चलते : एक बात जो समझा हूं, एक चीज कभी नहीं बदलती है.. चाहे सारा जमाना बदल जाये.. सारे रिश्तों के मायने बदल जाये.. ब्रह्मांड के बदलाव के नियम को झूठलाते हुये ना बदलने वाली चीज है, मां-पापा का प्यार और स्नेह..

Tuesday, December 15, 2009

DDLJ के जादू का बाकी है असर


कुछ महिने पहले "दिलवाले दुल्हनियां ले जायेंगे" के 14 साल पूरा होने के अवसर पर मैंने अपनी याद अजय जी के ब्लौग चव्वनी छाप पर आप लोगों से बांटा था.. आज उसे ही अपने ब्लौग पर भी बांचे जा रहा हूं.. डीडीएलजे ऋंखला के बाकी लेख पढ़ने के लिये इस लिंक पर जायें..

आजकल जिसे देखो वही डीडीएलजे की बातें कर रहा है.. करे भी क्यों ना? आखिर इसने चौदह साल पूरा करने के साथ ही जाने कितने ही लोगों और लगभग दो पीढि़यों को प्यार करना सिखाया होगा.. चलिये सीधे आते हैं अपने अनुभव के ऊपर..

उस समय हमलोग आधा पटना और आधा बिक्रमगंज में रहते थे.. पापा बिक्रमगंज में पदस्थापित थे और हम बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के चलते एक घर हमें पटना में भी लेकर रखना पड़ा था, क्योंकि बिक्रमगंज में "केंद्रीय विद्यालय" नहीं था.. उस समय हमारे घर में सिनेमा हॉल जाकर फिल्म देखने का प्रचलन लगभग ना के बराबर ही था और डीडीएलजे से पहले हमने अंतिम बार किसी सिनेमा हॉल में जाकर सिनेमा कब देखा था यह भी मुझे याद नहीं है.. हमलोग नये-नये जवान होना शुरू हुये थे और इस सिनेमा के आने से घर में हमारी जिद शुरू हो चुकी थी कि इसे देखेंगे तो सिनेमा हॉल में ही..

स्कूल में कई लड़के स्कूल से भागकर यह सिनेमा देखने जाते थे.. जिस दिन उन्हें स्कूल से भागकर सिनेमा देखना होता था उससे एक दिन पहले ही सभी मिलकर प्लानिंग करते थे.. शायद 10 साल बाद आये रौबिन शर्मा के उपन्यास(द मौंक हू सोल्ड हिज फरारी) का एक पंच लाईन वे उसी समय समझ गये जिसे रौबिन शर्मा को समझने में 10 साल और खपाना पड़ा.. "If you fail to plan, means you are planning to fail.." और उनका प्लान कभी फेल होता भी नहीं था.. वे पैसे का इंतजाम कहां से करते थे, यह भी मुझे नहीं पता चलता था और ना ही इतनी हिम्मत थी की स्कूल से भागकर उनके साथ सिनेमा देखने जा सकूं.. उन दिनों हर दिन कोई ना कोई नया डायलौग हमारे सामने होता था और हर लड़की 'सेनेरिटा' होती थी.. अगर कोई अच्छी लग रही है तो वह 'सेनेरिटा'.. अगर किसी का नाम नहीं जानते हैं तो वह 'सेनेरिटा'.. राह चलते कोई दिख जाये तो वह 'सेनेरिटा'..

खैर घर में पापा को मनाया गया.. पापाजी मान भी गये.. संयोग से उस समय पापाजी पटना आये थे और हमारे जिद के आगे झुक कर रिजेंट सिनेमाहॉल की ओर भी बढ़े.. आज भी उस रोमांच की याद ताजा है, क्योंकि जाने कितने ही साल के बाद सिनेमाहॉल के दर्शन होने वाले थे.. ना हमे पता था और ना ही पापा जी को, कि पटना के सिनेमा हॉल के टिकट के लिये कैसी मारा-मारी होती है.. सो बिना अग्रिम बुकिंग किये ही हम वहां पहूंच गये थे, और टिकट वाली खिड़की पर हाउसफुल का बोर्ड हमारा मुंह चिढ़ा रहा था..

वहीं एक बच्चा मिला जो टिकट ब्लैक कर रहा था.. अधिक से अधिक 12-13 साल का होगा.. उसने बताया की उसके पास फर्स्ट क्लास का टिकट है.. हम सभी खुश, वाह जब नाम ही है फर्स्ट क्लास तो सीट भी आरामदायक होगा.. 15 रूपये प्रति टिकट ले कर हम सिनेमाहॉल के अंदर गये.. अंदर जाने पर पता चला की अच्छा फर्स्ट क्लास हॉल के सबसे आगे वाली सीट को कहते हैं.. बामुश्किल हम वहां 15-20 मिनट बैठे और उसके बाद वहां बैठे लोगों के हुल्लड़ हंगामे के चलते हमें बाहर का दरवाजा देखना पड़ा.. जब हम वहां से उठकर जा रहे थे तब वहां के सभी लोगों की नजर हम पर ही थी कि पूरा परिवार अचानक से क्यों जा रहा है..

घर में जाने कितने ही दिनों तक इसके गाने बजते रहे.. इसकी ऑडियो सीडी भी खरीदी गई जिसकी कीमत तब शायद 275 रूपये थी.. उन दिनों भैया को विडियो कैसेट खरीद कर जमा करने का नया-नया शौक जागा था.. वे इंतजार में थे कि कब इसका ओरिजिनल कैसेट बाजार में आये और इसे खरीदा जाये.. उन दिनों सिनेमा और संगीत के बाजार में गहरी हलचल मची हुई थी.. लोग वीसीपी और वीसीआर से वीसीडी प्लेयर की ओर जा रहे थे.. कैसेट की जगह सीडी ले रहा था.. इन्ही सबके बीच जाने कब डीडीएलजे का ओरिजिनल कैसेट बाजार में आया और गुम हो गया.. आज हाल यह है कि कम से कम बीस बार यह सिनेमा देखने के बाद भी जब कभी किसी चैनल पर यह आ रहा होता है वहां रिमोट कुछ क्षण के लिये ठिठकता जरूर है.. मगर यह सिनेमा इतनी आसानी से उपलब्ध होने के बाद भी आज मेरे एक्सटर्नल हार्ड डिस्क में नहीं है जिसमें कम से कम 250-300 सिनेमा पड़ी हुई है..

चाहे कुछ भी हो, मगर इस सिनेमा के जादू का असर अब भी कहीं ना कहीं बाकी जरूर है जिसने होश संभालने के बाद सिनेमा हॉल का दर्शन भी कराया और उसके बारे में जिज्ञास भी जगाई.. इसके जादू के असर कितना था यह आप इससे जान सकते हैं कि जब मैं तमिलनाडु आया तब किसी भी स्थानिय व्यक्ति से, जो हिंदी नहीं जानता था, से हिंदी गाना गाने के लिये कहता था तो वह टूटी-फूटी हिंदी में "तुझे देखा तो ये जाना सनम" ही सुनाता था(और है भी)..

Sunday, December 13, 2009

एक कविता कोडिंग पर

कोई अपने ही घर में चोरी करता है क्या? नहीं ना? मगर मैंने किया है.. ज्ञान जी के शब्दों में यह रीठेल है.. यह कविता मेरे एक बेहद पुराने पोस्ट पर डा.अमर जी ने कमेंट किया था जिसे यहां ठेले जा रहा हूं.. आजकल ब्लौगिंग करने की फुरसत भी नहीं है और कुछ लिखने की इच्छा भी नहीं, तो सोचा क्यों ना अपना शौक कुछ इसी तरह पूरा कर लूं, अपने ही पोस्ट से चुरा कर कुछ डालता चलूं.. :)

तुम भी तो कोडिंग किये जा रहे हो,
हम भी ये कोडिंग किये जा रहे हैं,
ज़हन में दोनों के खयाल है लरज़ा,
क्यों बेसाख़्ता ज़िंदगी जिये जा रहे हैं ??

ये डिफेक्टों की लिस्ट में ये बगों का सामना,
दोनों ही बैठे किये जा रहे हैं,
PM ही जीता है लड़ाई में आखिर,
ज़ख़्म क्यों हम ही झेले जा रहे हैं ??

रहे सामने वो क्लायंट की हाज़िरी में,
हम ही क्यों पर्दे के पीछे जा रहे हैं !!
C.E.O. के Ethics किसी ने न देखे,
हमें ही सारी ट्रेनिंग दिये जा रहे हैं !!

HR यहां है, Manager वहां है,
हमारे सिवा क्या मैनेज किये जा रहे हैं ??
ब्रेक-डाउन में सैलरी के किये हैं घपले,
हम हैं कि सब कुछ सहे जा रहे हैं !!!

पता है हमें भी, पता है तुम्हें भी,
कि सपने कैसे कैसे बुने जा रहे हैं !!
कभी न कभी तो PM बनेंगे,
अरमान यही दिल में किये जा रहे हैं !!

करेंगे वो ही जलसे, के घूमेंगे हम भी,
प्लानिंग अभी से किये जा रहे हैं…
हैं हम भी ढक्कन! कि कोडिंग के बदले
ये फालतू की लाईनें लिखे जा रहे हैं …

Wednesday, December 02, 2009

बैंगलोर में मार-कुटाई की बातें

दो लोग मेरी जिंदगी में ऐसे भी हैं जिन्हें देखते ही धमाधम मारने का बहुत मन करने लगता है.. पता नहीं क्यों.. एक को तो अबकी पीट आया हूं और दूसरे को धमका आया हूं कि जल्द ही आऊंगा, मार खाने को तैयार रहना.. यह मत सोचना कि लड़की समझ कर छोड़ दूंगा.. :)

ये दोनों ही मेरे कालेज के मित्र हैं.. पहले जब कभी बैंगलोर जाना होता था तब मेरी प्राथमिकता में तीन लोग हुआ करते थे, जिनसे मिले बिना मैं नहीं आना चाहता था, बाकी काम बाद में.. चंदन, प्रियंका और रविन्द्र.. जिसमें चंदन और प्रियंका मेरे एम.सी.ए. के मित्र हैं और रविन्द्र मेरे उन सबसे पुराने मित्रों में से है जिससे पहले पहल पटना में दोस्ती हुई थी.. अबकी बार बैंगलोर गया तो एक नाम और जुड़ गया, नीता.. यह भी एम.सी.ए. वाले दोस्तों में से ही है.. बैंगलोर शिफ्ट हुये जुम्मा-जुम्मा चार दिन भी नहीं हुये हैं इसे.. अबकी बार बैंगलोर गया तो नीरज और गार्गी से भी मुलाकात होनी थी, या यूं कहें कि उन्हीं दोनों से मिलने के लिये खास बैंगलोर गया था(चंदन, प्रियंका और नीता अभी बैंगलोर से कहीं भागने वाले भी नहीं हैं).. नीरज के भैया की शादी ती और उसी कारण से वे दोनों कलकत्ता से बैंगलोर आये थे..


बायें से - मैं, नीता और चंदन

अबकी बार बैंगलोर के लिये निकला तो अपने लिस्ट में दो और नाम जुड़े हुये थे जिनसे मुलाकात करने की बहुत इच्छा थी, मगर मुलाकात हो ना सकी.. पहला नाम तो पूजा मैडम का था और दूसरा नाम मेरी पटना कि ही स्कूल के जमाने की मित्र निवेदिता उर्फ रोजी थी.. सच कहूं तो रोजी से मिलने से ज्यादा उसकी बिटिया से मिलने का मन अधिक था..

पिछले 3-4 बार से जब भी बैंगलोर गया था तब हमेशा यह शहर मेरा स्वागत ठंढ़ी फुहारों से करता रहा है, मगर शायद यह शहर भी एकरसता से ऊब गया होगा.. तभी इस बार नहीं बरसा.. सुबह-सुबह चंदन के घर पहूंच कर उसकी पिटाई की तब जाकर मन को तसल्ली मिली.. बहुत दिनों से साले को पीटा नहीं था.. :D

पता नहीं शिवेंद्र को इतनी नींद आती कहां से है? और आती है तो रखता कहां है?(एक सिनेमा से इन्सपायर्ड डायलॉग मारा हूं :)).. रात भर सोने के बाद भी चंदन के घर में पहूंचते ही बिस्तर देख लम्बा हो गया.. वह भी मेरे साथ चेन्नई से बैंगलोर आया था.. फिर थोड़ी देर बाद प्रियंका के घर को निकल लिये पेट-पूजा करने को.. मेरे और प्रियंका के बीच पहले ही बात तय हो चुकी थी कि मुझे चिकेन खिलायेगी.. उसने जब पूछा कि शिव कैसे खायेगा? मेरा कहना था, "शिव खाता नहीं है, मगर सूंघने से उसे परहेज थोड़े ही ना है?" खैर चिकेन भी आया और दबाकर खाया भी गया.. शाम में चंदन और शिवेन्द्र की इच्छा ना होते हुये भी, प्रियंका और मैं जबरदस्ती उठा ले गये सिनेमा दिखाने को, कुर्बान नाम है सिनेमा का.. सिनेमा महा बकवास थी, मगर दोस्तों का साथ था यह क्या कम था? फिर घर पहूंच कर दिन का बचा चिकेन भी दबा गया.. उधर नीता दिनभर एक अदद घर की तलाश में भटकती रही..

अगले दिन नीता से भी मुलाकात हुई और नीरज-गार्गी से भी.. कुछ ही महिने पहले इनसे कलकत्ते मे भी मुलाकात हुई थी और शिव भैया(शिव कुमार मिश्रा जी) को भी इनसे मिलवाया था.. वहीं अंतिम बार नीता से भी मुलाकात हुई थी.. मगर इतने पास होने पर भी बैंगलोर जाकर नहीं मिलने का बस एक ही मतलब था कि इन सबसे खूब गालियां खाना.. सोचा कि क्यों ना भैया की शादी का पर्टी ही खा लूं, गालियां खाने को तो ऑफिस है ही.. सो चला आया था यहां..


बायें से - नीता, प्रियंका, शिवेन्द्र, गार्गी, मैं और नीरज(सबसे दाये वाला नीरज का मित्र है जिसका नाम मुझे नहीं पता)

अब शुरू हुआ नीता के इंतजार का सिलसिला जिसके चक्कर में मैंने पूजा और रोजी को मना कर दिया था इस बार मिलने से.. मगर वह तब आयी जब चंदन ने अपने घोड़े(बाईक) को उसके घर तक लगभग 35 किलोमीटर दौड़ाया.. फिर रात ढ़लने से पहले ही उस जगह भी पहूंच ही गये जहां पार्टी चल रही थी.. इसके लिये नीता और प्रियंका भी जिम्मेदार थी जो आश्चर्यजनक रूप से बस 10 मिनट में ही तैयार हो गई थी.. :D

पार्टी में पहूंच कर मैंने नीरज से सबसे पहले बोला, "अबे तू वेटर जैसा नहीं लग रहा है, मुझे तो लगा था की पांच सितारा होटल में तू वेटर जैसा ही दिखेगा.." चलो अच्छा ही हुआ जो उसने मेरे कमेंट को कंप्लीमेंट समझ लिया, नहीं तो पांच सितारा होटल में खाने का मौका हाथ से निकल जाता.. ;)

खैर एक बार फिर से चिकेन दबा कर खाया और निकल लिये ट्रेन पकड़ने को.. आते समय नीता को धमका आया कि चंदन को तो कहीं भी पीट सकता हूं, मगर तुम्हें बीच सड़क पर पीटूंगा तो खुद ही पिट जाऊंगा.. सो यह प्रोग्राम अगली बार के लिये स्थगित..

चलते-चलते : आज(मेरे लिये तो यह अभी भी आज ही है, सुबह उठुंगा तब यह कल होगा :) ) 1 दिसम्बर को नीता का जन्मदिन भी है..