Monday, June 29, 2009

15 रूपये कि एक मुस्कुराहट और ट्रैफिक सिग्नल

अपने ऑफिस के बाहर वाले पार्किंग में खड़ा मैं फोन पर किसी से बातें कर रहा था.. तभी नीचे से कुछ आवाज आई.. मैंने देखा तो पाया की एक 3-4 साल की बच्ची थी और उसके गोद में भी एक 5-6 महिने का बच्चा था.. मैंने उसे भीख मांगने वाली समझ उसे इसारे से मना किया, कि मैं कुछ भी नहीं दूंगा.. उसने कहा, "अन्ना, नो मनी.." मैं फोन पर भी बातें कर रहा था, सो उसकी बात समझने में थोड़ा समय भी लगा और जब तक समझ में आता तब तक वो वहां से भाग गई..

मुझे कुछ समझ में नहीं आया कि वो बच्ची चाह क्या रही थी? फोन पर ही बातें करते हुये मैंने देखा कि वह वहां खड़े लगभग हर किसी से तमिल में कुछ कह रही थी और सभी उसकी बात सुनकर या तो अनसुना कर रहे थे या फिर उसकी हंसी तमिल में ही कुछ कह कर उड़ा रहे थे..

पहली नजर में मुझे लगा कि उस बच्ची को भूख लगी है.. वहीं एक चाय वाला भी बैठता है जो कटिंग वाली चाय के साथ बिस्किट और ब्रेड भी रखता है.. मैंने उसे अपने पास बुला कर अंग्रेजी में उसे समझाने की कोशिश की, और बोला कि तुम्हे जो चाहिये वो ले लो.. मगर वो वहां से भी भाग गई..

मुझे कुछ समझ में नहीं आया कि ये इस तरह से क्यों कर रही है.. एक छटपटाहट उसके चेहरे पर साफ झलक रही थी, और कारण मेरी समझ से बाहर थी.. तमिल ना आने का अपह्सोस मुझे शायद सबसे ज्यादा उसी समय हो रहा था.. तभी मैंने देखा कि चाय वाला उसे डांटते हुये कुछ बोल रहा था, टूटी-फूटी तमिल में मैं इतना समझ गया कि वह बच्ची चाह क्या रही थी..

वहीं पार्किंग के पास एक आईसक्रीम वाला भी था, और वह किसी भी तरह एक आईसक्रीम खाना चाह रही थी.. उस चाय वाले की बात मुझे यह समझ में आयी थी कि वह कटाक्ष करते हुये बोल रहा था जिसको हिन्दी में हम कुछ ऐसे कहते हैं, "अपनी औकात देखी हो, आईसक्रीम खाना चाह रही हो.. भागो यहा से और मेरे कस्टमर को परेशान मत करो.."

उसे मैंने अपने पास बुलाया, मगर वह नहीं आयी.. शायद डर गई थी.. आईसक्रीम वाले के पास जाकर मैंने उसे बुलाया तो वह झट से मेरे पास चली आयी.. मैंने आईसक्रीम वाले को बोला कि इसे जो भी आईसक्रीम चाहिये इसे दे दो.. वो आईसक्रीम वाला मुझे ऐसे देखा जैसे मैं पागल हो गया हूं.. मैंने फिर से उसे कहा तो वह चुपचाप उस बच्ची से पूछकर उसे आईसक्रीम दे दिया..

उस बच्ची के चेहरे पर अपार संतोष का भाव साफ दिख रहा था.. मैंने फिर एक अद्भुत बात देखी, वह बच्ची धीरे-धीरे करके सारा आईसक्रीम अपने गोद वाले उस छोटे बच्चे को खिला दी जिसे आईसक्रीम क्या होता है इसकी समझ भी ना होगी.. खुद उसे चखी भी नहीं..

जाने क्यों मुझे अपनी दीदी की बड़ी बेटी याद आ गई, जो कमोबेश उसी कि उमर की होगी.. जो आईसक्रीम के लिये अपना मुंह भी खोलती है तो 1 किलो वाला आईसक्रीम का पैकेट घर में आ जाता है.. अभाव क्या होता है वह उसे पता भी नहीं, दुनियादारी तो दूर की बात है..

एक डर सा लगने लगा.. इंडिया जगमगा रहा है, मगर भारत अपनी गरीबी पर रो रहा है.. तभी ट्रैफिक के शोर ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा.. पास वाले सिग्नल की लाल बत्ती जगमगा रही थी.. मैंने देखा कि वह बच्ची अपने गोद वाले बच्चे को लेकर सिग्नल की ओर जा रही है.. आगे देखना शायद मुझे अच्छा नहीं लगता, सो मैं वापस अपने ऑफिस के अंदर चला आया..

Wednesday, June 24, 2009

फादर्स डे के बहाने कुछ मेरी बातें

- मैं इन सब बातों को नहीं मानता हूं.. अब भला यह भी कोई बात हुई कि कोई दिन फिक्स कर दिया जाये कि इसी दिन आप मां-बाप को याद करें?

- फिर तो तुम्हें नया साल भी नहीं मानना चाहिये?

- हां नहीं मानता हूं..

- तो फिर हमलोग पिकनिक पर क्यों जाते थे? और सबसे ज्यादा खुश भी तुम ही होते थे..

- मैं उस समय छोटा था, अपनी सोच विकसित करने लायक नहीं हुआ था.. और जहां तक मेरा अब मानना है कि आपलोग भी हमें पिकनिक पर इसलिये ले जाते थे कि बच्चे खुश रहें, ना कि इसलिये कि आप नया साल मनाना चाहते थे..

कुछ ऐसी ही बातें मेरे और मेरे पापाजी के बीच अभी-अभी गुजरे हुये मदर्स डे पर हुई थी.. इस फादर्स डे पर शाम ढ़ले मैंने पापाजी को फोन किया और उन्हें बधाईयां दी.. फिर से हमारे बीच कुछ ऐसी बाते हुई -

- तुम तो यह सब नहीं मानते थे?

- उससे क्या होता है, आप तो मानते हैं ना? (अनकही बात यह भी थी कि मुझे पता थ, पापाजी को मेरे फोन करने से अच्छा लग रहा होगा..)

- मेरा कहना ये है कि नहीं मानते हो तो मत मनाओ..

- मानने को तो मैं भगवान को भी नहीं मानता हूं, मगर जब आप यहां थे तब आपके साथ मंदिर भी गया था.. नहीं तो आप मुझे जानते हैं कि मंदिर को लेकर मेरा क्या ख्याल है..

और ये टॉपिक यहीं खत्म हो गया.. वैसे मुझे पता है कि पापाजी मेरी टांग खिचाई कर रहे थे.. वे अक्सर ऐसा करते हैं..

आम तौर पर हम हमेशा ये बात सुनते हैं कि वेलेंटाईन डे नहीं मनाना चाहिये, नया साल नहीं मनाना चाहिये, मदर्स डे-फादर्स डे विदेशी संस्कृति और बाजार के प्रभाव में आकर यहां लोग मना रहे हैं और भारतीय संस्कृति भूल रहे हैं, इत्यादी.. अगर मैं अपनी इच्छा से और भारतीय कानून की सीमा में रह कर कुछ भी मनाऊं या ना मनाऊं, किसी को भला क्या हक है मुझे कहने का? अगर मैं आज ही खुश हूं और आज ही पार्टी करना चाहता हूं तो मेरे लिये क्या पाश्चात्य कैलेंडर का नववर्ष और क्या वसंत पंचमी आना जरूरी है? ठीक इसके विपरीत अगर मैं वसंत पंचमी या पाश्चात्य नववर्ष पर खुश नहीं हूं तो उसे क्यों मनाऊं? अगर मुझे आज अपने माता-पिता की याद आ रही है तो भला क्या मैं अब उन यादों को अगले साल तक संजो कर रखूं?

आपका क्या कहना है इस पर??

Friday, June 19, 2009

कोई नॄप होए, हमें का हानी

वर्ल्ड कप 20-20 से भारत बाहर हो चुका है, और अभी आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल रहा है.. वैसे इसमें कुछ भी अजूबा नहीं है, ऐसा तो हमेशा ही होता है.. जब भी बारत हारता है तो लोग एक-दूसरे पर आरोप मढ़ने लगते हैं.. मिडिया का दोमुहा चेहरा भी दिखने लगता है.. पहले जिस चैनल पर तारीफ के पुल बांधे जा रहे होते हैं वही हारने के बाद पानी पी-पी कर कोसने लगती है.. वो कहते हैं ना, "समरथ को नहीं दोष गुसाईं.."

खैर ये सब तो हो ही रहा है और सभी इन बातों को भली भांती जानते भी हैं.. कल रात हुये पहले सेमीफाईनल में पाकिस्तान जीत गया.. आमतौर पर मैं भी किसी आम भारतीय की तरह ही पाकिस्तान के हमेशा खिलाफ ही रहता हूं, मगर कल दक्षिण अफ्रिका को हारते देखना ज्यादा अच्छा लगा.. अब आज थोड़ी ही देर में दूसरा सेमीफाईनल शुरू होने जा रहा है, देखते हैं क्या होता है?

जब भारत इस दौर से बाहर हो ही चुका है तो मैं चाहूंगा की वेस्टइंडीज ही इस कप को जीत कर जाये.. जाने क्यों भारत के बाद मुझे सबसे ज्यादा यही टीम पसंद है.. शायद मैं भी उसी भारतीय मानसिकता में हूं जहां कमजोर को जीतता हुआ देख कर मन को चैन मिलता है.. वैसे मुझसे 10-15 साल पहले की पीढ़ी से अगर आप पूछेंगे तो पायेंगे कि वेस्टइंडीज के स्पोर्टर मेरे हमउम्र दोस्तों की तुलना में कम है.. शायद इसका भी वही कारण, क्योंकि उस समय वेस्टइंडीज कमजोर टीम नहीं थी, सो उसे हारते हुये देखना उनमें से कई को आज भी पसंद आता है.. उनके मनस पटल पर वह छाप अभी तक छूटी नहीं है..

खैर, भारत इस दौर से बाहर हो ही चुका है.. अब श्रीलंका जीते चाहे वेस्टइंडीज जीते चाहे पाकिस्तान.. हमें क्या फर्क पड़ने वाला है.. हम तो बिलकुल निर्विकार भाव से मैच देखेंगे, जैसे आई.पी.एल. देखते थे.. वहां भी कोई जीते, उससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था..

Monday, June 15, 2009

रात ऊनांदे में लिखी मम्मी को एक एस.एम.एस.

मम्मी, नींद नहीं आ रही है.. एक अजीब सी बेचैनी सी महसूस हो रही है.. जैसे कहीं कुछ छूट सा गया हो..

कुछ खालीपन सा..
एक सन्नाटा सा..
कुछ विरानी सी..
एक छटपटाहट सी..

ऐसा लग रहा है जैसे कोई आत्मा को खरोंच रहा हो.. कुछ बूंदे टपक रही हो जैसे.. कुछ वैसा ही जैसे किसी बोतल में खरोंच लगने पर पानी कि बूंदे बेतरह चूने लगती हो.. मगर यह पानी की बूंदें नहीं है.. पता नहीं क्या है? शायद आत्मा का जीवन रस कोई निचोड़ रहा है..

शायद हम जमाने से भाग सकते हैं.. अपने चेहरे पर मुखौटे पहन कर अपनी असली सख्शियत जमाने से छुपा सकते हैं.. मगर खुद से भागना और अतीत से छुपना लगभग नामुमकिन सा होता है..

बहुत दिनों पहले का लिखा एक एस.एम.एस.

Sunday, June 14, 2009

एक सस्ती शायरी

एक इन्कलाब आयी, पूरी दुनिया सुधर गई..
हजार और आये, हम न सुधरे हैं औ ना सुधरेंगे..


मेरे पिछले पोस्ट पर कुछ लोगों ने कमेन्ट में मुझे सुधारने कि सलाह दे डाली थी.. उसी पर यह माइक्रो पोस्ट है.. ;)
वैसे मैं यह बता देना चाहता हूँ कि मैं इस शायरी को लिखने का दावा नहीं कर रहा हूँ.. किसने लिखा है यह मुझे पता नहीं है.. :)

Friday, June 12, 2009

मेरे घर के आगे एक रंगोली

नये घर में शिफ्ट हुये एक महिना बीत चुका है.. तो महिने का किराया देने का भी समय आ गया था.. 50 रूपये बरामदा साफ करने वाले को भी देना था.. हमारा कहना था कि महिना में एक दिन भी उसने आकर साफ सफाई नहीं की है तो हम 50 रूपये क्यों दें? तो बस उसी दिन सफाई करने वाली आयी और उसने बरामदा साफ करके दरवाजे पर रंगोली भी बना गई.. ये उसी रंगोली कि तस्वीर है..



इस तरह कि रंगोली आप दक्षिण भारत के लगभग हर घर के आगे सुबह-सुबह देख सकते हैं.. वैसे मेरे दोस्तों का कहना था कि वह 50 रूपया हम प्रशान्त को दे देते हैं, आखिर उसी ने तो महिने भर बरामदे कि सफाई की है.. ;)

Thursday, June 11, 2009

कहानी मां की

मुझे याद नहीं है कि मैंने यह कब लिखा था.. बस इतना ही याद है कि रात में किसी बेख्याली में मम्मी को एस.एम.एस.मे यह लिखकर भेजा था.. आज यही सही..

मां याद है तुम्हें?
कैसे तुम्हारी कहानियों में,
नायक हमेशा जीतता रहा है..
खुद को जाने कितनी ही बार
उस नायक के स्थान पर
देख चुका हूं मैं..
लड़ाई में मगर अकेला पर जाता हूं..
इस नायक का हौशला भी
टूटता सा लगता है..
तुम आ जाओ मां..
आज फिर उन कहानियों कि जरूरत सी है..

Tuesday, June 09, 2009

दीवानगी ऐसी कि परदे पर भगवान देख रहे हों

कुछ दिन पहले मेरे इस लेख को अजय जी ने इसे अपने चवन्नी छाप नामक ब्लौग में स्थान दिया था.. मगर मेरे कुछ मित्र जो चवन्नी छाप ब्लौग नहीं पढ़ते हैं, उनके लिये मैं इसे अपने ब्लौग पर भी पोस्ट कर रहा हूं..
अजय जी को धन्यवाद सहित..



यूं तो तमिलनाडु जुलाई सन 2004 में आया था.. मन में कई बातें लेकर जैसे वहां तमिल वालों के बीच रहने में दिक्कत होगी, भाषाओं के बीच के अंतर्द्वंद को झेलना होगा.. मगर यहां आकर ऐसा कुछ नहीं लगा क्योंकि सभी मित्र उत्तर भारत के ही थे.. इसका एक तरफ फायदा हुआ तो वहीं दूसरी ओर घाटा भी हुआ.. यहां की संस्कॄति को भी ठीक से समझ नहीं पाया..

सिनेमा के मामले में भी कुछ हद तक यही हाल रहा.. दक्षिण में होते हुए भी यहां के सिनेमा कल्चर से कोसों दूर रहा.. बस गीत संगीत सुनता था, वो भी इसलिये क्योंकि होस्टल में रहते हुए कभी-कभार यहां के गीत किसी कमरे से पूरी आवाज में सुनाई दे जाता था.. शुरूआत में कुछ तमिल गाने भी खूब सुने,जिनमें अधिकतर तमिल से हिंदी में डब किये हुए गीतों के ओरिजिनल साउंड ट्रैक होते थे या फिर धूम-धड़ाके वाले गीत.. अब चूंकि तमिल समझ में आती तो थी नहीं सो संगीत पर ही सब कुछ टिका हुआ था.. ये कुछ ऐसा ही है जैसे अधिकतर छोटे शहरों में रहने वाले भारतीय वेंगाब्वाज को सुनना पसंद करते हैं, मैं भी अपवाद नहीं हूं इनमें.. यहां आकर ये भी जाना कि हिमेश रेशमिया यहां के लोगों का सबसे प्रिय संगीतकार है, कुछ-कुछ उसकी वजह भी वही धूम धड़ाका है..

फिर जनवरी 2007 में चेन्नई आ गया अपने अंतिम सेमेस्टर के प्रोजेक्ट के लिये.. मेरे साथ मेरा मित्र शिवेन्द्र भी था.. यहां आकर भी यहां हम नहीं होते थे.. क्योंकि लगभग हर साप्ताहांत पर हम वापस वेल्लोर, अपने कॉलेज को निकल लेते थे और पूरे सप्ताह भर घर से ऑफिस और ऑफिस से घर मे ही निकल जाता था.. छः महीने फिर से ऐसे ही निकल गये, मगर इस बार के छः महीने में कुछ तमिल मित्र बनाने का मौका मिला.. वे लोग भी अपना अंतिम सेमेस्टर का प्रोजेक्ट पूरा करने के लिये यहां आये थे.. उनसे कुछ तमिल सिनेमा की जानकारी भी मिली.. मगर कुछ ऐसा नहीं जिसका उल्लेख किया जा सके..

दोबारा चेन्नई आना हुआ 2007 जून में, जब नौकरी ज्वाइन करने के लिये बुलाया गया.. संयोग कुछ ऐसा कि जिस दिन मुझे ज्वाइन करना था उसी दिन रजनीकांत का "शिवाजी द बॉस" रिलीज हो रही थी.. सुबह-सुबह जल्दी जाना था सो कुछ पता नहीं चला, मगर जहां हमारा स्वागत समारोह रखा गया था वहीं एक मित्र ने बताया कि वो इस सिनेमा को किसी भी हालत में जल्दी देखना चाहता था मगर अगले एक महीने तक की सभी टिकटें बुक हो चुकी है.. सो वो रात के 1 से 4 का शो देखकर सुबह सात बजे यहां पहुंच रहा है.. वो तारीख कभी नहीं भूल सकता हूं, आखिर पहली नौकरी का पहला दिन जो था.. :) वो 15 जून था.. उस दिन शाम में घर लौटते समय देखा कि घर के पास बहुत भीड़ थी, लोग लम्बी-लम्बी कतारों में खड़े थे.. थोड़ी देर बाद समझ में आया कि मेरे घर के ही पास में एक सिनेमा हॉल है और वहां शिवाजी द बॉस देखने के लिये इतनी भीड़ है.. मैंने सोचा कि ज्यादा से ज्यादा एक हफ्ते रहेगी ये भीड़, मगर नहीं बिलकुल उतनी ही भीड़ अगले दो महीने से भी ज्यादा दिनों तक रही.. तब जाकर समझ में आया कि रजनीकांत क्या चीज है तमिलनाडु के लिये..

चेन्नई में रहते हुए कुछ दिन होने के बाद मुझे पता चला कि मेरे घर के पास ही एक फिल्म स्टूडियो भी है, जिसका नाम ए.वी.एम. स्टूडियो है.. अब जबकि चेन्नई में ही हूं तो एक बार मुझे शिवाजी द बॉस भी देखने का मौका मिला और तब जाकर पता चला कि ये सिनेमा भी ए.वी.एम. स्टूडियो में ही बना है.. कुछ तमिल मित्रों से छानबीन की तो ये भी पता चला कि दूर-दराज के देहाती इलाकों से आने वाले लोगो चेन्नई आते हैं वो एक बार जरूर ए.वी.एम. स्टूडियो देखने की चाहत रखते हैं..

यहां दक्षिण भारत आकर मैंने जो सबसे पहला सिनेमा देखा उसका नाम था "अनियन", जिसे बहुत बाद में हिंदी में भी डब करके लाया गया था "अपरिचित" के नाम से.. उस समय के मुताबिक मुझे वह एक अच्छी एक्शन फिल्‍म लगी थी.. मगर वही बाद में जब हिंदी में आया तब वही सिनेमा मैं हिंदी में एक बार भी पूरा नहीं देख पाया था.. दूसरी तमिल फिल्‍म जो मैंने देखी थी उसकी छाप मेरे मन पर अभी तक है.. उसका नाम था "गिली".. किसी भी फार्मूला सिनेमा में जो कुछ भी हो सकता है, वह सभी कुछ उसमें था.. एक अच्छी और मशालेदार कहानी.. शानदार एक्शन, जिसके अंत में तमिल स्टाइल का एक्शन भी देखने को मिला(अरे वही, एक घूसा लगने पर हवा में चार-पांच बार गोते खाना.. :)) शानदार गाने(उत्तर भारतियों को गिली के गाने अच्छे लगने के पीछे इसका तेज म्यूजिक है और साथ ही एक और कारण होता है वह है उदित नारायण की आवाज..) यहां तक कि अभी भी कोई मुझे कोई तमिल गाना गाने को कहता है तो इसी सिनेमा का एक गीत "अप्पड़ी पोड़े, पोड़े" ही मुंह से निकलता है.. मुझसे मेरे कई तमिल मित्र यह भी शिकायत कर चुके हैं कि तुम सभी उत्तर भारतीयों से कोई भी तमिल गीत गाने को कहो तो यही गीत गाते हो.. :) "गिली" की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि इसमें तेजी बहुत अधिक थी और डायरेक्शन पर बहुत अच्छे से काम किया गया था..

यहां लोगों कि दीवानगी सिनेमा के प्रति कुछ ऐसी है जैसे वे भगवान का ही एक रूप हों.. जैसा वो परदे पर अपने भगवान को ही देख रहें हों.. ऐसी दीवानगी हमें उत्तर भारत में शायद ही देखने को मिले..

Saturday, June 06, 2009

ना फुरसतिया जी को फुरसत, और ना मुझे

फुरसतिया जी चेन्नई आये और चले गये.. लगभग 7 दिन पहले अनूप जी का फोन आया और वो अपने चिर-परिचित अंदाज में बोले, "पीडी, मैं ये देखने चेन्नई आ रहा हूं कि सच में तुम्हारा पैर टूटा है या बस नाटक कर रहे हो?" मैंने तुरत फुरत में कारण जानना चाहा, फुरसतिया जी को चाहे कितनी भी फुरसत हो मगर इतनी दूर चेन्नई बस फुरसत के पल बिताने के लिये आने से तो रहे..

खैर, उन्होंने भी उत्तर देने कि औपचारिकता निभाते हुये तुरत कहा कि बेटे का काऊंसेलिंग है, उसी के लिये आ रहा हूं.. अगला प्रश्न भी तैयार था, "किस कॉलेज में?"
"कोई वी.आई.टी. करके कॉलेज है."

अब मुझे तो पता नहीं कि बांछें कहां होती है, मगर जहां भी होती है वो वहीं पर खिल गई.. आखिर खिलती भी क्यों ना? आखिर मेरे ही कॉलेज में वो अपने बेटे को प्रवेश दिलाने ले जा रहे थे.. अब जल्दी से मैंने उनका प्लान पूछा और उनका सारा प्लान जानने के बाद वो बांछे जैसे खिली थी वैसे ही मुरझा भी गई.. क्योंकि उनका सारा प्लान सप्ताह के कार्य दिवस के बीच ही था.. मतलब मुझे दिन भर फुरसत नहीं और अगर रात में भी जल्दी निकलना हो तो अपने बॉस को कई तरह के तर्क देना..

खैर अनूप जी(अरे वही फुरसतिया) अपने बेटे के साथ 2 जून को चेन्नई आये और अगले ही दिन वेल्लोर के लिये निकल लिये.. दिन भर वहां व्यस्त रहने के बाद शाम में वापस आये, उनके बेटे को वहां प्रवेश भी मिल गया और मेरे मुताबिक वी.आई.टी. के कुछ अच्छे ब्रांचों में से एक ब्रांच भी मिल गया..

अब 4 जून भी आ गया, जिस दिन उन्हें जाना था, और 4 कि शाम जल्दी ऑफिस से निकलने के चक्कर में 3 को देर रात तक काम भी करना पड़ा.. "देखिये फुरसतिया जी, केतना कष्ट उठवायें हैं आप हमको.. :)" अब 4 को दिन भर वह क्या किये यह आप उनसे ही जाकर पूछिये.. हम तो उसके आगे का हाल सुनाते हैं..

संयोग से मेरे गुरू जी(अरे वही, बॉस) को हैदराबाद जाना था सो वो जल्दी निकल लिये.. अब मेरे लिये शाम 7.30 मे ऑफिस से निकलना थोड़ा आसान हो गया.. हम निकलने से पहले पूछे, "कहां हैं आप और कहां मिलना है?"
"हां पीडी, तुम एक काम करो.. बॉम्बे हलवा सेंटर पर आ जाओ.." जैसे वो फोन पर बोलते हैं, बिलकुल उसी स्टाईल में लिखे हैं.. ;)
उन्होंने कहने को तो कह दिया कि बॉम्बे हलवा सेंटर पर आ जाओ, मगर हमें यह भी तो पता होना चाहिये कि यह है कहां? वैसे फुरसतिया जी इतना कांफिडेंट होकर बोके थे कि हमें लगा बहुत फेमस जगह होगी, जिसके बारे में फुरसतिया जी को पता है मगर मुझे चेन्नई में रहते हुये भी नहीं पता.. उनके बताने के तरीके से तो ऐसा लग रहा था कि वह हलवा सेंटर मेरे घर के नुक्कड़ पर ही है, और मैं ऐसे ही आ जाऊंगा.. :D अब हमने अपने कुछ उन दोस्तों से उसका पता पूछा जो चेन्नई में ही पैदा हुये हैं और यहीं मरने कि तमन्ना भी रखते हैं.. मगर नतिजा सिफ़र.. किसी को कुछ भी नहीं पता..

सो फिर से मैंने फोन लगाया, और पूछा कि यह है कहां? उन्होंने अपने मित्र से पूछ कर बताया कि ईगा थियेटर के पास है.. चलो कम से कम ईगा थियेटर को चेन्नई में रहने वाला लगभग हर उत्तर भारतीय जानता है, कारण यह चेन्नई के उन चंद सिनेमा हॉल में से है जहां हिंदी सिनेमा लगता है..

मैं सोचने लगा, अब वहां कैसे जाऊं? अगर सार्टकट से जाता हूं तो ट्रैफिक बहुत मिलेगा.. सो थोड़ा लौंग कट ही मारा जाये.. ट्रैफिक थोड़ा कम मिलेगा.. अब मैंने पूरा माऊंट रोड(चेन्नई का लाईफ लाईन कह सकते हैं जैसे दिल्ली में रिंग रोड) घूम कर पूनामल्ली हाई रोड पकड़ा और ईगा थियेटर पहूंचकर फिर से फोन लगाया.. अब पता चला कि हम जिस ओर से आ रहे हैं उसी तरफ ईगा थियेटर से 2-3 किलोमीटर आगे है.. हमने यू टर्न मारा और सीधा बॉम्बे हलवा हाऊस(असली नाम बॉम्बे हलवा सेंटर नहीं, बॉम्बे हलवा हाऊस है) जाकर ही माने..

वहां फुरसतिया जी भी मिल गये.. उनको प्रणाम करने लगे तो उन्होंने गले लगा लिया.. :) अब तक उन्हें बहुत देर हो चुकी थी, सो बॉम्बे हलवा हाऊस के अंदर ना जाकर सीधा चेन्नई सेंट्रल(अजी वही रेलवे स्टेशन) जाने का प्रोग्राम बन गया.. मैं बाईक से आगे-आगे, फुरसतिया जी अपने बेटे के साथ ऑटो पर पीछे-पीछे.. इतने में अचानक मूसलाधार वर्षा.. मुझे संभलने का बस इतना ही समय मिला कि मैं अपनी सारी जरूरी कागजात अपने बैग में रखे प्लास्टिक कि थैली में डाल सकूं.. बस मैंने सारा सामान उसके अंदर डाला और भींगते हुये पहूंचा स्टेशन..

चेन्नई सेंट्रल पर मुझे सबसे ज्यादा जो बात परेशान करती है वह ये कि बाईक कैसे पार्क करूं? थोड़ी सी जगह, उसी में सभी अपनी अपनी मोटरसाईकल लेकर जुटे रहते हैं.. मेरे साथ और बड़ी परेशानी यह होती है कि 150 किलो कि बड़ी गाड़ी उस छोटे से जगह में कैसे घुसाऊ? खैर जब तक मैं पार्क करता तब तक अनूप जी भी वहां पहूंच गये और मेरे लिये प्लेटफार्म टिकट भी ले लिये..

अब जाकर थोड़ा चैन से उनसे बाते हुई, और वहीं पर उनके बेटे से भी मिला.. बच्चा जिन कपड़ों में था, उन कपड़ों में जिस मात्रा में अधिकतम स्टाईल मारा जा सकता था, उतना स्टाईल में था.. :D वैसे मुझे इसमें कोई ऐतराज नहीं है.. बच्चा था बहुत ही शालीन(कम से कम अपने पापा के सामने..) :D सौमित्र नाम है अनूप जी के बेटे का..

हमलोग वहीं ईडली खाये.. फुरसतिया जी ने मुझे कानपुरिया मिठाई भी खिलाई.. उन्होंने पूरा डब्बा मेरे सामने खोल कर रख दिया और मैंने जैसे ही एक मिठाई ली वैसे ही उसे अंदर रखने लगे.. मगर हम भी ठहरे मैथिल आदमी(अब इतना भी नहीं समझे? अरे, मिथिलांचल के रहने वाले), तुरत उनसे डब्बा ले लिये.. अब किसी को साल भर के बाद मोतीचूर के लड्डू मिले तो भला वह क्यों और किसके लिये छोड़ेगा? :D

हमने अपने ब्लौग दुनिया में बहुत डायरियां पढ़ी है.. दुर्योधन की डायरी जो शिव भैया लिखते हैं, वो तो इतिहास बना ही रहा है.. खुद हमने भी एक लड़की कि डायरी लिख डाली थी.. जब इतनी डायरी लिखी-पढ़ी जा चुकी है तो फुरसतिया जी ने सोचा होगा कि पीडी को "एक नौकरानी कि डायरी" भी पढ़ा ही देते हैं.. उन्होंने मुझे दो किताबें भी भेंट की -
"एक नौकरानी कि डायरी"
"नेकी कर अखबार में डाल"


इसमें से "नेकी कर अखबार में डाल" के लेखक तो हमारे ब्लौग दुनिया में भी धमाल दिखाते ही रहते हैं.. अजी वही आलोक पुराणिक जी.. पिछले साल इनसे भी मिलने का सौभाग्य पंगेबाज जी और मैथिली जी के सौजन्य से मुझे प्राप्त हो चुका है..

4 कि शाम में जब मैं अनूप जी से मिलने को निकलने ही वाला था उसी समय शिव जी का फोन भी आया, वह यह जानने को उत्सुक थे कि फुरसतिया जी से मिले या नहीं? हम उन्हें बताये कि बस उन्हीं से मिलने के लिये निकल ही रहे हैं..


यह फोटो अंधेरे का शिकार हो गई है.. :(

बस थोड़ी देर में कुछ मिनटों कि देरी से ट्रेन भी वहां से रवाना हो गई.. कुल मिला कर अनूप जी से पहली बार मिलना बहुत ही सुखद रहा.. कुल मिलाकर मैं बस इतना ही कह सकता हूं कि जैसा उनका लेखन है और जिस प्रकार से वह फोन पर बतियाते हैं, उससे कुछ भी अलग नहीं है.. वैसे ही खुशमिजाज, वैसा ही उनका सेंस ऑफ ह्यूमर.. कुल मिला कर बहुत ही बढ़िया अनुभव रहा उनसे मिलने का.. :)

दो दिन देर से छापा इसे.. कारण - हमने सोचा कि फुरसतिया जी के बारे में कुछ भी लिखने से पहले पूरा फुरसत निकालो, और वह फुरसत आज ही मिली है.. :)