Monday, March 30, 2009

यादों के काफिले में जुड़ा एक और कारवां

थोड़ी देर के लिये मैं अपनी यादों के फ्लैश बैक में चला गया था.. लगभग 13-14 साल पहले.. चक्रधरपुर के मेले में पापा के साथ घूम रहा हूं और पापा से जिद कर रहा हूं..

"पापा मुझे बैलून फोड़ना है.."
"बैलून से खेलते हैं, उसे फोड़ते थोड़े ही हैं.." पापा जी अक्सर हमें ऐसे ही बहलाते थे..
"नहीं मुझे बंदूक चला कर बैलून फोड़ना है.."
"अरे बंदूक तो चोर-डाकू चलाते हैं.."
"नहीं मुझे निशाना लगाना है.."

बहुत देर तक परेशान करने के बाद पापा जी अंततः हमें वहां ले जाकर निशाना लगवा ही देते थे और साथ में हौशला भी बढ़ाते जाते थे कि और अच्छा निशाना लगाओ..

कुछ ऐसा ही नजारा था जब मैं विवेक जी से यहां चेन्नई में मिला.. उनका बड़ा बेटा अंतु यहां के मैरीना बीच पर घूमते हुये हर चीज के लिये ऐसे ही जिद कर रहा था और विवेक जी भी उसकी जिदों को पूरा किये जा रहे थे, उसे बहलाने की कोशिश भी कर रहे थे मगर वो भी मेरी ही तरह ना बहलने की जैसे कसम खा रखा था..

शनिवार की बात है.. घर से कुछ ही दिन पहले नेट कनेक्शन कटवाने की वजह से दोपहर में मैं किसी काम से मैं साईबर कैफे गया था और वहां अपने मेल बाक्स में विवेक जी का मेल देखा.. जिसमे उन्होंने शाम में मैरीना बीच पर मिलने की बात कही थी और साथ में अपना नंबर भी दे रखे थे.. मैंने तुरत उन्हें फोन घुमाया और मिलने का समय तय कर लिया.. शाम पांच बजे मैरीना बीच पर.. मैं ठीक 5 बजकर 10 मिनट पर वहां था.. फिर एक दुसरे को ढ़ूंढ़ने का काम चालू हुआ.. बाद में पता चला की विवेक जी अपने पूरे परिवार के साथ दक्षिण भारत भ्रमण पर निकले हुये हैं और वह जहां वह अपने परिवार को छोड़कर मुझे ढ़ूंढ़ने निकले थे वहां मैं खड़ा था और विवेक जी कहीं और मुझे ढ़ूंढ़ रहे थे.. :)


विवेक जी और मैं
दिल की बात कहूं तो मुझे उनका छोटा बेटा संतु बहुत, बहुत, बहुत प्यारा लगा.. उनके साथ उनके दोनों बेटे अंतु, संतु, उनकी पत्नी, और उनके माताजी-पिताजी भी थे.. मैं सिर्फ विवेक जी को ही जानता था मगर जब रात में मैंने उन्हें विदा किया तब मैं उनके साथ-साथ उनके दोनों बेटों से भी अच्छी दोस्ती कर ली..

दिल के साफ और खुले विचार वाले विवेक जी में दिखावा बिलकुल भी नहीं था.. लगभग 3-4 घंटे में मैंने उनसे कई बातों पर बात किया जिसमें ब्लौगिंग से लेकर चेन्नई तक और पानीपत से लेकर पटना तक की बातें भी शामिल थी.. वहां उनके तीन मित्रों से भी मुलाकात हुयी.. राजेश जी, गुप्ता जी और मनोहर जी.. जिसमें से राकेश जी और गुप्ता जी उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं और मनोहर जी खालिश चेन्नई के.. यह तीनों ही विवेक जी के साथ तब थे जब विवेक जी चेन्नई में रहते थे..


विवेक जी और उनके मित्र राजेश जी
उनसे अचानक मिलना बहुत ही अच्छा अनुभव रहा.. और वो भी एक साथ उनके पूरे परिवार से मिलने की बात तो उम्मीद के परे थी.. उनके और उनके बच्चों के सात मैंने कई पल जी लिये जो मेरे लिये अनमोल है और हमेशा के लिये यादगार हो गये हैं..


कुछ अन्य चित्र..

विवेक जी


मैरीना बीच पर बिकते शंख और समुद्री शीपों के चित्र



मैरीना बीच पर बिकते शंख और समुद्री शीपों के चित्र

Friday, March 27, 2009

खट्टी खीर उर्फ़ तईर सादम का रहस्य (बनाने की विधि के साथ)

वैधानिक चेतावनी - कल वाले पोस्ट के वैधानिक चेतावनी को आप मजाक में ले सकते हैं, मगर आज वाले व्यंजन बनाने के बाद उसे चखने का खतरा आप अपने ऊपर ही लें.. मेरे ऊपर कोई जिम्मेदारी नहीं बनती है..(सच्ची बहुत खतरनाक है..) इस पोस्ट को लिखने के पीछे शिखा दीदी का मेरे पिछले पोस्ट पर आया कमेंट भी है जिसमें उन्होंने कहा था, "क्या बात है। पहले तो लगा कि कहीं सच में तो तमिलनाडु में बनने वाली मीठी खिचड़ी की विधि तो नहीं दे रहे हैं। पर पढ़ के पता चला यह तो........................कमाल की खिचड़ी है।".. मैंने सोचा क्यों ना दक्षिण भारत का ही एक पकवान बनाना सिखाता चलूं.. ;)

भूमिका - होस्टल का पहला दिन, घर से बहुत पहले ही बाहर निकल चुका था और कुछ दिन दिल्ली में काटने के बाद होस्टल आया था सो बाहर रहने की भी आदत हो चुकी थी.. मेस में गया और खाना देखते ही खुशी से उछल पड़ा.. खीर और वो भी इतनी सारी? अपनी आंखों पर भरोसा नहीं हुआ.. कोई रोक रूकावट नहीं.. जितना खाना चाहो उतना खाओ.. सीधा दिल्ली से होस्टल आ रहा था, और वहां दिल्ली में बाहर का खाना खा-खा कर परेशान हो चुका था सो मेरे लिये तो किसी अमृत के ही समान था..

उस खीर में मैंने करी पत्ता का छौंक भी देखा, मगर मैंने सोचा की शायद यहां के लोग खीर में भी करी पत्ता डालते होंगे.. थाली भर कर खीर लिया और कुछ रोटियां ली.. मुझे इतनी सारी खीर लेते देख मेस के ही एक आदमी ने मुझसे पूछा की तबीयत ठीक नहीं है क्या? जिसका मतलब मुझे बाद में समझ में आया.. रोटी का एक कौर तोड़ा और उसे खीर में डाल कर जैसे ही मुंह में डाला की बस..... ना निगलते बने और ना ही उगलते बने.. हल्का खट्टापन लिये हुये, थोड़ा नमकीन भी.. कुछ ऐसा ही स्वाद था उसका.. बाद में पता चला की यह दही-चावल था जिसे उत्तर भारतीय यहां कर्ड-राईस और दक्षिण भारतीय तमिल में तईर-सादम कहते हैं..

उस पहले दिन के अनुभव ने मुझे उसका नाम खट्टा खीर रखने को विवश कर दिया.. सबसे मजे की बात तो यह है की मेरे अधिकतर कालेज के दोस्तों को यही अनुभव हुआ था.. वे भी पहले दिन खीर के लालच में ढ़ेर सारा खट्टा खीर ले बैठे थे और बाद में पता चला की यह तो कर्ड-राईस है.. :D

तमिल शब्द का ज्ञान -
तईर - दही
सादम - उबला हुआ चावल.. :)

बनाने की विधि -
1. जितना खाना हो उतना चावल उबाल लें..
2. अब अपनी मर्जी के मुताबिक उसमें जितना चाहे उतना दही मिला लें..
3. अपने स्वाद के अनुसार उसमें नमक फेंट लें..
4. करी पत्ता, जीरा, सरसो, मिर्चा.. जो भी मिले उसका उसमें छौंक लगा लें.. :D

उपयोगिता -
आपकी तबियत नर्म हो या पेट में कुछ गड़बड़ी हो.. यह भोजन हर समय आपके शरीर के लिये फायदा ही करता है.. कभी भी नुकसान नहीं पहूंचायेगा.. हल्का-फुल्का खाना हो तो भी यही सही है.. सादा भोजन लेना हो तो भी यही बढ़िया रहेगा..

चलते चलते -
मेरा खाना खजाना प्रोग्राम कैसा लग रहा है यह भी बताते जाईयेगा.. साथ ही सलाह भी देते जाईयेगा की इसे आगे भी बढ़ाया जाये या नहीं? :)

Tuesday, March 24, 2009

मीठी खिचड़ी का रहस्य(बनाने की विधि के साथ)

वैधानिक चेतावनी - इस पोस्ट को पढ़कर मीठी खिचड़ी अपनी जिम्मेदारी पर बनायें.. मेरी कोई जिम्मेदारी उस खिचड़ी पर नहीं बनेगी.. हां विधि पढ़कर चाहे जितनी गालियां आप मुझे दे सकते हैं.. ;)

होली के दिन मैं दिनभर घर में अकेले ही था.. एक मित्र अपने घर छपरा चला गया था और दुसरे का ऑफिस था उस दिन.. मैंने सोचा की आज होली का दिन है, तो क्यों ना कुछ अच्छा खाया जाये.. खिचड़ी तो हर दिन ही खाता हूं, क्यों ना आज मीठी वाली खिचड़ी बनाया जाये.. मैंने बनाया और क्या स्वादिष्ट बना.. आहा! अभी तक उसका स्वाद जीभ पर अटका हुआ है.. कुछ ज्यादा बनाया था जिससे मेरा मित्र भी ऑफिस से घर आकर खा सके, मगर मुझे इतना अच्छा लगा कि मैंने दिन के खाने मे, शाम के नाश्ते में और रात के खाने में भी वही खाया और मेरे मित्र के लिये कुछ भी नहीं बचा..

तो चलते हैं इसे बनाने की विधि की तरफ.. कुछ बातों का ध्यान आपको रखना होगा..
1. अब चूंकि यह मीठी वाली खिचड़ी है तो आप अगर इसमें पानी की जगह दूध डालें तो अधिक स्वादिष्ट बनेगा..
2. चूंकि मीठा शब्द इसके नाम में ही समाहित है तो नमक कि जगह चीनी प्रयोग में लाना अनिवार्य है..

तो अब इसे बनाते हैं.. सबसे पहले आदा किलो दूध लेकर अच्छे से खौलायें.. जब दूध खौलने लगे तो इसमें 150 ग्राम चावल धो कर डाल दें.. चीनी की मिठास अपने स्वादानुसार डालें.. अब इसे धीमे आंच में खौलाते रहें.. जब चावल अच्छे से पक जाये और दूध भी गाढ़ा हो जाये तो चुल्हे को बंद कर दें.. आपकी मीठी वाली खिचड़ी बनकर तैयार है.. अपने स्वाद के अनुसार आप इसमें मेवे भी डाल सकते हैं.. जैसे काजू, किशमिश, इत्यादी..

क्या कहा? दाल मैंने डाली ही नहीं? अर्रर्र...... मैं तो भूल ही गया.. चलिये अब बता देता हूं.. इस मीठी वाली खिचड़ी में दाल की संपूर्ण बचत होती है.. :D

आपसे अनुरोध है कि इसे खीर कहकर मेरे नये आविष्कार को पुराना ना बतायें.. यह बस खिचड़ी देखने में खीर जैसी लगती है, मगर इसे खीर समझने की भूल आप ना करें.. मैंने तो इसके पेटेन्ट के लिये अर्जी भी डाल दी है.. जल्द ही देश-विदेश के बड़े-बड़े होटलों को इसका अधिकार बेचने की जुगत में भी लगा हूं.. ;)

Monday, March 23, 2009

प्रोफेशनल लाईफ के (अन)प्रोफेशनल लोग (अंतिम भाग)

जैसा कि मैं अपने पिछले पोस्ट में बता चुका हूं की मैं अभी जिस प्रोजेक्ट में काम कर रहा हूं उसमें शुरूवात में अनेकानेक परेशानियों का सामना करना पड़ा था.. कुछ लोग ने मेरी परेशानियों को बढ़ाने का भी काम किया तो कुछ ने उसे सुलझाने में भी मदद की.. मुझे सबसे ज्यादा मदद मिली फनिन्द्र नामक अपने सहकर्मी से..

वह जब हमारे प्रोजेक्ट में आये तब शुरूवात में कुछ दिनों तक मेरे साथ बैठकर काम किये थे.. मुझे यह भी याद है कि मैं किस कदर किसी जगह अटक जाता था और वहां से निकलने का कोई तरीका नहीं सूझता था.. और जब फनिन्द्र साथ बैठने लगे तो वह उसे सुलझाकर मुझे देते भी थे और मेरे प्रोजेक्ट लीड के सामने भी मेरी ही तारीफ करते थे कि इसी ने इस समस्या को सुलझाया है.. जबकी मेरी नजर में सारा श्रेय उन्हें ही जाता था.. कहीं ना कहीं से मेरा आत्मविश्वास भी उन छोटी-छोटी वजहों से बढ़ा, जिसका श्रेय वह आज भी लेना नहीं चाहते हैं..

आज कई बार ऐसा भी होता है कि मुझे वो किसी काम के लिये पूछते हैं तो भले ही मेरा कुछ जरूरी काम छूट रहा हो, मगर मैं उनका काम करना ज्यादा जरूरी समझता हूं.. मेरे कुछ अन्य सहकर्मी कई बार मुझसे वैसा ही उम्मीद रखते हैं जैसा मैं फनिन्द्र के लिये हूं.. मेरा सोचना यह है कि अगर शुरूवाती दिनों में मेरी मदद करने का मौका उन दूसरे लोगों को ज्यादा मिला था और उन्होंने उसके ठीक विपरीत व्यवहार करके मेरी परेशानियों को बढ़ाने का काम किया था..

फनिन्द्र उम्र में मुझसे बहुत बड़े हैं, मगर ऑफिस के नियमानुसार मुझे उनका नाम लेकर ही बुलाना पड़ता है.. जो मेरे प्रदेश के संस्कृति के अनुरूप बिलकुल नहीं है.. ऐसे में अगर मैं किसी ऑफिसियल मिटिंग में होता हूं तो ऑफिस कल्चर के मुताबिक उनका नाम लेकर बुलाता हूं, और अगर सिर्फ हम दोनों ही बातें करते हैं तो उन्हें बड़े भाई या भैया ही कहता हूं.. सर कहकर बुलाने का नियम बिलकुल ही नहीं है और उसमें मुझे औपचारिकता भी बहुत झलकता है..

इतना कुछ कह दिया मगर अभी भी कहने को बहुत कुछ है.. एक वाक्य में कहूं तो ऑफिस में मैं जो भी परफार्म करता हूं उसमें से अधिकांश का श्रेय मैं उन्हें ही देता हूं.. सारा कुछ उन्हीं से तो सीखा हुआ है.. इनकी सबसे बड़ी खूबी मुझे यह लगती है कि उनकी अपनी पसंद-नापसंद दूसरी ओर होती है, निजी तौर पर वह आपको किसी भी हद तक मदद कर सकते हैं मगर जहां प्रोफेशनलिस्म की बात आती है तो पूरी तरह प्रोफेशनल हो जाते हैं..

प्रोफेशनल लाईफ के (अन)प्रोफेशनल लोग भाग एक

Wednesday, March 18, 2009

वडनेकर जी, आपका नंबर क्या है?

कल रात अचानक से अजित वडनेकर जी की एक चिट्ठी अपने ईनबॉक्स में आया हुआ देखा.. शीर्षक कुछ "दुखद समाचार" करके था.. पढ़कर दिल घबराया, कि अचानक से क्या हो गया.. डरते-डरते कांपते हाथों से लिफाफा फाड़े और चिट्ठी निकाल कर पढ़े.. मगर पढ़कर दिल खुश हो गया.. वो कहते हैं ना, एक रोता है तो दस हंसते हैं.. अब क्यों हंसते हैं इसका तो कुछ पता नहीं मगर मेरे पास मेरे खुश होने का कारण था.. अब मुझे भी सलाह देने का मौका मिलेगा.. (मेरी टूटे टांग पर जाने कितनों का ही सलाह मिला था, तो मैं भी क्यों ना सलाह दूं?) :)

उनकी चिट्ठी का सारांश यह था की उनका सेलफोन अपनी यादाश्त खो दिया है इसलिये वह सभी परिचितों का नंबर मांग रहे थे.. हो सकता है कि उनके सेलफोन में जितने भी नंबर थे उसमें से आधे नंबर उन्हें दुबारा मिल जाये मगर कई नंबर तो ऐसे होते हैं कि एक बार चला गया सो चला गया.. दोबारा लौट कर नहीं आता है..
(बैक-ग्राऊंड से एक गीत की आवाज) "ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना.."
अब चूंकी सारे नंबर दोबारा मिलने की संभावना लगभग शून्य है सो हमें यह ऊपाय कारगर नहीं लगा.. उस चिट्ठी को पढ़ने के बाद मुझे लगा की अजित जी मुंबईया सिनेमा बहुत कम ही देखते हैं.. नहीं तो हम भारतीय लोगों को अच्छे से पता है कि अगर किसी कि यादाश्त चली जाये तो उसे वापस कैसे लाते हैं.. उनमे से भी दो फार्मूला सबसे हिट है.. हमारी सलाह है कि अजित जी कम से कम यह दो ऊपाय जरूर आजमायें.. इससे उन्हें शत-प्रतिशत नंबर हाशिल होने के चान्स बढ़ जायेंगे.. :)

फारमुला नंबर 1 -
अपने मोबाईल फोन को उन जगहों पर ले जायें जहां उन्होंने अपने सेल फोन के साथ कुछ खुशगवार पल गुजारे होंगे.. अगर किसी पार्क में अपने सेल फोन के साथ बैठकर गाने भी गाये होंगे तो और भी बढ़िया है.. सेल फोन को उस पार्क में लेजाकर उदासी भरे आवाज में उस गीत को गायें, और फिर पूछें कि "याद करने की कोशिश करो.. तुम्हें जरूर सब याद आ जायेगा.. कुछ याद आ रहा है?" इत्यादी, इत्यादी.. अगर सेल फोन की घंटी बज गयी तो समझें कि आपका प्रयोजन सफल हुआ..

फारमुला नंबर 2 -
सबसे पहले मैं यह बता देना चाहूंगा की यह ऊपाय तभी कारगर है जबकी अगर आपका सेल फोन के सर में कहीं चोट लगने के कारण अपनी यादाश्त खो बैठा हो.. अगर बिलकुल ऐसा ही हुआ है तो आप उस जगह की तलाश करें जहां आपके सेलफोन को चोट लगी थी, फिर उस जगह एक जोरदार लाठी जमायें.. सिनेमाओं से मिली सीख से मुझे पूरी उम्मीद है की विलुप्त यादाश्त शनैः-शनैः वापस आ जायेगा.. अगर यह भी काम ना करे तो बिजली का झटका देना ना भूलें.. ;)

अगर इतना करने पर भी उसकी यादाश्त वापस नहीं आती है तो अंततः आपको फोन करके आपको अपना नंबर शौंप ही देंगे.. बस एक समस्या है.. मेरे पास वडनेकर जी का नंबर तो है ही नहीं.. सो उन्हें फोन करके ही पूछना पड़ेगा, "वडनेकर जी, आपका नंबर क्या है?"

Saturday, March 14, 2009

और लवली का जन्मदिन आकर चला गया

11 मार्च को होली थी, और मुझे यह भी याद था की कल यानी 12 मार्च को लवली का जन्मदिन है.. नहीं-नहीं मुझे उस समय सिर्फ इतना ही याद था की कल लवली का जन्मदिन है.. क्योंकि अगले दिन भी मेरे दिमाग में बस इतना ही घूम रहा था की कल लवली का जन्मदिन है(मुझे अभी समझ में नहीं आ रहा है की मैं यहां मुस्कुराता हुआ स्माईली बनाऊं या उदास वाला सो दोनों ही डाल देता हूं.. ":)" ":(")

वृहस्पतिवार मेरे लिये इस साल का सबसे व्यस्ततम दिनों में से एक रहा.. दम मारने की भी फुरसत नहीं, ऊपर से मन में यह बात थी की लवली का जन्मदिन कल है.. रात लगभग 10 बजे लवली का मैसेज आया, "भैया क्या कर रहे हैं?" मैंने जवाब मैसेज से ही दिया, "काम कर रहा हूं.. आज बहुत काम है.." फिर से उधर से उसका मैसेज आया, "खाना खाये?" मैंने कहा, "नहीं.. घर जाकर खाऊंगा.." उस समय मैं बहुत तन्मयता से एक टेस्ट केस का रीव्यू कर रहा था.. अबकी बार उसका मैसेज आया, "12 बजे से पहले आपका काम खत्म हो जायेगा? वो क्या है कि आज किसी ने मुझे जन्मदिन पर आशीर्वाद नहीं दिया.."

अब जाकर मुझे याद आया कि मैं कल से कल पर ही अटका हुआ हूं मगर वह कल तो आज बन चुका है और जल्दी ही फिर से कल बनने वाला है.. मैं अपने जिस सहकर्मी के काम का रीव्यू कर रहा था उससे पांच मिनट का समय मांगा और डरते हुये फोन किया की लवली बहुत गुस्सा हो रही होगी.. मगर वह गुस्सा बिलकुल नहीं थी और बहुत बेसब्री से अपने भैया के फोन का इंतजार कर रही थी..

वैसे तो उसका जन्मदिन बीते 2 दिन हो चुके हैं मगर फिर भी मैं उसे इस पोस्ट के माध्यम से ढ़ेर सारे प्यार और आशीर्वाद के साथ अनेकानेक शुभकामनायें देता हूं.. :) आप भी चलते-चलते उसे बधाईयां देना ना भूलें.. उसके ब्लौग का पता यह रहा - संचिका

Tuesday, March 10, 2009

यादों के रंग के साथ एक होली अलग सी

सुबह उठा और अपने पांचवे तल्ले वाले घर की बाल्कनी नीचे झांका.. बेतरतीबी से गाड़ियां भागी जा रही थी, जैसे सभी फारमूला वन में भाग ले रहे हों.. धीरे धीरे गाड़ियों का शोर थमता चला गया और फिर बिलकुल बंद हो गया.. नीचे देखा तो पाया कि चार भाई-बहन आपस में ही होली खेल रहे हैं.. उनके साथ होली खेलने वाला कोई और जो नहीं था या फिर यह भी कह सकते हैं कि उन्हें होली खेलने के लिये किसी और की जरूरत ही नहीं थी.. थोड़ी देर बाद सबसे छोटा लड़का जो तीन-चार साल का था वो 'मम्मी-मम्मी' करके रोता हुआ घर में घुसने लगा, मगर मम्मी के पास ना जाकर पापा के पास चला गया.. मम्मी से डरता जो था.. उसके पापा ने उसे गोद में उठा कर पूछा कि
"क्या हुआ?"
"बाउ भैया रंग लगा दिये.."
"रंग लगा दिया? अभी उसको मारते हैं.. कहां रंग लगा दिया?"
"गाल पर.."
"इस गाल पर?" बोलते हुये उसके पापा भी इसी बहाने उसे और रंग लगा दिये..



फिर से सब कुछ धुंधला सा होने लगा था.. फिर से उसी लड़के को देखा.. वो अब कुछ बड़ा हो गया था.. लगभग आठ-नौ साल का.. रहने का जगह भी बदल चुका था.. किसी क्वार्टर जैसा लग रहा था.. हां! याद आया, यह तो सीतामढ़ी का आफिसर्स फ्लैट है.. यहां सिर्फ वही चार बच्चे नहीं थे, यहां तो बच्चों का झुंड था.. सभी लाल-हरे रंगों से पुते हुये.. बड़े अंकलों से बचते हुये, क्योंकि वे कपड़ा फाड़ होली खेल रहे थे.. मैं फिर उस बच्चे को देखने लगा.. अपने भैया और कुछ हम उम्र दोस्तों के साथ मिलकर एक गड्ढ़ा बना कर उसमें रंग भर रहा था.. गड्ढ़ा भी इतना बड़ा की किसी के घुटने तक भी रंग नहीं पहूंच पाये, मगर वे सभी पूरे जोश में गड्ढ़ा बनाये भी और उसमें रंग भरकर उसे जाने किस किस चीज से ढ़ंकने की कोशिश नहीं कर रहे थे.. जिससे शायद कोई अनजाने में वहां से गुजरे और रंग में गिर जाये.. मगर यह कभी संभव ही ना हो सका.. एक बकरी का बच्चा भी कभी उसमें नहीं फंसा..


अब फिर से एक लड़के ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींच लिया.. अपने घर की चारदिवारी पर चढ़कर वहां से जाने वालों की राह तक रहा था.. उसके साथ तीन और भी लड़के हैं.. एक तो उसका बड़ा भाई है, बाकी दो उसके मकान मालिक के बेटे हैं.. बीच-बीच में उन चारों लड़कों को घर के अंदर से नसीहते भी मिल रही हैं.. कार को गंदा मत कर देना.. सड़क सुनसान हो चुका है.. जिधर देखो उधर बस होली के हुड़दंग में डूबी लोगों की टोली ही दिख रही है.. अगर कोई छोटी टोली है तो वे चारों भी उसमें मिल कर रंग लगा रहे हैं और अगर बड़ी टोली है तो बस भाग कर घर के अंदर..


फिर से अचानक वाहनों का शोर बढ़ता चला गया.. फिर से वही भाग दौड़ दिखने लगी.. लोगों का एफ वन ड्राईवर होने का अहसास फिर से मानो जाग गया था.. या शायद मैं ही कहीं खो गया था.. बहुत साल के बाद होली से पहले मन में उत्साह आ रहा है, मगर जितना उत्साह आ रहा है उतनी ही अकुलाहट भी बढ़ती जा रही है.. एक छटपटाहट भी हो रही है.. हम तो यादों के रंग से सराबोर हैं.. शायद होली भी इसी से खेल लेंगे.. आप अपनी सुनाईये? जीवन के किन रंगों से होली खेलने का इरादा है?

Sunday, March 08, 2009

प्रोफेशनल लाईफ के (अन)प्रोफेशनल लोग

चारों तरफ होली की हुड़दंग मची हुई है तो कहीं जोगीरा सारारारा की धूम.. मगर मेरे लिये यह दोस्तों के घर जाने की खुशी और विभिन्न ब्लौग में आने वाले पोस्ट तक ही सिमट कर रह गई है.. मेरे दिलो-दिमाग पर आज कल सिर्फ और सिर्फ ऑफिस ही छाया हुआ है.. समय के साथ मुझे अब ऐसा भी लगने लगा है की मैं भी प्रोफेशनल होता जा रहा हूं.. ऑफिस के अन्य कलाबाजों कि तरह ही मैं भी कुछ पैंतरे सीखने लगा हूं.. एक ही बात जिसे हम बोलते हैं तो उल्टा असर करती है तो वहीं दूसरे तरीके से कैसे बोला जाये की सामने वाले के पास कोई भी तर्क ना बचे, यह भी धीरे-धीरे सीख रहा हूं..

आज मैं यह पोस्ट यह बताने के लिये नहीं लिख रहा हूं की मैं अनुभव के साथ कितना स्मार्ट(हिंदी का परिपक्व शब्द मुझे यहां नहीं जंच रहा है) हो रहा हूं.. सोच रहा हूं कि कुछ नये-पुराने किस्से सुनाता चलूं..

आज से लगभग सवा साल पहले मैं अपनी ट्रेनिंग खत्म करके एक तरह से बेंच पर बैठा हुआ था, और कहने को छोटे-मोटे असाईन्मेंट पर काम कर रहा था जिसे आप कहीं से भी किसी साफ्टवेयर प्रोजेक्ट पर होने वाले काम से तुलना नहीं कर सकते हैं.. काम लगभग ना के बराबर होने के कारण एक तरह से मैं डिप्रेशन का शिकार होने लगा था.. तभी मुझे उस प्रोजेक्ट का ऑफर आया जिस पर मैं अभी काम कर रहा हूं.. छोटी सी टीम.. सिर्फ पांच लोगों की.. जिसमें चार डेवेलपर थे और एक प्रोजेक्ट लीडर.. मुझमें प्रोफेशनल लाईफ की कोई समझ-बुद्धी नहीं थी तो वहीं बाकी तीनों(प्रोजेक्ट लीडर को छोड़कर) के पास 4 साल से लेकर 7 साल तक साफ्टवेयर इंडस्ट्री में काम करने का अनुभव.. हमारी टीम पूरी तरह से नयी भाषा पर काम करना सीख रही थी, और मैं स्वीकार करता हूं की मेरे सीखने की गति बाकी लोगों से धीमी थी.. कारण भी सुस्पष्ट था, मेरे और बाकी तीनों के बीच अनुभव का अंतर.. मेरे लिये यह पूरी इंडस्ट्री नयी थी तो वहीं वे तीनों इस इंडस्ट्री में काम कर करके पक चुके थे.. तीनों हमेशा साथ रहते थे, और उनके बीच क्या चल रहा है और वे क्या कर रहे हैं इसका पता मुझे टीम में रहते हुये भी नहीं होता था.. कहीं से कुछ भी मदद नहीं मिल रही थी, सिर्फ मेरे प्रोजेक्ट लीड ही थे जो समय-समय पर मेरी मदद करते थे.. यहां मैं उनकी तारीफ करना चाहूंगा की वह अपने मैनेजर होने का पूरा धर्म अच्छे से निभा रहे थे.. इसी बीच मेरे लीड को ऑन-साईट जाना पर गया, जो लगभग 15 दिनों का ट्रिप था.. उनके जाने के बाद अब एक तरफ से मुझे ना तो कुछ सीखने को मिल रहा था और ऊपर से काम का बोझ बढ़ता ही चला जा रहा था..

पिछले मार्च में मेरी एक मित्र की शादी में मुझे घर जाना था, जिसके लिये मैंने अपनी अर्जी अपने लीड के अमेरीका जाने से पहले ही दे रखी थी और वो अप्रूव भी हो चुका था.. मेरे लिये एक तरह से यह बहुत अच्छा हुआ की जब ऑफिस का वातावरण मेरे लिये असहनीय हो गया था उसी समय मैं 10 दिनों की लम्बी छुट्टियों पर चला गया और जब वापस लौटा तब मेरे लीड वापस आ चुके थे.. उसके लगभग 10 दिनों बाद मेरी टीम में एक नये डेवेलपर का आगमन हुआ.. मेरा आज का यह पोस्ट उन्हीं के नाम समर्पित है..

आज मैं इस इंडस्ट्री में रहते हुये जो कुछ भी सीखा हूं, चाहे वह टीम के भीतर की राजनीति हो या फिर काम करना, उसमें से अस्सी फिसदी भागिदारी उन्हीं का है.. बाकी बचे बीस फिसदी कईयों के बीच बंटा हुआ है.. उनका पूरा नाम है फनिन्द्र कुमार पोलावरूपू.. विसाखापतनम के रहने वाले हैं और हिंदी पर पकड़ किसी उत्तर भारतीय जैसा ही है.. इसके पीछे सबसे बड़ा कारण उनका कुछ साल खाड़ी देशों में काम करना भी रहा है और कुछ कारण कई उत्तर भारतियों से दोस्ती भी..

आगे भी है बहुत कुछ बताने को, जिस कारण यह एक ही पोस्ट में पूरा नहीं हो पा रहा है.. इसका अगला भाग आप कल पढ़ लें..

Wednesday, March 04, 2009

टूटे टांग का दर्द

मेरे पिछले पोस्ट में आपने पढ़ा होगा की किस तरह एक छोटी सी दुर्घटना में मेरे पैरों में हल्का सा सूजन आ गया था.. अगर नहीं पढ़े हैं तो यह लिंक रहा..

कई दोस्तों की सलाह मान कर मैंने डाक्टर से भी दिखा लिया और एक्स रे भी करा लिया.. मगर अफ़सोस के साथ कहना पर रहा है कि मेरे सारे पैसे बरबाद हो गये.. ये भी भला कोई बात हुई? आप कितनी उम्मीद लेकर डाक्टर के पास जाते हैं.. अपनी टांग का एक्स रे कराते हैं.. डाक्टर को भी उसकी फीस देते हैं.. एक्स रे का अलग खर्चा.. और नतीजा? सिफ़र.. कुछ भी हाथ नहीं लगता है.. कम से कम कुछ तो नतीजा निकलता.. बेचारा डाक्टर भी उदास होगा.. एक अदद फ्रैक्चर निकलने पर उसे प्लास्टर बांधने में कितनी खुशी होती.. उसे भी लगता की वह समाज के निर्माण में कितना योगदान दिया है.. और आज से कुछ साल बाद जब मैं दुनिया की जानी मानी हस्ती हो जाता तब वह बड़े शान से मेरी टूटी टांग का एक फोटो अपनी क्लिनिक के बाहर लगाता.. साथ में नीचे बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा होता, "सन् 2009 में माननीय श्री प्रशान्त प्रियदर्शी के टूटे टांग पर प्लास्टर चढ़ाते हुये, डा. अ.ब.स." मुझे अपने पैसे बरबाद होने से ज्यादा दुख उस डाक्टर को लेकर है की उसके कैरीयर में आया इतना अच्छा मौका उसके हाथ से निकल गया.. क्या किजियेगा, हमारा तो दिल ही ऐसा है.. किसी के भी दुख में दुखी हो लेते हैं..

कभी-कभी तो लगता है कि उस डाक्टर को ही कुछ नहीं आता था.. नहीं तो इतनी सारी हड्डियों में से एक फ्रैक्चर तो ढ़ूंढ़ ही निकालता.. अभी जब बस चोट की बात सुनकर ही लोगबाग मेरा हालचाल जानने को पूछ रहे हैं, तो जरा सोचिये कि फ्रैक्चर की बात सुनकर कितनी सहानुभूती बटोर लेते.. वैसे भी चुनाव के समय सहानुभूती की बहुत जरूरत होती है.. मैंने सोच लिया है कि अगली बार ऐसा कुछ होने पर डा.पूजा को जरूर दिखाऊंगा.. वो कुछ ना कुछ ऊपाय जरूर निकाल लेगी..

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चलते-चलते :

पूजा ने मेरे टूटे टांग पर बहुत बढ़िया और मजेदार बात कही.. जिसका कुछ अंश मैं यहां दे रहा हूं..

"मौका मिला है, थोक के भाव में मुफ्त की सलाह दे दूँ क्या? गाड़ी कैसे चलाते हैं कितने स्पीड पर चलाते हैं, हेलमेट पहनते हैं(तुम कहोगे की हेलमेट पांव में थोड़े पहनता) हमें इससे क्या फर्क पड़ता है...किसी की टांग टूटे लोग ख़ुशी ख़ुशी सलाहों का ढेर लगा देते हैं.

भगवान जो करता है भले के लिए करता है...कौन जाने सहानुभूति वश किसी लड़की को तुमसे प्यार हो जाए...तुम्हारी किस्मत ख़राब थी(मैं तो कहती हूँ सत्यनारायण पाठ करवाओ घर में)...आदमी को ठोका....सिंगल लेन में अक्सर लड़कियां ही चली आती हैं... सुन्दर लड़की को टक्कर मारते तो कुछ भला हो सकता था, हम इसी बहाने एक पार्टी की डिमांड रख सकते थे...मगर अफ़सोस चश्मा पहनकर भी ये हाल है.


खैर...उम्मीद है तुम्हारा पैर ठीक हो जायेगा जल्दी, चाह कर भी कुछ जरूरी सवाल करने से रोक नहीं पा रहे हैं...x रे करवा लिया है न? घर जा के दूध हल्दी पीना, दर्द में थोड़ी राहत मिलती है...बाकी लोग और भी बहुत कुछ पीने और खाने को कहेंगे उनकी बात मत मानना :)"


आज सुबह जब मैं ऑफिस आ रहा था तो मेरी कंपनी के सी.ई.ओ. मुझे लिफ्ट में मिल गये.. उन्हें देखते ही मैं समझ गया की अब वो जरूर पूछेंगे की जूता कहां है, और उन्होंने पूछ ही लिया.. "व्हेयर इज योर शू?"
मैंने कहा, "आई गॉट स्वेलिंग इन माई लेफ्ट लेग, दैट्स व्हाई आई केम इन स्लीपर.." और अपना पैंट थोड़ा सा ऊपर करके उन्हें दिखा दिया..
उन्होंने देखा और बोले, "ओह! देन नो प्रोब्लेम.. बट टेक केयर ऑफ योरसेल्फ.."
बस इतनी ही बात हुई मगर सच कहूं तो इतने में ही मेरी जान सूख गयी थी.. आखिर एक ऐसे आदमी से जो बात कर रहा था जो 800 मिलियन डॉलर वाली कंपनी के मालिक हैं और मैं उनका अदना सा कर्मचारी.. :)


कल शाम में रंजू दीदी ने मुझसे मेरे पैर का हाल पता किया.. मैंने उन्हें इसी अंदाज में अफसोस जताया की कुछ भी नहीं निकला और मेरा सारा पैसा बरबाद हो गया.. उनका उत्तर था "कमाल हो भाई तुस्सी.. :)"
चलिये कहीं से तो शुरूवात होनी थी, नहीं तो मेरे पापाजी तो मुझे अभी तक गधे का गधा ही मानते हैं.. अब मैं उन्हें कहूंगा नहीं पापाजी, मैं गधा नहीं मैं कमाल हूं.. ;) वैसे एक कंफ्यूजन अभी भी है.. कि मैं कमाल हूं या कि तुस्सी हूं.. कोई बता दो भाई.. :)

Sunday, March 01, 2009

घर जाने की छटपटाहट

शुक्रवार को ऑफिस पहूंचा.. मेरा बांया पैर पूरी तरह से सूज कर फुला हुआ था, काफी दर्द भी था.. ऑफिस में सभी मुझसे बोल रहे थे कि आज ऑफिस आने की क्या जरूरत थी? आज छुट्टी ले लेते और घर पर ही आराम करते.. दोस्तों ने पूछा तो मैंने कहा की ऑफिस में कुछ जरूरी काम था, आज वीकली स्टेटस रीपोर्ट बनाने को लेकर कुछ काम था.. और ऑफिस में किसी ने पूछा तो उन्हें कहा की घर में अकेले रह कर क्या करता सो ऑफिस आ गया..

आज ऐसे सलाह देने वालों में मेरे बॉस भी थे जो मेरी छुट्टी मंजूर करते हैं.. मगर मुझे पता है कि आज भले ही बॉस कह रहे थे की छुट्टी ले लेते, लेकिन अगर मैं छुट्टी ले लेता तो अप्रैल के अंत में होने वाले अप्रैजल में वही मुझसे यह प्रश्न पूछते की इतना छुट्टी क्यों लिये हो? पहले ही दो बार मुझसे एच.आर. के लोग यह प्रश्न पूछ चुके हैं.. उनका कहना था की तुम अपनी टीम में(जो 35 लोगों की है) अब तक सबसे जुआदा छुट्टी ले चुके हो और कोई भी तुम्हारे आस-पास भी नहीं है.. कारण भी मैंने उन्हें बताया है कि साल में अगर दो बार भी घर जाता हूं तो ऐसे ही 10-12 छुट्टियां हो ही जाती है.. उनका कहना था की यहां और लोग भी तो घर जाते हैं, मगर वे तो इतनी छुट्टियां नहीं लेते हैं.. उन्हें मैंने इसका कारण भी बताया है, कि यहां सारे लोग यहीं तमिलनाडु या आंध्र प्रदेश के हैं.. ऐसे में वो साल में चाहे जितनी बार भी घर जायें, उन्हें छुट्टियों की कोई जरूरत नहीं होती है.. साप्ताहांत कि दो छुट्टियां बहुत होती है उनके लिये.. मगर यह जवाब उन्हें पता नहीं क्यों संतुष्ट नहीं कर पाता है और ना ही मेरी इस बात को वह काट पाते हैं..

गुरूवार कि सुबह मैं ऑफिस जा रहा था, मेरे घर से कुछ दूरी पर वडापलानी सिग्नल है और उससे आगे लगभग 300 मीटर तक वन वे शुरू हो जाता है.. जैसा की चित्र में दिखाया गया है.. चित्र में जिस जगह लाल बिंदू है उस जगह एक बाईक वाले ने गलत दिशा से पूरे स्पीड में आकर मेरे पैर में ठोक दिया.. मैं गिरा तो नहीं मगर मेरे बायें पैर में कुछ चोट आयी जो उस समय कुछ पता नहीं चला कि कितना है.. मैं सीधा ऑफिस पहूंच गया और जूता खोल कर बैठ गया.. किसी तरह उस रात वापस घर भी आ गया.. मगर अब तक दर्द बहुत बढ़ चुका था.. पैर को सेंक कर और कुछ मालिश वगैरह करके सो गया.. अगली सुबहा उठकर देखा तो पैर बुरी तरह सूज चुका है और मैं हवाई चप्पल भी नहीं पहन पा रहा हूं..

घर की बहुत याद आ रही है.. घर में होता तो मम्मी पैर को सेकने के लिये पता नहीं क्या-क्या प्रयोजन करती.. कभी तेल में हल्दी मिलाती तो कभी नमक पानी से सेंकती और साथ में आयोडेक्स से भी मालिश कर देती.. मेरी गलती ना होते हुये भी पापाजी मुझे अच्छी खासी नसीहतें देते.. "कैसे गाड़ी चलाते हो? देख कर नहीं चल सकते हो? जरूर गलती तुम्हारी ही होगी.." और भी ना जाने क्या-क्या.. मगर यहां रह कर उन्हें यह बताया भी नहीं है.. बेकार का वहां बैठकर टेंशन में आते.. जितनी चोट नहीं लगी है उससे कहीं ज्यादे की कल्पना करके खूब चिंता करते.. मुझे पता है कि वे मेरा पोस्ट पढ़ते हैं और यह पढ़कर उन्हें पता भी चल जायेगा.. मगर साथ में मुझे यह भी पता है कि 3-4 दिनों तक वे यह नहीं पढ़ने वाले हैं.. किसी काम से बाहर गये हुये हैं.. और जब तक वापस लौटेंगे तब तक यह सूजन और दर्द भी या तो खत्म हो चुका होगा या फिर बहुत कम हो चुका होगा..