Sunday, October 07, 2007

एक बीता हुआ कल

आज-कल ना जाने क्यों अकेलेपन का एहसास कुछ अधिक ही बढ गया है। कहीं भी जाऊं बस खुद को भीड़ में अकेला महसूस करता हूं। मुझे चेन्नई में दो जगहें बहुत अधिक पसंद है। मुझे पढने का बहुत अधिक शौक है और मुझे जो भी मिलता है वही पढ जाता हूं, चाहे वो तकनिक से संबंधित कोई जानकारी हो या फिर साहित्य से संबंधित या व्यवसाय से संबंधित, या फिर बच्चों वाली कामिक्स हो, मेरे पसंदिदा जगहों मे से पहली जगह तो किसी शापिंग मौल के लैंण्डमार्क नामक दुकान की किताबों वाला भाग होता है और दुसरी जगह समुद्र का किनारा।

मगर आज-कल वहां जाने पर खुद को और भी अकेला पाता हूं। शौपिंग मौल मे लोगों का दिखावापन अपने चरमसीमा पर होता है और हर कोई अपनी ही दुनिया में व्यस्त रहता है। ऐसा लगता है कि दिखावापन ही जीवन में सब कुछ है। अपने उम्र के लोगों को देखता हूं की कैसे हर दिन कपड़ों की तरह बाय फ्रेन्ड और गर्ल फ्रेन्ड बदलते रहते हैं। मैं शिव शैनिकों या बजरंग दलों के लोगों की तरह ये नहीं सोचता हूं की ये सब गलत है, मेरे नजर में हर किसी का अपना निजी जीवन है और उसे वो जीवन जीने का पूरा अधिकार है। लेकिन फिर भी ऐसे माहौल में ऐसा महसूस होना स्वभाविक है।

पर आज-कल समुद्र के किनारे भी एक सूनेपन का एहसास होता है। लोग कहते हैं कि "समय और लहरें किसी का इंतजार नहीं करते हैं", पर मुझे तो ऐसा लगता है कि लहरों का सारा समय इंतजार में ही निकल जाता है। हर वक्त वो किसी का इंतजार करती नजर आती है। मानों किसी से मिलने के लिये भागते हुये किनारे तक आती है और उसे ना पा कर वापस मायूस होकर लौट जाती है। लेकिन इंतजार तो हमेशा ही बना रहता है।

आफ़िस में मैं जिस प्रोजेक्ट पर काम कर रहा था वो कल खत्म हो गया और बहुत दिनों के बाद शनिवार को मैं जल्दी घर पहूंच गया, थोड़ी देर के बाद धिरे-धिरे दोस्तों की मंडली भी जमने लगी। उन लोगों ने ये विचार किया कि बेसंत नगर वाले समुद्र तट पर चला जाये, जो मेरे घर से थोड़ा ज्यादा दूरी पर है। मैं वहां जाना नहीं चाहता था, लेकिन फिर भी दोस्तों की इच्छा का सम्मान करते हुये चला गया। वहां पहूंच कर सभी लहरों के सथ खेलने में व्यस्त हो गये.. प्रियदर्शीनी तो जैसे नहाने का मन बना कर ही आयी थी और सीधे समुद्र में उतर गयी, और उसकी देखा-देखी चंदन, चंदन की बहन, संजीव, वाणी, प्रियंका, गार्गी और शिवेन्द्रा भी लहरों में अंदर तक चले गये। विकास का मूड कुछ ठीक नहीं लग रहा था और वो बाहर ही बैठ कर सारे सामानों का रखवाली करने लग गया। और मैं बस वहां खड़ा होकर अपने विचारों में डूब गया। कभी वहां लोगों को देखकर अच्छा लग रहा था और कभी एक अजीब सा भाव मुझे घेर ले रहा था जिसे व्यक्त करना मेरे लिये संभव नहीं है। घर की बहुत याद भी आ रही थी। पापाजी से बात करने का मन कर रहा था मगर वो अभी हैदराबाद में कोई मीटिन्ग अटेन्ड करने गये हुये थे सो उनसे बात करना संभव नहीं था। मैंने घर फोन लगाया। पहले भैया से बात हुयी, मैंने उन्हें बताया की कैसे आज हमारा प्रोजेक्ट प्रसेनटेशन हुआ जो की आशा से बहुत ही अच्छा रहा। फिर लहरों की आवाज से वो समझ गये की मैं समुद्र के किनारे हूं। उन्होंने पूछा की अकेले ही गये हो क्या? मैंने कहा अकेला ही समझिये, लेकिन कहने को तो बहुत सारे दोस्त हैं। कहीं मन नहीं लग रहा है। फिर मम्मी से बात हुयी, उन्हें पहले मैंने उलाहना दिया की बड़ा बेटा घर पर है तो छोटे बेटे कोभूल जाती हो तभी 2-3 दिनों से फोन नहीं कर रही थी। तो पता चला की पिछले चार दिनों से घर का फोने खराब पड़ा हुआ था। फिर इधर-उधर की बात करके बात खत्म हो गयी।

वापस घर पहूंच कर खाना खाने का मन नहीं कर रहा था, सर भी थोड़ा भारी लग रहा था। गार्गी भी उस समय घर पर ही थी। उसने खाने के लिये पूछा, मैंने झूठ कह दिया की मैं बाहर खा कर आ गया हूं नहीं तो वो पीछे पर कर कुछ ना कुछ खिला ही देती। फिर उसे बाम पकड़ा दिया, जिसे लगाते-लगाते ही मैं सो गया। उस बीच में विकास ने गार्गी को कुछ कहा जो मुझे कुछ बुरा लगा, लेकिन मैं उस बात को लेकर ज्यादा सोचा नहीं क्योंकि मुझे पता है की जब हमारा मन कहीं नहीं लगता रहता है उस समय हर बात को लोग उल्टे तरीके से ही सोचते हैं। और उस समय मैं भी कुछ वैसी ही उहापोह से गुजर रहा था।

इस तरह सैकड़ों-हजारों शनिवार में से एक और शनिवार गुजर गया।

2 comments:

  1. अरे, यह लेखन तो मुझे अपने जैसा लेखन लगता है। भीड़ मुझे भी अकेला करती है!

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  2. maine tera exp padh liya.... achha laga

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