जनवरी, सन २००२। कड़ाके कि सर्दी पर रही थी। मेरे पापा उस समय गोपालगंज में थे सो मैं भी उनके साथ वहाँ गया हुआ था। उन दिनों मैं चाय नहीं पीता था पर उस दिन ठंढ की मस्ती में मैंने चाय कि चुस्की के साथ मुजफ़्फ़र अली का कम्पोज किया हुआ और हज़रत अमीर खुसरो का लिखा हुआ, जिसे छाया गांगुली ने गाया है, गाना बजा कर बैठ गया। उसके बोल कुछ यूं थे :
ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल
दुराये नैना बनाये बतियाँ
कि ताब-ए-हिज्राँ न दारम ऐ जाँ
न लेहु काहे लगाये छतियाँ
चूँ शम्म-ए-सोज़ाँ, चूँ ज़र्रा हैराँ
हमेशा गिरियाँ, ब-इश्क़ आँ माह
न नींद नैना, न अंग चैना
न आप ही आवें, न भेजें पतियाँ
यकायक अज़ दिल ब-सद फ़रेबम
बवुर्द-ए-चशमश क़रार-ओ-तस्कीं
किसे पड़ी है जो जा सुनाये
प्यारे पी को हमारी बतियाँ
शबान-ए-हिज्राँ दराज़ चूँ ज़ुल्फ़
वरोज़-ए-वसलश चूँ उम्र कोताह
सखी पिया को जो मैं न देखूँ
तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियाँ
तभी मेरे मोबाईल की घंटी टनटना उठी। मैंने देखा तो पाया की मेरे एक बहुत ही पुराने और बेहद अच्छे मित्र का फोन आ रहा था। किसी भी दो लोगों के बीच की दोस्ती की पहचान करनी हो तो आप ये देखिये कि उनके बीच का रिश्ता औपचारिक है या अनौपचारिक। ठीक इसी तर्ज़ पर हमारी दोस्ती भी कभी औपचारिक नहीं थी। हमलोग बचपन के मित्र थे और हम जब भी मिलते थे, हमारी लड़ाई से शुरूवात होती थी और लड़ाई पर ही खत्म भी होती थी। मैं जिसकी चर्चा कर रहा हूं उसका नाम विद्योतमा है और हम बचपन से ही एक दूसरे के बहुत ही अच्छे मित्र रह चुके हैं। इनके बारे में विस्तार से फ़िर कभी बात करूंगा, अभी मैं वापस विषय पर आते हुये उस समय के घटना की बात करता हूं।
हमने बाते करना शुरू किया और इधर गाना भी बदल गया और मैं रूबी(उसके घर का नाम रूबी है) से बात करने में रूची कम दिखाना लेने लगा। उस गीत में खोया भी कुछ ऐसा था मैं उस वक़्त। वो भी मुजफ़्फ़र अली का कम्पोज किया हुआ और हज़रत अमीर खुसरो का लिखा हुआ और छाया गांगुली का गाया हुआ था। उसके बोल कुछ यूँ थे।
फ़र्ज़ करो हम अहले वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों
फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूठी हों अफ़साने हों
फ़र्ज़ करो ये जी की बिपता, जी से जोड़ सुनाई हो
फ़र्ज़ करो अभी और हो इतनी, आधी हमने छुपाई हो
फ़र्ज़ करो तुम्हें ख़ुश करने के ढूंढे हमने बहाने हों
फ़र्ज़ करो ये नैन तुम्हारे सचमुच के मयख़ाने हों
फ़र्ज़ करो ये रोग हो झूठा, झूठी पीत हमारी हो
फ़र्ज़ करो इस पीत के रोग में सांस भी हम पर भारी हो
फ़र्ज़ करो ये जोग बिजोग का हमने ढोंग रचाया हो
फ़र्ज़ करो बस यही हक़ीक़त बाक़ी सब कुछ माया हो
उसने मुझसे पूछा की बात करने में रूची क्यों नहीं ले रहे हो? मैंने बातें बनाते हुए कहा, "मैं कुछ लिख रहा हूं"। उसने पूछा की मैं क्या लिख रहे हो और मैने पहला पैराग्राफ उसे सुनाया। फिर क्या था, वो फिर से झगड़ने लगी की मैं क्या-क्या अनाप-सनाप लिख रहा हूँ, लिखना आता भी है क्या और फिर से हमारी बातें झगड़ते हुये ही खत्म हुई। ५-६ दिनों बाद जब मैं पटना पहूंचा तो उसने मुझे अपनी लिखी हुई गज़ल दिखाई जो की उसी तर्ज़ पर लिखी हुई थी जो मैंने उसे सुनायी थी।
यहाँ इतनी भूमिका बांधने का कारण बस आप लोगों तक वो गज़ल पहूंचाना था जो की उसकी लिखी हुई है। और अब आप ही अपनी राय दीजीये कि उसकी लिखी हुई गज़ल कैसी थी।
फ़र्ज़ करो हम अहले वफ़ा हों,
फ़र्ज़ करो दिवाने हों...
फ़र्ज़ करो ये दोनों बाते,
झुठे हों अफ़साने हों...
बस इतना तो मानो,
दिल है एक दर्द भरा...
चले आना पास हमारे,
जब दर्दे दिल आजमाने हों...
फ़र्ज़ करो कि उनकी आँखों में,
इल्तजाओं के सामियाने हों...
फ़र्ज़ करो कि उनको मनाने के,
यही सारे बहाने हों...
मगर दिल कहता है कि,
बस यही आलम रह जाए...
शायद उनकी इसी अदा के,
हम और भी दिवाने हों...
फ़र्ज़ करो कि वो,
खुद की अदाओं से बेगाने हों...
फ़र्ज़ करो कि उनकी आँखे,
सचमुच के मयखाने हों...
कभी राह में मिल जाएँ तो,
कहना कि हम प्यासे हैं...
चले आएँ वो पास हमारे,
उन्हें जिस क़दर भी पिलाने हों...
पढकर ऐसा लगा मानो, जो अमीर खुसरो से छुट गया था उसे इसने पूरा कर दिया। आज रूबी की शादी हो चुकी है और वो कहाँ है ये मुझे पता नहीं है, पर मुझे पता है की हम अगर फिर कभी मिलेंगे तो उस समय भी हमारी दोस्ती वैसी ही रहेगी जैसी की अब-तक थी।
खैर ये चिट्ठा काफी लम्बा हो चुका है और मैं अब अनुमति चाहूंगा। धन्यवाद...