Wednesday, March 27, 2013

सलाहें

"कहाँ घर लिए हो?"
"जे.पी.नगर में."
"कितने में?"
"1BHK है, नौ हजार में"
"तुमको ठग लिया"
सामने से स्माइल पर मन ही मन गाली देते हुए, "साले, जब घर ढूंढ रहा था तब तेरी सलाह कहाँ गई थी? इतना ही है तो अभी भी इससे कम में उसी आस-पास में ढूंढ कर दे दो. मेरा क्या है, मेरा तो पैसा ही बचेगा"

फिर से -
"कहाँ घर लिए हो?"
"जे.पी.नगर में."
"कितने में?"
"1BHK है, नौ हजार में"
"अकेले रहते हो तो इतना पैसा क्यों बर्बाद कर रहे हो? किसी PG में क्यों नहीं ढूंढ लेते हो?"
फिर से मन में गाली देते हुए, "पैसा मैं कमाता हूँ, घर में मैं रहता हूँ, घर का किराया मैं देता हूँ, तो तुम्हें क्या दिक्कत है हज़रत? कोई PG चलाते हो क्या? या किस PG वाले कि एजेंट हो?"

फिर से -
"कहाँ घर लिए हो?"
"जे.पी.नगर में."
"कितने में?"
"1BHK है, नौ हजार में"
"और ऑफिस कहाँ है?"
"वहीं पास में, घर से आधे किलोमीटर पर"
"चार किलोमीटर दूर ले लेते तो दो हजार कम लगता"
फिर से मन में सोचते हुए, "और उसके साथ दो घंटे के ट्रैफिक का धुवाँ और धूल भी मुफ़्त में ही मिलता + दो घंटे बर्बाद अलग से, आपको आपकी अपनी धूल मुबारक़, हमें अपना बचा हुआ समय मुबारक़."

फिर से -
"कहाँ घर लिए हो?"
"जे.पी.नगर में."
"कितने में?"
"1BHK है, नौ हजार में"
"कितना अडवांस लिया?"
"साठ"
"थोडा और निगोसिएट करना चाहिए था तुमको"
मन में सोचते हुए, "जब घर ले रहा था तब भी तुम सबको पता था. जब इतनी ही चिंता थी तो तभी आकर खुद निगोसिएट करके कम में अडवांस तय करवा देते"

दोस्तों को मेरी सलाह है, मुफ़्त की सलाह अपने ही पास रखें. मुझे पता है कि मैं क्या कर रहा हूँ.
PS : पिछले दो महीनों में ऐसी कितनी ही बातें सुन-सुन कर पक चुका हूँ. अगर आप मदद कर सकते हैं तो सलाह दें, वरना अपनी सलाह अपने मुंह में ही रखें.

Friday, March 15, 2013

ज़िन्दगी जैसे अलिफ़लैला के किस्से

अभी तक इस शहर से दोस्ती नहीं हुई. कभी मैं और कभी ये शहर मुझे अजीब निगाह से घूरते हैं, मानो एक दुसरे से पूछ रहे हों उसका पता. सडकों से गुजरते हुए कुछ भी अपना सा नहीं लगता. पहचान होगी, धीरे-धीरे, समय लगेगा यह तय है.

चेन्नई को समझने के लिए कभी इतना समय नहीं मिला. ज़िन्दगी बेहद मसरूफ़ थी और मन में भी पहले से बैठे कई पूर्वाग्रह थे, और वे सभी पूर्वाग्रह मिल कर एक ऐसा कोलाज तैयार कर चुके थे जिसमें दोस्ती का कोई सवाल ही ना था. मन में यही था कि जब तक यहाँ रहना है तब तक समय गुजार लो. फिर कौन देखने आया है? यूँ भी अपनी-अपनी जड़ों से कट कर यायावरों सी ही ज़िन्दगी तो गुजार रहे हैं हम जैसे सभी लोग, जो नौकरी कि तलाश में घर से निकल आये थे कभी! अब तो ना अपनी जगह अपनी सी लगती है और ना ही वो जगह जहाँ उस वक़्त हम होते हैं. अपनी जड़ों से कटने कि भी सजा तय है मानो, उम्र कैद!!! ताउम्र ऐसे ही भटकने कि सजा.

मगर यह भ्रम तब टूटा जब चेन्नई छूट रहा था. फेसबुक पर भैया मुझे टैग करके लिखे थे "प्रशान्त का हाल बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए वाला है". लगा कि हमारी दोस्ती तो हो चुकी थी. कब कैसे ये कुछ पता नहीं. २५ जनवरी को दफ्तर में आखिरी दिन था और एक्जिट प्रोसेस का फॉर्म मेरे पास २४ को ही आ चुके थे. जैसे ही मेरे दफ्तर के ईमेल अकाउंट में एक्जिट प्रोसेस का फॉर्म आया वैसे ही लगा जैसे कुछ छूट रहा हो. मन मानने को तैयार नहीं कि जिस शहर से मैं बस भाग जाना चाहता था उस शहर के छूटने पर तकलीफ भी हो सकती थी, मगर यही सच था. वो शहर जिसने मुझे कभी दुत्कारा नहीं, हमेशा लाड-प्यार से रखा. मगर बदले में मुझसे घृणा ही पाया.

शुरू के छः महीने, या ये कहें कि पांच महीने चेन्नई में सिर्फ नाम मात्र को हम(शिवेंद्र और मैं) होते थे. ऑफिस के दिनों में मैन्सन से ऑफिस और ऑफिस से मैन्सन. बस. और जैसे ही साप्ताहांत आया वैसे ही चेन्नई से वेल्लोर. वहां शिवेंद्र होस्टल में ना रह कर बाहर एक कमरा ले रखा था, जो बाद में उसका कमरा कम और हम दोस्तों का ऐशगाह ज्यादा बना रहा. तो चेन्नईसे वेल्लोर जाने के बाद हम वहीं ठहरते थे.

अमूमन हम जब भी चेन्नई से वेल्लोर जाते थे तब शायद ही कभी हमारी टिकट चेक हुआ हो. मगर एक बार कि घटना है, हम टिकट के लिए लाइन में लगे हुए थे, और ट्रेन बस खुलने ही वाली थी. हमने देखा कि ट्रेन खुल रही है, बस उसी वक़्त हमने तय किया कि टिकट तो वैसे भी कोई चेक करता नहीं है, सो पकड़ लो, वरना अगली गाडी तीन घंटे बाद है. जीवन में सिर्फ एक ही दफे बिना टिकट यात्रा करते पकड़ा भी गया था. इन्टर्न करने वाले और उससे मिलने वाले स्टाइपेंड के पैसे से जीने वाले के पास पैसे आमतौर पर नहीं हो होते हैं, मगर संयोग से पास में पैसे थे नहीं तो खुदा ही मालिक होता.

मैं ठहरा सामिष, और शिवेंद्र निरामिष. अब इसी नॉन-वेज को लेकर भी उसी पांच महीने में दो मजेदार घटनाएं घटी. पहली घटना तब जब हमारे कुछ मित्र किसी इंटरव्यू के लिए चेन्नई आये हुए थे, और उनके जाते समय हम उन्हें छोड़ने चेन्नई सेन्ट्रल पर आये. रात के साढ़े आठ या नौ बज रहे थे. मुझे छोड़ सभी भूखे भी थे और ट्रेन खुलने में कुछ समय भी था. मैं दफ्तर के पास ही शाम में कुछ खाया था. वहीं पास के एक बिरयानी स्टाल से सभी ने अपनी-अपनी सुविधानुसार बिरयानी लिए, कोई अंडा बिरयानी तो कोई चिकेन बिरयानी और कुछ वेज बिरयानी. उन्हें देने के बाद वो स्टाल भी बंद हो गया. शिवेंद्र ने एक चम्मच ही खाया और मुझे जबरदस्ती बहुत अधिक इंसिस्ट करते हुए खाने के लिए कहा. बोला कि बहुत शानदार बिरयानी है, थोडा टेस्ट कर लो. मैंने जैसे ही टेस्ट किया मुझे चिकेन का टेस्ट आया, समझ गया कि वेज बिरयानी में चिकेन ग्रेवी डाला गया है. मैं जबरदस्ती उससे छीन कर सारा खा गया, मगर उसे कुछ बताया नहीं. इस बाबत उसकी गालियाँ मुझे तब तक सुननी पड़ी जब तक मैंने उसे सारा हाल नहीं बताया. उसे इस बात को लेकर मैं अभी तक चिढाता हूँ.

दूसरी घटना उस जगह कि थी जहाँ हम रोज रात में खाना खाने जाते थे. वहीं पास में स्टेडियम था जहाँ अक्सरहां क्रिकेट मैच हुआ करता है. हम जहाँ खाते थे वो छोटा सा होटल एक पंजाबी दम्पति का था. बाद में उन्होंने ने ही बताया कि वो निःसंतान भी थे, सो ढेर सारे पैसे का कोई मोह नहीं था और इसलिए वो सिर्फ रात में ही होटल खोलते थे. वर्ना उनका होटल हम जैसे उत्तर भारत से आये लड़कों कि वजह से खूब चलता था. वहां फुल्के वाली रोटी तीन रुपये कि थी और कोई भी दाल या सब्जी पंद्रह रुपये की. लगभग एक समय का भोजन तीस रुपये में अच्छे से हो जाता था. नॉन-वेज के नाम पर वो सिर्फ अंडाकड़ी रखते थे. वो तीस रुपये में दो अंडे के साथ मिलता था. वो शायद २००७ का अप्रैल का महिना था. हमें एक-डेढ़ महीने में ही अपना इन्टरन का प्रोजेक्ट ख़त्म करके वापस घर जाना था और फिर जून में वापस आना था. शिवेंद्र बहुत तृप्त होकर मुझसे कहता है, "अंकल-आंटी के खाने का एक और फायदा है, ये लोग साफ़-सफाई पर बहुत ध्यान देते हैं. वेज और नॉन-वेज को कभी मिक्स नहीं करते हैं." उस दिन मैंने खुद के लिए अंडाकड़ी मंगाया था. हमारे ठीक सामने अंकल सब्जी और अंडाकड़ी निकाल रहे थे और आंटी रोटी बना रही थी. अंकल ने पहले अंडाकड़ी निकाला और फिर उसी चम्मच से सब्जी भी निकाल कर सामने रख दिए..बेचारा शिवेंद्र कहे तो क्या कहे? बस अंकल को बोला सब्जी दुसरे चम्मच से निकाल कर दो. मगर यह भी समझ गया कि पता नहीं कितनी बार वो ऐसे ही खा चुका होगा.

खैर, ज़िन्दगी के ये किस्से भी तो अलिफ़लैला के किस्सों से अलग नहीं ही होते हैं. हर दिन हम गर गौर से देखें तो एक नया किस्सा निकल आता है. फिलवक्त के लिए अलविदा.

Wednesday, March 13, 2013

शहर

बैंगलोर कि सड़कों पर पहले भी अनगिनत बार भटक चुका हूँ. यह शहर अपनी चकाचौंध के कारण आकर्षित तो करता रहा मगर अपना कभी नहीं लगा. लगता भी कैसे? रहने का मौका भी तो कभी नहीं मिला था. २००५ में पहली दफे इस शहर में आया था, शायद जुलाई का महिना था वह. और लगभग साढ़े सात साल बाद बसने कि नियत से इस साल जनवरी में आया.

अभी भी लगता है जैसे कल कि ही बात थी. कालेज के दिनों में पहली बार अपने दो दोस्तों के साथ यहाँ आया था, इरादा कुछ तफरी करने का था. वेल्लोर से बैंगलोर. जब २००५ जुलाई कल कि बात लग सकती है तो २००७ जनवरी तो उससे भी अधिक नजदीक का मामला है. २००६ दिसंबर में जयपुर दीदी के घर गया था, ठीक ३१ दिसंबर को रेल से चेन्नई उतरा. कहने को तो उससे पहले भी चेन्नई से होकर गुजरने का मौका मिला था, मगर रेल से होकर ही निकल लेता था. हाँ, जब पहली दफे वेल्लोर जा रहा था कालेज में एडमिशन के लिए तब चेन्नई एयरपोर्ट से चेन्नई सेन्ट्रल तक का रास्ता टैक्सी में तय किया था. मगर तब घबराहट रास्तों को और उस शहर को देखने अधिक थी.

जब भी चेन्नई होते हुए वेल्लोर जाता था तब सिर्फ इतना ही समझ में आया था, कि जिस स्टेशन पर गाड़ी के रुकते ही पसीने से तर-ब-तर हो जाओ, वही चेन्नई है.

३१ दिसंबर को चेन्नई उतरने के बाद शिवेंद्र का इन्तजार थोड़ी देर किया. वह वेल्लोर से चेन्नई आया था. २ जनवरी को हमें अपनी पहली नौकरी ज्वाइन करनी थी चेन्नई में, मगर उससे पहले रहने का ठिकाना भी तलाश करना था. फिर तो हमारे लिए बेहद अजीबोगरीब नामों का सिलसिला ही निकल पड़ा, जिसमें सबसे पहला नाम "चुलाईमेदू" था. एक सीनियर ने हमें बताया था कि वहीं रहते हैं, और उनके ही मैन्सन में हमारा भी इंतजाम हो जाएगा, जो कि ना हो सका. और फिर उसके बाद तो एक झड़ी सी लग गई ऐसे नामों की. जैसे कोयम्बेदू, त्यागराया(जिसे अंग्रेजी में Thyagaraya लिखते हैं और हम उत्तर भारत के लोग उसे "थ्यागराया" पढ़ते हैं, टी नगर में टी का मतलब यही है), ट्रिप्लिकेन, वरासलावक्कम, नुगमबक्कम, केलाबक्कम, पैरिस, थोरईपक्कम.. खैर हमें इतना ही समझ आया कि चेन्नई में जगहों का नाम कुछ "अक्कम-बक्कम" टाईप होता है और बैंगलोर में "हल्ली-पल्ली" टाईप.

एक और नई बात पता चली कि यहाँ PG को लोग मैन्सन कहते हैं. सच कहूँ तो मुझे उस वक़्त तक पता नहीं था कि मैन्सन का मतलब क्या होता है? मुझे बाद में शब्दकोष का सहारा लेना पड़ा था. खैर!! जब चुलाईमेदू में ना मिला तो फिर कुछ ने सलाह दी कि टी नगर में ढूंढो, वहां मिल जाएगा. खैर वहां भी ना मिला, मगर वहां ढूँढने के चक्कर में चेन्नई के एक ऐसे इलाके का पता चला जिसे देख कर हम दंग रह गए थे. हम कोडम्बक्कम से लोकल लेकर माम्बलम में उतरे, जो कि टी नगर का लोकल स्टेशन है, और जैसे ही स्टेशन से बाहर निकलने वाली गली में घुसे, लगा जैसे ग़दर मचा हुआ हो. एक लम्बी से गली, उसमें जितने दूकान, उन सब का नाम सर्वणा स्टोर, और लोग ऐसे धक्कम धक्का मचाये हुए जैसे आज ना लिए तो कल कुछ नहीं मिलेगा. जैसे कर्फ्यू लगने के बाद थोड़े समय कि ढील दी गई हो लोगों को खरीददारी करने के लिए. हम पहली बार चेन्नई कि गर्मी को देख रहे थे, उसमें भी ऐसी जगह आ गए थे. वह तो बाद में पता चला कि सालों भर उस जगह का यही हाल रहता था.

फिर वहीं किसी ने कहा कि ट्रिप्लिकेन चले जाओ, वहां जरूर मिल जाएगा. वहां मिल भी गया. और वो भी मुश्किल से दस-पंद्रह मिनट के मशक्कत में ही. वहां जाने पर ऐसा लगा जैसे दिल्ली के मुनिरका या कठबरियासराय-जियासराय वाले इलाके में आ गए हों. माहौल वैसा ही, सिर्फ एक ही भाषाई अंतर मिला, अलबत्ता सब एक बराबर. हाँ, यहाँ कि सड़के कठबरियासराय-जियासराय से अधिक चौड़ी थी. मेरा यह यकीन और पुख्ता हो चला कि सारे शहर का मिज़ाज एक सा ही होता है, बाहर से चमचमाती दिखती महानगर अंदर से ऐसे ही इलाकों में गरीबी में गिजगिजाती है, जहाँ अधिकांश नौकरी करने वाले अथवा पढने के लिए बड़े शहर में आने वाले युवा रहते हैं. शहर के अभिजात्य वर्ग ऐसे इलाकों को नफ़रत से देखती है, मगर शहरें संभली होती हैं ऐसे ही बिगड़े हुए इलाकों से.