Saturday, November 12, 2011

लफ्ज़ों से छन कर आती आवाजें

१ -
वो काजल भी लगाती थी, और गर कभी उसका कजरा घुलने लगता तो उसकी कालिख उसके भीतर कहीं जमा होने लगती.. इस बदरा के मौसम में उस प्यारी की याद उसे बहुत सताने लगती है.. काश के मेघ कभी नीचे उतर कर किवाड़ से अंदर भी झांक जाता.. ये गीत लिखने वाले भी ना!!
(कहाँ से आये बदरा गीत के सन्दर्भ में)

२ -
समय बदल गया है, जमाना बदल गया है,
एक हमहीं हैं जो सदियों पुराने से लगते हैं..

३ -
तुम अब भी, यात्रारत मेरी प्यारी,
अब भी वही इन दस सालों बाद,
धंसी हुई हो मेरी बग़ल में, किसी भाले की तरह..
(मुझे याद नहीं, मेरी ही लिखी हुई या फिर कहीं का पढ़ा याद आ गया हो)

४ -
मैं उस असीम क्षण को पाना चाहता हूँ जब इस दुनिया का एक-एक इंसान यह भूल जाए की मेरा कोई अस्तित्व भी है.. और अवसाद के उस पराकाष्ठा को महसूस करना चाहता हूँ...

५ -
लेकिन वह दोपहर ऐसी न थी कि केवल चाहने भर से कोई मर जाता..
[निर्मल वर्मा कि एक कहानी से]

६ -
होश से कह दो, कभी होश आने ना पाए.
एक मदहोशी का आलम बना है अभी अभी...

७ -
लगता है जैसे एक सपना सा बीता था या कोई फ्लैश सा चमका हो.. मैं भी तो अभी फ्लैश बैक में ही जी रहा हूँ! एक अकथ पीड़ा जैसी कुछ!! जीवन में अचानक से ही अनेक घटनाएं घट जाने पर उसी तरह उन सभी बातों का मूल्यांकन कर रहा हूँ जिसका कोई मूल्य निर्धारित ना किया जा सके, सभी चीजें वैसी ही दिख रही है जिस तरह अचानक किसी निर्वात में हवा के भरते समय सनसनाहट की सी आवाज होती है.. या फिर किसी घटना से आश्चर्यचकित सा होकर कोई उन सारे घटनाओं से परे हटकर, किनारे पर बैठ कर जैसे माझी को नाव खेते हुए देखता हो..

८ -
कई दिनों से इन्द्रधनुष की तलाश में हूँ. सुना है उसके दोनों छोर, जहाँ से वह धरती से मिलता है, वहाँ खुशियाँ ही खुशियाँ पायी जाती है.. यह मूवा इन्द्रधनुष भी तो यहाँ निकलता नहीं है..

९ -
गुमे हुए लोगों की उम्र कभी बढती नहीं है, वे हमेशा वैसे ही होते हैं जैसा उन्हें आखिरी दफ़े देखा गया होता है..
आपकी यादों में...

१० -
कभी-कभी सोचता हूँ कि अपनी लिखी डायरी को एक दिन नष्ट कर दूँ, नहीं तो अगर किसी दिन वह दुनिया के हाथ लग गई तो सारी दुनिया जान जाएगी की मैं किस हद तक का नीच, कायर और डरपोक इंसान था, एक ऐसा इंसान जो खुद को धोखे में रखने कि बीमारी से ग्रसित था..

११ -
वह एक ऐसा शहर था जिसका अँधेरा मुझे कभी भयभीत नहीं करता था. उसकी भीड़-भाड़ कभी मन को विचलित नहीं करती थी. उसके बारे में मैं वैसे ही सुना करता था जैसे बचपन में दादी-नानी से बच्चे भूत-प्रेत, राजा-रानी और परियों की कहानियां सुनते हैं, पूरी बेचैनी के साथ, पूरी श्रद्धा के साथ.

उस शहर में रहने वाले लोगों से अक्सर मुझे रश्क होता आया है, मेरे लिए यह जानना भी दिलचस्प होगा की उस शहर में रहने वाले लोग किसी दूसरे शहर, कस्बे अथवा गाँव के बारे में ठीक वैसा ही सोचते होंगे, जैसा मैं उस शहर के बारे में. और वे भी ऐसे ही इर्ष्या करने को मजबूर कर दिए गए होंगे उन जगहों में रहने वालों के बारे में..

१२ -
वो भी ठीक ऐसी ही रात थी.. सुबह चार बजे तक जगा हुआ था, और आज भी ढाई बज चुके हैं.. बस उस दिन "मौसम" जैसी कोई सिनेमा साथ नहीं थी...

देखो ना, देखते ही देखते पूरे दस साल गुजर गए. मगर लगता है ऐसे जैसे कल ही की तो बात थी, फिर खुशगंवार पांच साल और अवसाद के पांच साल भी तो आज साथ हैं सुबह के चार बजाने को......

१३ -
अतीत कभी आपका पीछा नहीं छोड़ती है. आप कितना भी बच कर निकलना चाहें, मगर यह पलट कर वापस आती है और पिछले हमले से अधिक जोरदार हमला करती है. अवसाद के पहले चरण की शुरुवात यहीं से होती है, और अंत का कहीं पता नहीं..

१४ -
कुछ यादें हैं, धुंधली सी.. जैसे कोई भुला हुआ गीत, जिसके सुर तो याद हों, मगर बोल याद नहीं.. जैसे कोई भुला हुआ स्वर, जिसकी आवाज याद हैं, मगर बोलने वाले का चेहरा याद नहीं.. जैसे कोई प्रमेय, जिसका हल तो याद हैं, मगर प्रश्न नहीं.. जैसे कोई खंडहर, जिसके दरख़्त तो याद हैं, मगर उसका पता याद नहीं... यादें जो आती हैं, खो जाती हैं... अधूरी यादें.. यादों को कभी अधूरा नहीं रहना चाहिए, तुम्हारे प्यार की तरह.. उसका भी एक अंत होना चाहिए, मेरे प्यार की तरह..


पिछले कुछ महीनों में फेसबुक पर अलग-अलग मूड में लिखे गए अपडेट्स का लेखा-जोखा.

Sunday, November 06, 2011

कहाँ जाईयेगा सsर? - भाग ३

दिनांक २३-११-२०११

सबसे पहले - मैंने गिने-चुने लोगों को ही बताया था कि मैं घर, पटना जा रहा हूँ.. घर वालों के लिए पूरी तरह सरप्राईज विजिट.. अब आगे -

मेरे ठीक बगल में एक लड़का, जिसकी दाढ़ी के बाल भी अभी ठीक से नहीं निकले थे, बैठा हुआ था.. वो काफी देर से मेरे DELL Streak को बालसुलभता से देख रहा था.. मगर बात नहीं कर रहा था.. अजनबियों से बात ना करने की सीख सबसे अधिक फ्लाईट में ही निभाई जाती है, जिसकी वजह से ही मुझे फ्लाईट की यात्रा सबसे उबाऊ यात्रा लगती है.. खैर, मैं ही बात शुरू की, और बात शुरू होने पर सबसे पहले उसने मेरे मोबाईल के बारे में ही पूछा.. बात आगे बढ़ने पर पता चला की वह दिल्ली के किसी स्कूल में बारहवीं का छात्र है और दिवाली कि छुट्टियाँ मनाने बिहारसरीफ जा रहा है.. मैंने आश्चर्य से पूछा की इतनी रात गए तुम पटना से बिहारसरीफ कैसे जाओगे तो उसने बताया की मम्मी आई हुई है उसे लेने के लिए.. उस वक्त मैं सोच रहा था कि 16-17 साल का यह लड़का दिल्ली से पटना कि यात्रा फ्लाईट से पूरी कर रहा है, और वह भी दिवाली के वक्त जब दिल्ली से पटना की फ्लाईट दस हजार से ऊपर चल रही है.. अधिक वक्त नहीं बीता है, बामुश्किल दस-पन्द्रह साल.. मगर हमारे समय में मैंने अपने किसी भी मित्र को थर्ड एसी में भी यात्रा करते नहीं देखा था उस उम्र तक..

किन्ही वजहों से फ्लाईट कुछ देर हो चुकी थी और शायद रनवे खाली ना होने के कारण से लगभग आधे घंटे और तक रात के समय पटना देखने का मौका मिलता रहा.. कुछ देर में ही पटना में फ्लाईट लैंड कर चुकी थी.. मैं अपना सामान लेकर बाहर निकल रहा था तभी अभिषेक का फोन आया, मैं उससे बाते करते हुए बाहर आया और सारे टैक्सी-ऑटो वाले मेरे कानों के पास आकर चिल्लाने लगे "कहाँ चलिएगा सsर?" पहली बार उन्हें इशारों से बताया की रुको, अभी फोन पर बात कर रहा हूँ.. वे चुप नहीं हुए तब दुबारा बताया.. फिर भी वे चुप नहीं हुए तो खीज कर अभिषेक को होल्ड पर रख कर लगभग उन पर चिल्लाने ही जा रहा था कि अंतरआत्मा से आवाज आई "शांत गदाधारी भीम, शांत" और उनसे पूछा, "पहले फोन पर बात तो खत्म करने दो दोस्त".. वे भी एक अच्छे दोस्त की तरह बात एक बार में ही मान गए.. :)

अभिषेक से बात करके मूड फ्रेश हो चुका था.. अब उन ऑटो-टैक्सी वालों से बात करने की बारी थी..
- कहाँ जाईयेगा सsर? चलिए ना टैक्सी में ले जायेंगे..
- नहीं-नहीं.. टैक्सी नहीं, ऑटो नहीं है क्या?

यह सुनते ही दो बंदे बीच में कूद पड़े और पहला वाला निराश हो कर दूसरे ग्राहक की तलाश में निकल लिया..
- हाँ हाँ, चलिए ना..
- तुम क्या ले जाओगे, सsर हमरे साथ चलेंगे.. कहाँ जाईयेगा?
- लाल बाबू मार्केट, शास्त्रीनगर..
- चलिए ना..
"चलिए ना"
बोलकर मेरा सामान पकड़ने लगा.. मैंने रोककर पूछा "कितना लोगे?" और साथ ही इस शहर से अनजान बनने का नाटक करते हुए अगला सवाल भी रख दिया "कितनी दूर है? जादे है का?"
- साढ़े तीन सौ..
उसका कहना था और मेरी हंसी छूट गई..
- साढ़े तीन किलोमीटर का साढ़े तीन सौ..
- सsर, जब जानते हैं त काहे पूछते हैं?

झेंपते हुए वो बोला.. खैर, खूब मोल-मोलाई(मोल-भाव) हुआ और पचास रूपया में वह तैयार हो गया.. :)

Saturday, November 05, 2011

यह लठंतपना शायद कुछ शहरों की ही बपौती है - भाग २

जब कभी भी इन रास्तों से सफ़र करने का मौका मिला हर दफ़े एक अजब सा लठंतपने को देखने का मौका भी मिला, मगर उसी लठंतपना का ही असर बाकी है जो मुझे पटना की ओर खींचता है.. चेन्नई से देल्ली तक का सफ़र वही आराम से और सुकून भरा था, मगर देल्ली से!! सुभानल्लाह.. दिल्ली उतर कर मुझे दूसरी फ्लाईट पकडनी थी.. दिल्ली में फ्लाईट डोमेस्टिक एयरपोर्ट पर लैंड किया, और मुझे वहाँ से टर्मिनल 3 पर जाना था.. समय पास में लगभग तीन घंटे का था.. एयरपोर्ट बस सर्विस का लाभ उठाया और पहुँच गया वहाँ.. टिकट लेने से लेकर चेक-इन तक हर काम समय पर और ठीक तरीके से मुकम्मल हुआ.. अब समय था उस लठंतपने का सामना करने का.. जिस दरवाजे से फ्लाईट पकड़ने था वहाँ कतार का कोई अत पता नहीं था.. फिर मैंने ध्यान दिया तो पाया की कुछ शहरों के लिए जाने वाली उड़ान के लिए कतारों का कोई मतलब ही नहीं था, मानों हम सब इन बातों से ऊपर उठ चुके हों.. :) उन शहरों का नाम नहीं लूँगा, मगर यह जरूर बताना चाहूँगा की उनमें हर एक नाम उत्तर भारत का ही है..

एक मजेदार घटना, जो ठीक अभी अभी घटी.. "एक जानकारी - हवाई जहाज के उड़ान भरते समय सभी सीटों को सीधा कर लेने के लिए कहते हैं.." अब घटना - मेरे ठीक पीछे वाले महाशय को एयर होस्टेज दो दफ़े समझा कर गई की अपनी सीट सीधी कर लें.. तीसरी बार का मौका उन्होंने नहीं दिया और खुद ही सीट सीधा कर लिया.. अब जब हमारा जहाज उड़ान भर चुका था तब मैंने अपनी सीट को हल्का पीछे की ओर झुका लिया.. ओ भाईसाब!! मत पूछिए, किसी स्कूली बच्चे की तरह उनका व्यवहार हुआ.. तुरंत टीचर को, मेरा मतलब एयर होस्टेज को बुलाकर शिकायत की गई.. तब उसने उन्हें कहा की आप भी अपनी सीट अब झुका सकते हैं.. भाईसाहब ने कुछ कहा तो नहीं, मगर उनका चेहरा देखने लायक ही होगा, चूँकि वो मेरे ठीक पीछे बैठे थे सो मैंने पीछे मुड कर उनका चेहरा देखना मुनासिब नहीं समझा..

शीघ्र ही पटना की सीमा रेखा को भी हवाई जहाज छूने लगा.. पटना की सडकों की रोशनी को देखते ही लगभग चीख पड़े वह "पटना में ढुक गए".. उनके बगल में बैठे उनके साथ के लोग उन्हें शांत कराये की भाई, इतना एक्जाईटेड(एक्साईटेड) क्यों हो रहे हैं!! शुक्र मना रहा हूँ की वे इसे नहीं पढ़ रहे हो.. वो मेरे ठीक पीछे बैठे हैं.. :)

खैर उतरते समय मैंने उनका शक्ल देखा तो पाया की सत्तर के आस-पास की उम्र रही होगी उनकी..

Friday, November 04, 2011

एक सफ़र और जिंदगी में - भाग १

दिनांक २३-११-२०११



अभी चेन्नई से दिल्ली जाने वाली हवाई जहाज में बैठा ये सोच रहा हूँ की दस महीने होने को आये हैं घर गए हुए और आज जाकर वह मौका मिला है जब बिना किसी को बताए जा रहा हूँ.. मगर जाने क्यों मन बेहद उदास सा हुआ जा रहा है.. इस उदासी की वज़ह भी पता नहीं.. हाँ यह तो यक़ीनन कह सकता हूँ की अवसाद कि कोई रेखा मन में कहीं नहीं है, मगर जितना उत्साह जरूरी है वह नहीं आ पा रहा है.. फिलहाल गाना सुनते हुए यह टाईप कर रहा हूँ जिसमें एक पंक्ति जो अभी चल रही है - "देखूं, चाहे जिसको, कुछ-कुछ तुझ सा दिखता क्यों है.. जानू, जानू ना मैं, तेरा मेरा रिश्ता क्यों है.. कैसे कहूँ, कितना बेचैन है दिल मेरा तेरे बिना.." शायद पिछले पांच-छः दिनों से ठीक से नींद पूरी नहीं कर पाया था इसलिए मन और शरीर दोनों ही थका हुआ सा है.. यही हो तो अधिक अच्छा हो.. खैर.. अभी तो सफ़र की शुरुवात हुई है, उम्मीद है यह जिंदगी के सफ़र सा मायूस सफ़र ना साबित हो.. आमीन!!!!!