Wednesday, March 30, 2011

क्रिकेट, फेसबुक और दीवाने लोग

पिछले एक-दो सालों से तुलना करने पर ब्लॉग पर लिखना आजकल बहुत कम हो गया है.. एक तरह से मेरे लिए इसका स्थान फेसबुक ने ले लिया है.. वहाँ ब्लॉग की तुलना में लोगों से वार्तालाप भी बेहद आसान है, और मेरे लिए किसी माइक्रो ब्लोगिंग से कम नहीं.. फिलहाल तो आज की इस जीत पर मेरे दोस्तों के जो कुछ अपडेट्स आये हैं उन्हें आपलोगों से बांटता हूँ.. कुछ मजेदार है, कुछ समझदार हैं और बाक़ी जीत की खुशी में बौराये हुए हैं.. :)

सबसे पहले शुरुवात करते हैं इस तस्वीर से जो सचिन फैन ग्रुप का स्क्रीनशॉट है.. इसका अपडेट खुद ही पढ़ें और यह ध्यान दें की सिर्फ 58 मिनट में इसे कितने लोगों ने लाईक(पसंद) किया है और कितने लोगों ने टिपियाया है..




अब आगे बढते हैं कुछ चुनिन्दा अपडेट्स की ओर :

Shakhon se toot jayen, wo patte nahi hai hum,
aadhiyon se keh do AUQAT mein rahein..

अफ़रीदी नें ११ बुरके मांगे हैं.....
बोल रहा है की हमको सरकारी बस में ही भिजवा दो.......

कोई मदद का हाथ आगे आए..... बेचारे को बुरका सप्लाई करो ना....

एक नस्लवादी टिप्पणी- पठार ने पठान को हरा दिया। इसे कोई भी न्यूज़ चैनल यूझ कर सकता है। फ्री में।


मेरा तो पटाखा भी फुस्स निकल गया इतना महँगा खरीदा था :(


यहाँ तो जश्न का माहौल है...दिवाली जैसा कुछ लग रहा है,अलग ही नज़ारा है....रात के साढ़े इग्यारह बजे ऐसा माहौल...मस्त है.. वैसे, आपके शहर का क्या हाल है?? :) :)

इस खुशी में कल आजतक, इंडिया टीवी, स्टार न्यूज़,आईबीएन सेवन, न्यूज़. सहारा समय, एनडीटीवी इंडिया बंद रहेगा। मित्रों ने आज काफी मेहनत की है। पूरे दिन किसी ने न्यूज़ चैनल नहीं देखा फिर भी लगे रहे। इसलिए बिना किसी से पूछे रवीश की रिपोर्ट के लेटरपैड पर इस छुट्टी का एलान करता हूं। इंग्लिश चैनल वाले अपना फैसला खुद करें
भारतीय भारत में हों या लन्दन में जीतने के बाद पगला ही जाते हैं :) यहाँ लोग कार में तिरंगा लगाकर नाच रहे हैं रोड पर


अब शनिवार को लंका दहन और सचिन के शतकों का सैकडा ...दोनों के साथ ..इस बार का विश्व कप अपना हुआ .....


Natraj phir champion !! Chak de !!!


What a Victory, What a Game. Superb


इंडियंस मुबारक हो.. पाकिस्तान मुंह बाहर रखो.


‎5 out of 5 teams India met Pak in WC, India have won...most occasions at the 50 over mark, people had backed Pakistan to win...every time India fought like tigers

Sachin is dancing like a sixteen year old boy at Mohali! #HumJeetGay


I forgive the Paki Team, I forgive the Paki fans, I forgive Ashish nehra, I forgive the umpires... I forgive them all,, I feel like Sachin Tendulkarr,,,,

yeyyyy....India ko gariyaana kaam aaya....jeet gaye...!!...fir se karna hoga final me :P
WC finals....yo baby...what a feeling!

bhaiyon koi inko wagah border chhor aao please....


The best one was :
Shiney Ahuja has been sentenced 7 years of Prison for a rape case,,,, God knows what will happen to Sehwag for what he did to Umar Gul...:P

अब एक सीरियस अपडेट भी इस खेल को लेकर जो भारत-पाकिस्तान के क्रिकेट खिलाड़ियों ने नहीं, बाजार और राजनीति के खिलाडियों ने खेला! यह भाईसाब मेरे मित्रों कि सूची में तो नहीं हैं मगर इनका यह अपडेट मुझे बहुत पसंद आया.

आज एक टी वी चैनल पर अयोध्या से भारत पाकिस्तान के मैच पर जनता का रुख जानने की न्यूज़ चल रही थी. यहाँ साधू संतो की बाईट चल रही थी, और ऊपर के तरफ यह फलैश चल रहा था, की संतो ने मुस्लिम भाइयों के साथ मैच देखा. अब हमारे समझ में यह नहीं आता की चैनल क्या कहना चाह रहा था. कहीं यह तो नहीं की कि अयोध्या के मुसलमान इस मैच में भारत के अलावा किसी और का समर्थन कर रहे हैं. यह है पत्रकारिता में दिमाग का स्तर.
और यह एक शानदार अपडेट मैच से पहले का मेरे मित्र द्वारा :

All support for India, sum encouragement for Pakistan team also:
I m the last ball at Sharjah. I invented the reverse swing. I mastered the multiple hat-trick.I am the Sultan of Swing. I am the Cornered Tiger. I am the fastest ball,the quickest hundred,the biggest six,the shattered stumps. I am the aggression,the passion,the unpredicta...

Thursday, March 24, 2011

एक थी महुआ घटवारन

वो जो महुआ घटवारन का घाट है न, उसी मुलुक की थी महुआ! थी तो घटवारन मगर सौ सतवंती में एक! उसका बाप दिन-दिहाड़े ताड़ी पीकर बेहोश पड़ा रहता था, उसकी सौतेली माँ थी साक्षात राक्षसनी.. महुआ कुंवारी थी, हरी-पुरी दुनिया में कोई ना था उसका!
दुनिया बनाने वाले,
क्या तेरे मन में समाई, तुने,
काहे को दुनिया बनाई, तुने,
काहे को दुनिया बनाई?

कैसे करूँ महुआ के रूप का बखान? हिरनी जैसी कजरारी आँखे, चाँद सा चमकता चेहरा, एड़ी तक लंबे रेशमी बाल.. जब वो मुस्कुराती, तो जैसे बिजली कौंध सी जाती.. भगवान जी ही ऐसा रूप भर सकते हैं माटी के पुतले में!!
काहे बनाए तूने, माटी के पुतले?
धरती ये प्यारी-प्यारी, मुखड़े ये उजले?
काहे बनाए तूने जीवन का खेला?
जिसमें लगाया जवानी का मेला...
लुकछुप तमाशा देखे, वाह रे तेरी खुदाई, तुने,
काहे को दुनिया बनाई?

जवान हो गई थी महुआ, फिर भी कहीं शादी ब्याह की बात नहीं चलायी गई.. सुबह शाम वह अपनी मरी माँ को याद करती रोती.. रात-दिन कलपता था बिचारी का मन.. मन समझती हैं ना आप?
तू भी तो तड़पा होगा, मन को बनाकर,
तूफां ये प्यार का मन में छुपा कर,
कोई छवि तो होगी आँखों में तेरी,
आंसू भी छलके होंगे पलकों से तेरी..
बोल क्या सूझी तुझको? काहे को प्रीत जगाई?
तूने, काहे को दुनिया बनाई?

एक दिन एक थका-प्यासा मुसाफिर पानी पीने नदी किनारे आया.. महुआ को देखते ही उसपे रीझ गया.. नादान महुआ भी उसे दिल दे बैठी.. जंगल के आग की तरह फैल गई इनके प्यार की बात.. सौतेली माँ भला कैसे देख सकती थी उनका सुख? उसने महुआ को एक सौदागर के हाथ बेच दिया.. रोती-छटपटाती महुआ चली गई सौदागर के साथ, बिछुड गई जोड़ी, महुआ का प्रेमी आज भी जैसे रोता है!!!
प्रीत बना के तूने, जीना सिखाया..
हंसना सिखाया, रोना सिखाया..
जीवन के पथ पर मीत मिलाए,
मीत मिला के तूने सपने जगाये..
सपने जगा के तूने काहे को दे दी जुदाई,
तूने, काहे को दुनिया बनाई..



Monday, March 14, 2011

एक पत्र मृत्युंजय से सम्बंधित


अगर आप इस पत्र को सहसम्बन्धित नहीं कर पा रहे हों तो कृपया पिछले पोस्ट पर जाएँ अथवा इस लिंक पर क्लिक करें..

मित्र,

तुम्हारी भेजी किताब पढ़ी.. अभी हाल फिलहाल में हिंदी साहित्य की कई किताबें पढ़ने का सौभाग्य मिला, मगर मृतुन्जय पढ़ने का एक अलग ही आनंद आया जो बाकी किताबों से सर्वथा भिन्न था.. मेरी जानकारी में महाभारत के दो पात्र सदा से ही आम जनों को लुभाते रहे हैं, श्री कृष्ण और कर्ण.. इनमें से श्री कृष्ण को तो भगवान का दर्जा दिया जा चुका है जिस कारण से यह बेहद स्वाभाविक है कि उन पर कई विद्वजनों ने आसक्ति में डूब कर कई ग्रन्थ रच डाले.. मगर कर्ण, यह एक ऐसा पात्र है जिसे महाभारत जैसे महाग्रंथ में भी उचित स्थान ना मिला था फिर भी उसके अनन्य भक्तों की कमी नहीं.. जहाँ श्री कृष्ण के ऊपर भक्तों के कृपा दृष्टि का प्रश्न है तो उसका उत्तर बेहद संक्षेप में दिया जा सकता है की वह तो भगवान थे, हैं और जब तक हिंदू धर्म एवं गीता का अस्तित्व रहेगा तब तक वे आम जनों के भगवान रहेंगे भी.. मगर कर्ण का क्या? वह तो एक ऐसा साधारण मनुष्य था जिसने अपने असाधारण कर्मों के कारण इतिहास में एक अलग स्थान प्राप्त किया.. एक ऐसा पात्र जिसने सदैव 'सूतपुत्र' सुनने का अपमान विष पीया, मगर अपने कर्मों से कभी डिगा नहीं.. अर्जुन को भी महाभारत के युद्ध से पहले गीता के उपदेश की जरूरत हुई थी.. मगर कर्ण!! वह यह सब जानते हुए भी की वह अपने सहोदर भाइयों पर अपने विष-वाण छोड़ने जा रहा है, वह अपने कर्मों से हटा नहीं, डिगा नहीं.. मात्र मित्रता का धर्म निर्वाह करता रहा..

"रश्मिरथी" को पढ़ने का एक अलग ही आनंद आया था, और इसे पढ़ने का आनंद भी अनोखा ही था.. कई दिनों के बाद एक ऐसी किताब पढ़ी जिसे एक बार शुरू करने के बाद जब तक खत्म नहीं कर दिया तब तक यह उत्कंठा बनी रही की आगे क्या होगा? सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह है की यह उत्कंठा तब भी मन में उठी जबकि मैंने महाभारत ग्रन्थ के सभी खंड पढ़ रखे हैं, महाभारत धारावाहिक का एक-एक अंक मैंने एक बार से अधिक देखा है, बचपन में महाभारत की कहानियाँ कई खंडों में दादी, नानी, पापा, मम्मी एवं अन्य बड़ों से सुन रखा है.. फिर भी ऐसी उत्कंठा? आश्चर्यजनक था वह.. एक सम्मोहन सा छाया रहा जब तक की मैंने इसे समाप्त ना कर डाला..

कई प्रश्नों के उत्तर कितने साधारण तरीके से इस किताब में दे रखे हैं वह अतुलनीय एवं प्रशंसनीय है.. जैसे, किस तरह काल के प्रवाह में बह कर कर्ण ने कभी अपने महान कर्म उद्देश्य से भटक कर नीच कर्म भी किये.. जैसे, परशुराम से को भ्रम में रखना की वह ब्राह्मण पुत्र है और भृगु का वंशज है, जैसे वह आवेश में बह कर अपने उस अपमान को याद करता हुआ, जब द्रौपदी ने स्वयम्बर के समय कर्ण को सूतपुत्र कह कर उस प्रतिस्पर्धा से अलग रहने को कहा था, द्रौपदी का भरे कुरु सभा में अपमान कर बैठा जिसकी ग्लानी उसे कई वर्षों के बाद भी रही.. जिस पितामह भीष्म के प्रति उसके मन में सम्मान इस कारण जगा था जब शस्त्र दीक्षा प्राप्त करने के पश्चात भीष्म ने उसे महान धनुर्धर कह कर सुशोभित किये थे, मगर उसी पितामह भीष्म के प्रति मन के किसी कोने में भयंकर घाव भी लगा जब महाभारत रण से पहले उन्होंने उसे अर्धरथी कह कर बुलाया.. फिर उसी पितामह से जब वह शर-सैय्या पर मिलने पहुंचा तो उनके द्वारा कहे गए शब्द "अर्धरथी" का कारण जान कर वह पुनः नतमस्तक हो गया..

इस किताब की सबसे रोचक बात मुझे यह लगी की इसमें अलग-अलग पात्रों के मनोभावों को दर्शाया गया है.. कर्ण के जीवन में जो लोग महत्वपूर्ण थे उनके मुख से कहानी कही गई है.. कहानी की शुरुवात होती है कर्ण से.. कर्ण कैसे अचंभित है की सिर्फ उसे ही कवच-कुंडल मिले हैं दूसरों को क्यों नहीं? यहाँ तक की उसके छोटे भाई शोण तक को नहीं, ऐसा क्यों? अगले भाग में कुंती के मुख से कहानी को आगे बढ़ाया जाता है.. इसी तरह कर्ण की पत्नी वृषाली, छोटे भाई शोण, और श्रीकृष्ण के मुख से भी कहानी को बल मिलता है.. जिसमें कर्ण के पराक्रम के साथ-साथ उसके उलझे हुए जीवन का भी वर्णन है..

तारीफ़ बहुत हो चुकी, अब कुछ बातें करते हैं जो इसकी कमजोर कड़ी थी.. अंत श्रीकृष्ण द्वारा कही गई कहानी से किया गया है.. यह आवश्यक भी था क्योंकि कर्ण अपनी मृत्यु के बारे में नहीं बता सकता था, वह किसी अन्य के द्वारा ही कही जानी चाहिए थी.. उसके लिए श्रीकृष्ण से अधिक उपयुक्त पात्र कोई था भी नहीं, मगर मेरे विचार से शिवाजी सावंत जी ने यहाँ पूर्ण न्याय नहीं कर पाए.. अभी तक कि कहानी जो कसावट लिए हुए थी उसमें जैसे ढील दे दी गई हो.. जैसे कर्ण के धनुष की प्रत्यंचा ढीली कर दी गई हो..

एक और बात मुझे खटकी वह यह थी की पूरी कहानी तर्कपूर्ण ढंग से आगे बढाई गई थी, मगर जहाँ श्रीकृष्ण कि चर्चा शुरू हुई बस वहीं कुछ अलौलिक बातें जोड़ दी गई.. जैसे शिशुपाल वध के समय श्रीकृष्ण द्वारा अभूतपूर्व रूप धारण करना, जैसे जब वे कौरवों के पास संधि प्रस्ताव लेकर गए थे तब उनका वह अलौलिक रूप पुनः धारण करना.. कुछ कहानियाँ जो बचपन में सुन रखा था उसमें से जब उन चमत्कारिक चीजों में बदलाव किया जा सकता था तो निश्चय ही इन बातों में भी बदलाव करके कहानी सुनाई जा सकती थी.. जैसे लेखक कर्ण के रथ के पहियों को धरती द्वारा निगलने की जगह पर श्रीकृष्ण द्वारा उन्हें विवश करते दिखाना जिससे शल्य मजबूर हो जाएँ रथ को दलदल की तरफ ले जाने को.. उन्होंने ऐसे कई चमत्कारों को जो महाभारत में वर्णित है, तर्क के साथ लिखा है.. मगर श्रीकृष्ण के साथ!! पता नहीं, मुझे यह बात बेहद खटकी.. एक और घटना याद आ रही है, महाभारत के अनुसार जब कर्ण मृत्यु के मुख में खड़ा है और उस समय स्वयं देव उनके पास ब्राहमण रूप धारण कर दान मांगने आते हैं.. यहाँ भी लेखक ने बेहद तर्क के साथ एक साधारण ब्राहण को दिखाया है जो युद्ध में मारे गए अपने पुत्र को ढूंढते हुए विलाप कर रहा रहा है.. तब कर्ण अपने पुत्र को आदेश देते हैं कि वह उसके स्वर्ण जड़ित दांत तोड़कर उसे दान में दे दे जिससे वह अपने पुत्र का उचित रूप से दाह संस्कार कर सके..

अहा मित्र!! अगर तुम मुझे यह अनूठी किताब ना भेजी होती तो शायद मैं इस अपूर्व कृति को पढ़ने से शायद वंचित ही रह जाता.. वंचित ना भी रहता तो निश्चित रूप से कुछ वर्ष तो लग ही जाते.. वाह मित्र! वाह!!

Tuesday, March 01, 2011

हरी अनंत, हरी कथा अनंता

यूँ तो अब तक के जीवन में कई लोग मिले हैं, मगर उनमें भी अपने यह भाईसाब अनोखे किस्म के ही हैं.. नाम जानना जरूरी नहीं, आज तो बस उनके कुछ किस्सों का लुत्फ़ उठाया जाए..

होस्टल के दिन थे.. यूँ तो मैं कई दफ़े अकेले रहा था या फिर घर से दूर सिर्फ लड़कों के संगत में रह चुका था फिर भी होस्टल में रहने का अपना पहला मौका था.. VIT होस्टल का पहला दिन.. जिस होस्टल में था वहाँ एक कमरे में दो लड़के थे.. पहले सेमेस्टर में अधिक लोगों से अपनी जान पहचान नहीं थी, अधिक से अधिक अपने कमरे से कमरा नंबर 310 तक जाता था और वापस अपने कमरे में.. MCA करने की इच्छा तब तक नहीं जागी थी और कुछ अलग ही फितूर में रहता था, मगर फिर भी आदत से मजबूर.. आदत यह कि अधिक से अधिक लोगों से मिलना जुलना, उनसे जान पहचान बढ़ाना.. और यह भाईसाहब तो मेरे कमरे के ठीक बगल में रहते थे, तो भला मुझसे चूक हो जाए यह तो हो ही नहीं सकता था.. तो यह बात पहले सेमेस्टर की है.. लगभग पूरे सेमेस्टर भर इनकी घडी का अलार्म सुबह-सुबह बजता था.. इनके हौसले में भी कभी कमी नहीं आती थी.. हौसला यह कि सुबह उठकर पढ़ाई करनी है, सुबह उठकर कुछ व्यायाम करना है या फिर सुबह उठ कर कम से नाश्ता तो जरूर करना है जैसे फिजूल की बातें.. :) मगर क्या मजाल जो इनको और इनके साथ रहने वाले को बिस्तर से खुदा भी उठा पाए तो.. वह काम हमारे लॉबी में रहने वाले सभी लड़के करते थे जिनकी नींद इनके अलार्म से खुल जाती थी.. कई दिन इनके दिन की शुरुवात बिलकुल मूड फ्रेश कर देने वाली गालियों से होती थी.. :)

भूलाये भी नहीं भूलता है इनका वह शक्ल जो सुबह-सुबह हमने देखा था.. दरअसल हुआ यह था की हमें 'C' Programming के Lab के प्रोग्राम्स के फ्लो चार्ट बनाकर जमा करना था.. जिसे आज के समय 'हरक्युलस' भी आ जाए तो एक बार घबरा जाए पूरा करने में, हम तो फिर भी मासूस विद्यार्थी मात्र थे.. ;) जिस दिन जमा करना था उस दिन सारी रात जग कर लगभग सभी लोगों ने अपना-अपना काम खतम कर लिया था, इन्होने सोचा की हम तो रात में सोयेंगे और सुबह-सुबह बनाएंगे.. फिर उसी अलार्म ने धोखा दिया जो बजा तो जरूर मगर उसमें वो बात नहीं आ सकी थी की इन्हें जगा सके.. बेचारा रो-गा कर चुप बैठ गया.. सुबह लगभग छः बजे के करीब मैं इनके कमरे में पहुंचा तो देखता हूँ कि ये अपने उसी चिरपरिचित सफ़ेद रंग के टीशर्ट और सफ़ेद रंग के ही हाफ पैंट पहने अपने बिस्तर पर सर पर दोनों हाथ रखकर बैठे हुए हैं और इनके सर के सारे बाल खड़े हैं.. खुद से ही बडबडा कर कुछ कह रहे थे.. मैंने गौर से सुना तो 'F' शब्द के मंत्रोचारण के साथ खुद को गरिया रहे थे, और जो भी बोल रहे थे उसका कुल मिलाकर मतलब यह की मुझ जैसे निकम्मे के वश की बात नहीं की मैं MCA की पढ़ाई पूरी कर सकूं.. खैर हम कुछ मित्रगण मिलकर इन्हें इस मुसीबत से उबारने का जिम्मा लिया और एकता में कितनी शक्ति होती है यह उस दिन किताबों के पन्ने से निकल कर साक्षात हमारे सामने खड़ा था.. ;)

कुछ समय बाद की बात है, मैं दूसरे होस्टल में शिफ्ट हो गया जिसे VIT में 'E' Block के नाम से जाना जाता है और उन दिनों MCA छात्रों का मक्का माना जाता था.. चंद गिने-चुने दूसरे सेमेस्टर के छात्र उस होस्टल में शिफ्ट हुए थे, जिनमें यह भाईसाब शामिल नहीं थे.. सो कुछ दिनों तक इनसे संपर्क कुछ धुंधला सा तो गया, मगर मुझे कहीं ना कहीं से इनसे लगाव हो चुका था सो तो छूट नहीं सकता था.. मुझे ठीक से याद नहीं आ रहा है, मगर शायद दूसरे सेमेस्टर के आखिर में इनका वह उड़ा हुआ चेहरा भुलाए नहीं भूलता है, जब यह लगभग मन में ठान चुके थे कि सेमेस्टर की परीक्षा के बाद यह वापस नहीं आयेंगे.. मैंने अपनी तरफ से इनका ब्रेनवास करने की भरपूर कोशिश की थी, खैर जो भी हुआ हो इन्हें तीसरे सेमेस्टर में वापस देखकर मैं बहुत ही खुश हुआ था..

तीसरे सेमेस्टर में फिर से हम एक ही होस्टल में शिफ्ट हुए.. 'H' Block में.. और संयोग कुछ ऐसा हुआ कि यह तब के मेरे उस मित्र के साथ शिफ्ट हुए जिनके कमरे में मैं सबसे अधिक समय गुजारता था, सो इनको रहन-सहन को कुछ और करीब से जानने का मौका मिला..

अब एक नजर इनके रहन-सहन पर - इनका रहन सहन बहुत ही साधारण था.. इन्हें अधिक जगह की जरूरत कभी नहीं होती थी, इन्हें बस उतना ही जगह चाहिए होता था जिसमें यह समा जाएँ.. पढ़ने को लेकर अति-उत्सुक होने के कारण इनके बिस्तर पर किताबों का जमघट हमेशा लगा रहता था.. दयालू प्रवृति के इतने की किताबों पर पड़े धूल को कहीं परेशानी ना हो सो यह किताबों पर से धूल कई कई दिनों के बाद झाड़ते थे.. और इनके बिस्तर पर सिर्फ उतनी ही जगह होती थी जिसमें की यह अपने घुटनों को मोड़ कर सो सकें.. इतना कुछ होते हुए भी साफ़ सफाई का गजब का ख्याल रखते थे, और अगर एक ही समय में एक साथ धूल से सनी चीजें और एकदम झक-झक चमचमाती चीजों का उदाहरण देखना हो तो इनके बिस्तर और आलमीरा को एक साथ देखा जा सकता है.. आलमीरा की एक एक चीज बेहद करीने से सजी हुई.. कहीं धूल का निशान तक नहीं और वहीं बिस्तर, सुभान-अल्लाह.. और वह उत्तर-पुस्तिका(Answer Sheet), जिसमें इनके तब तक के सबसे कम नंबर आयें हों, वह कुछ इस प्रकार से सजी रहती थी जिससे हमेशा इन्हें ग्लानिबोध बना रहे और शायद उसी कारण से पढ़ाई कर सकें.. अब साहब पढ़ाई तो कभी वैसी नहीं हुई जैसा ये सोचते थे, मगर ग्लानिबोध बराबर बना रहा पूरे कालेज के समय तक..

दृढनिश्चयी - जी हाँ.. हमारे यह मित्र बेहद दृढनिश्चयी हैं.. यह हमेशा कोई भी जिम्मेदारी निष्ठा से लेते हैं और तन-मन-धन से उसे पूरा करने की कोशिश भी करते हैं.. वैसे तो यह साबित करने के लिए मेरे पास कई उदाहरण हैं, मगर मैं चंद उदाहरण ही दूँगा.. जैसे मान लें की इन्हें सुबह पाँच बजे की गाडी पकड़नी है, तो यह सारी रात सोना तक पसंद नहीं करते थे की कहीं गाडी छूट ना जाए.. कहीं मैं सोया ही ना रह जाऊं.. वो दीगर बात है की चार बजते-बजते इतनी कड़ी मेहनत करने के कारण थकान दूर करने के लिए जैसे ही बिस्तर पर अगर बैठ भी गए तो बस्स!! अब कहाँ की गाड़ी और कैसी गाड़ी? जैसे इन्हें अगर अगले दिन किसी विषय की परीक्षा देनी है तो किताब लेकर बैठते थे, और किताब के साथ ही किसी और दुनिया में खो जाते थे.. जरा ध्यान दिया जाए, कितने तन्मय होकर पढ़ा करते हैं.. फिर तो दुनिया की कोई भी ताकत इन्हें इनके किताब जैसी महबूबा से जुदा नहीं कर सकता है.. जैसे ही किसी ने किताब को हाथ लगाया वैसे ही कुछ आवाज जैसी आती थी, "नहीं नहीं! अभी बहुत पढ़ना है!!" कक्षा में अगर हमें सोना होता था तो हम बिना पढ़ाई का ख्याल किये आराम से नोटबुक बंद किये और सर को मेज पर टिका कर सो गए.. मगर ये इतनी तन्मयता से कक्षा में उपस्थित रहते थे की सोते हुए भी शिक्षक की कही एक एक बात अपने नोटबुक पर अंकित करते जाते थे.. पर्यावरण प्रेमी भी बहुत हैं, सो नोटबुक पर लिखते समय कागज़ भी बचाते थे, और एक ही लाईन पर कई दफ़े पढते थे..

इनकी कथा का कोई अंत नहीं है, और अगर अंत होने को भी आये तो अगले ही दिन कई नए अध्याय खुद अपने हाथों से जोड़ लें यह.. :)

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मेरे साथ इनकी अच्छी दोस्ती होते हुए भी कई दफ़े मनमुटाव भी खूब हुए हैं.. मामला कुछ ऐसा था की, अगर मैं उत्तर जाना चाहता हूँ तो इन्हें दक्षिण पसंद है.. अगर मैं आम बोलूँ तो यह इमली बोलेंगे.. मगर एक बात सच्चे दिल से कहना चाहूँगा की 'इन्हें जानने से पहले इतना सच्चा इंसान मुझे नहीं मिला था'.. अगर किसी को मदद की जरूरत हो और इन्हें पता हो तो मैंने कभी इन्हें चूकते हुए नहीं देखा है, भले ही ये उसे जानते हो या ना जानते हों, भले ही उनसे इनकी दुश्मनी ही क्यों ना ठनी हो, फिर भी.. जो दिल में है वही जुबान पर भी, कभी कोई मुखौटा नहीं..

अभी कुछ दिन पहले की बात है, इन्होने मुझे एक मेल लिखा जिसका मजमून मात्र इतना की "अपना चेन्नई का पता दो, मुझे एक कूरियर भेजना है जिसे मेरा एक मित्र आकर तुमसे ले लेगा.." मैंने दे दिया.. अब जिस दिन मैंने पता दिया उसके ठीक दो दिन बाद मुझे फ्लिपकार्ट से एक कूरियर मिला.. मैं असमंजस में, कि किसने भेजा होगा, इनके बारे में नहीं सोचा क्योंकि मेरा फ्लिपकार्ट के साथ अनुभव यही रहा है कि कम से कम तीन-चार दिन समय लेता है और मुझे इन्हें पता दिए मात्र दो ही दिन हुए थे.. खैर मैंने इन्हें वापस मेल किया, "मुझे एक कूरियर फ्लिपकार्ट से मिला है, क्या यह तुमने भेजा है?" इन्होंने किताब का नाम लिखकर बोला की अगर अंदर यही किताब है तो हाँ, मैंने ही भेजा है.. मैंने पैकेट खोलकर देखा और पाया कि वही किताब है जिसका जिक्र इन्होंने मेल में किया है.. अब मैं वापस सोच में था, की ऐसा इनका कौन सा मित्र है जो हिंदी साहित्य प्रेमी है, और चेन्नई में भी रहता है, और सबसे बड़ी बात की अगर चेन्नई में रहता है तो मैं उसे जानता नहीं? कुल मिलाकर मैंने यही निष्कर्ष निकाला की यह किताब इसने मेरे लिए ही भेजा है.. फिर भी मैंने इन्हें मेल लिखा "अपने फ्रेंड को बोलना की आराम से आकर ले, तब तक मैं भी पढ़ लूँगा इसे.." और इनका जवाब था, "उसे खुद को ही डेलिवर कर लेना, मेरे फ्रेंड का नाम प्रशान्त है.."

मेरे लिए इस तरह का अप्रत्यासित भेंट इससे पहले किसी ने नहीं भेजा था, और वह भी तब जबकि भाईसाब शिकागो(अमेरिका)में हैं.. मैंने अभी तक उस मेल का जवाब नहीं दिया, कोई पावती पत्र तक नहीं.. आजकल पत्र लिखने में बहुत आलसी हो गया हूँ, कई लोगों को पत्र लिखने हैं, मगर मैं टाले जा रहा हूँ.. सीधा यह यहाँ ही लिख रहा हूँ और वह भी लगभग दस दिनों बाद की लव यू डियर, तुम जैसे किसी एक से अगर दोस्ती हो तो किसी और दोस्त की जरूरत ही नहीं है जिंदगी बिताने के लिए, और किस्मत से तुम जैसे मुझे कई मित्र मिले हैं..