Wednesday, June 30, 2010

"परती : परिकथा" से लिया गया - भाग ३

गतांक से आगे :

मूर्छा खाकर गिरती, फिर उठती और भागती । अपनी दोनों बेटियों पर माँ हंसी--इसी के बले तुम लोग इतना गुमान करती थी रे ! देख, सात पुश्त के दुश्मनों पर जो गुन छोडना मन है, उसे-ए-ए छोड़ती हूँ--कुल्हड़िया आँधी, पहड़िया पानी !

कुल्हड़िया आँधी के साथ एक सहस्त्र कुल्हाड़ेवाले दानव रहते हैं, और पहड़िया पानी तो पहाड़ को भी डुबा दे ।

अब देखिये कि कुल्हड़िया आँधी और पहड़िया पानी ने मिलकर कैसा परलय मचाया है : ह-ह-ह-र-र-र-र...! गुड़गुडुम्-आँ-सि-ई-ई-ई-आँ-गर-गर-गुडुम !

गाँव-घर, गाछ-बिरिच्छ, घर-दरवाजा कतरती कुल्हड़िया आँधी जब गर्जना करने लगी तो पातालपुरी मे भगवान बराह भी घबरा गये । पहड़िया पानी सात समुन्दर का पानी लेकर एकदम जलामय करता दौड़ा ।...तब तक कोसी मैया हाँफने लगी, हाथ-भर जीभ बाहर निकालकर । अन्दाज लगाकर देखा, नैहर के करीब पहूँच गई है । और पचास कोस ! भरोसा हुआ। सौ कोसों तक फैले हुये हैं भैया के सगे-सम्बन्धी, भाई-बन्धु । मैया ने पुकारा, अपने बाबा का नाम लेकर, वंश का नाम लेकर, ममेरे-फुफेरे भाईयों को--भैया रे-ए-ए, बहिनी की इजतिया तोहरे हाथ !

फिर एक-एक भौजाई का नाम लेकर, अनुनय करके रोयी--"भउजी-ई-ई, भैया के भेजि तनि दे-ए !"

कुल्हड़िया आँधी, पहड़िया पानी अब करीब है । एकदम करीब ! अब? अब क्या हो?...कोसी की पुकार पर एक मुनियाँ भी न बोली, एक सीकी भी न डोली । कहीं से कोई-ई जवाब नहीं । तब कोसी मैया गला फाड़कर चिल्लाने लगी--अरे ! कोई है तो आओ रे ! कोई एक दीप जला दो कहीं !

कोई एक दीप जला दे, एक क्षण के लिए भी, तो फिर कोसी मैया से कौन जीत सकता है? कुल्हड़िया आँधी कोसी का आँचल पकड़ने ही वाली थी...कि उधर एक दीप टिमटिमा उठा ! कोसी मैया की सबसे छोटी सौतेली बहन दुलारीदाय, बरदिया घाट पर, आँचल में एक दीप लेकर आ खड़ी हुई । बस, मैया को सहारा मिला और तब उसने उलटकर अपना आखिरी गुन मारा ।

पातालपुरी में बराह भगवान डोले और धरती ऊंची हो गयी ।

जारी...

प्रथम भाग
द्वितीय भाग

Tuesday, June 29, 2010

"परती : परिकथा" से लिया गया - भाग २

जहाँ छूटा था, वहां से आगे :

छोटी ने करवट लेकर कहा--माँ ! चुपचाप सो रहो । बीस कोस भी तो नहीं गयी होगी । पचास कोस पर तो मैं उसका झोंटा धरकर घसीटती ला सकती हूँ ।

बड़ी बोली--सौ कोस तक मेरा बेड़ी बान, कड़ी-छान गुन चलता है । भागने दो, कहाँ जायेगी भागकर ?

माँ बोली - अरे आज ही तो गुन-मंतर देखूंगी तुम दोनों का । तुम्हे पाता है, कोसी-पुतोहिया ने गौर में दीप जला दिया ? तुम्हारे जादू का असर उस पर अब नहीं होगा ।

--एय ? क्या-आ-आ ? दोनों बहनें गुणमन्ती-जोगमन्ती हडबडाकर उठीं । अब सुनिए कि कैसा भौचाल हुआ है । तीनो--माँ-बेटियां--अपनी-अपनी गुन की डिबिया लेकर निकलीं ।

छोटी ने अपनी डिबिया का ढक्कन खला--भरी दोपहरी में आठ-आठ अमावस्या की रातों का अंधकार छा गया ।

बड़ी ने अपनी अंगूठी के नगीने में बन्द आंधी-पानी को छोड़ा ।

--उधर कोसी मैया बेतहासा भागी जा रही हैं । रास्ते की नदियों को, धाराओं को, छोटे-बड़े नालों को, बालू से भरकर पार होती, फिर उलटकर बबूल, झरबेर, खैर, साँहुड़, पनियाला, तिनकटिया आदि कंटीले कुकाठों से घात-बाट बन्द करती छिनमताही भागी जा रही है । आँ-आँ-रे...ए...

थर-थर कांपे धरती मैया, रोये जी आकास:
घड़ी-घड़ी पर मूर्छा लागे, बेर-बेर पियास:
घाट ना सूझे, बाट ना सूझे, सोझे न अप्पन हाथ:.....


जारी...

भाग एक के लिए यहाँ

Saturday, June 26, 2010

"परती : परिकथा" से लिया गया - भाग १

कथा का एक खंड--परिकथा !

---कोसी मैया की कथा ? जै कोसका महारानी की जै !

परिव्याप्त परती की और सजल दृष्टि से देखकर वह मन-ही-मन अपने गुरु को सुमरेगा, फिर कान पर हाथ रखकर शुरू करेगा मंगलाचरण जिसे वह बंदौनी कहता है : हे-ए-ए-ए, पूरबे बंदौनी बंदौ उगन्त सिरूजे ए-ए...

बीच-बीच में टिका करके समझा देगा---कोसका मैया का नैहर ! पच्छिम-तिरहौत राज । ससुराल---पुरूब ।

कोसका मैया की सास बड़ी झगड़ाही । जिला-जवार, टोला-परोण्ट्टा में मशहूर । और दोनों ननदों की क्या पूछिए ! गुणमन्ती और जोगमन्ती । तीनों मिलकर जब गालियाँ देने लगती तो लगता कि भाड़ में मकई के दाने भूने जा रहे हैं : फड़र्र-र्र-र्र । कोखजली, पुतखौकी, भतारखौकी, बाँझ ! कोसी मैया के कान के पास झाँझ झनक उठते !

एक बार बड़ी ननद ने बाप लगाकर गाली दी । छोटी ने भाई से अनुचित सम्बन्ध जोड़कर कुछ कहा और सास ने टीप का बन्द लगाया--और माँ ही कौन सतवन्ती थी तेरी ।...कि समझिए बारूद की ढेरी में आग की लुत्ती पद गयी । कोसका महारानी क्रोध से पागल हो गयी : आँ-आँ-रे...ए...ए...
रेशमी पटोर मैया फाड़ि फेंकाउली-ई-ई,
सोना के गहनवां मैया गाँव में बंटाउली-ई-ई,
आँ-आँ-रे-ए-ए, रू-उ-पा के जे सोरह मन के चू-उ-उर,
रगड़ि कैलक धू-उ-र् जी-ई-ई !


दम मारते हु, मद्धिम आवाज में जोड़ता है गीतकथाकार--रूपा के सोलह मन के चूर ? बालूचर के बालू पर जाकर देखिये--उस चूर का धूर आज भी बिखरा चिकमिक करता है !

सास-ननद से आखिरी लड़ाई लड़कर, झगडकर, छिनमताही कोसी भागी । रोती-पीटती, चीखती-चिल्लाती, हहाती-फुफनाती भागी पच्छिम की ओर--तिरहौत राज, नैहर । सास-ननदों को पंचपहरिया मूर्छाबान मारकर सुला दिया था कोसी मैया ने ! ...रास्ते में मैया को अचानक याद आयी--जा, गौर में तो माँ के नाम दीप जला ही न पायी !

गीत-कथा-गायक अपनी लाठी उठाकर एक और दिखायेगा--ठीक इसी सीध में है गौर, मालदह जिला में । हर साल, अपनी माँ के नाम दीया-बाती जलाने के लिए औरतों का बड़ा भारी मेला लगता है ।...महीना और तिथ उसे याद नहीं । किन्तु, किसी अमावस्या की रात में ही यह मेला लगता है, ऐसा अनुमान है ।

--अब, यहाँ का किस्सा यहीं, आगे का सुनहु हवाल । देखिये कि क्या रंग-ताल लगा है ! कोसी मैया लौटी । गौर पहुंचकर दीप जलायी । दीप जलते ही, उधर सास की मूर्छा टूट, क्योंकि गौर में दीप जलाने से बाप-कुल, स्वामी-कुल दोनों कुल में इजोत होता है । उसी इजोत से सास की मूर्छा टूटी । अपनी दोनों बेटियों को गुन मारकर जगाया--अरी, उठ गुणमन्ती, जोगमन्ती, दुनू बहिनियाँ !

जारी...

Thursday, June 24, 2010

दो बजिया बैराग्य सा कुछ

नौ बजे की घंटी के साथ नींद हलकी खुली, उसे स्नूज पर डाल दिया.. दो-चार मिनट पर फिर से बजने लगा.. ऐसे ही दो-चार, दो-चार करते-करते नौ-पन्द्रह पर आँखें मींच कर उठ ही गया.. रात कब आँख लगी थी कुछ पता ही नहीं चला था.. हाँ ये जरूर याद है की जर्मनी मैच जितने के कगार पर था, Phines and Ferb कार्टून खत्म होने को था.. तो शायद दो बजने जा रहे होंगे.. पंकज का फोन भी कुछ देर पहले मिस कर दिया था.. उस समय किसी से बात करने की इच्छा नहीं हो रही थी.. सोचा था आज बहाना बना दूँगा की मोबाइल साइलेंट पर था या किसी दूसरे रूम में था(अब तो उसे सच्चाई पता चल ही जायेगी).. टीवी ऑटो ऑफ पर था, सो खुद ही बंद हो गया होगा..

यूँ तो मेरा दफ्तर ग्यारह से रात आठ बजे तक का होता है, मगर यदि कोई मीटिंग या ट्रेनिंग ना हो तो शायद ही कभी ग्यारह बजे दफ्तर पहुंचा होऊंगा.. हर दिन की तरह आज भी एक बजे के लगभग दफ्तर में घुसा.. कल अपना कम्प्युटर शट-डाउन नहीं किया था सो उसे रिबूट में होने वाला समय भी जाया नहीं हुआ.. मगर करने को कुछ काम नहीं.. आज ब्लॉग पढ़ने का मन नहीं किया तो गूगल खोल कर Factory Design Pattern पढ़ने लगा.. इस बीच प्रवीण पांडे जी से बाते भी हुई, और उनके अनुभव को अपने ज्ञान से मिलाकर कुछ चीजों पर अलग आयामों से देखने को भी मिला..

मेरे क्यूबिकल में दो फोटो अल्बम रखी हुई है.. एक दोस्तों की, जो अक्सर बदलती रहती है, और दूसरा पापा-मम्मी की जो मेरे साथ हर क्यूबिकल में घूमती है.. पापा जी के दफ्तर में एक सरस्वती जी की तस्वीर हमेशा देखता था, जो किसी भी नए जगह पर पापाजी के काम-काज संभालने से ठीक पहले स्थापित होती थी.. वैसे पापाजी को पूरे नियम से पूजा-पाठ करते कभी नहीं देखा हूँ, मगर यह जरूर पाया हूँ की समय के साथ अधिक आस्तिक होते गए हैं वह अपने जीवन में.. मेरे साथ यह चक्र कुछ उल्टा चल रहा है, समय के साथ नास्तिकता अपने और अधिक कठोर रूप में अवतरित होती जा रही है..

पापा-मम्मी की तस्वीर को हाथों से साफ़ करते समय ध्यान आया की इस पर तो धुल है ही नहीं, फिर क्या मैं हर दिन साफ़ करता हूँ? शायद हाथो से छू कर उन्हें महसूस करना चाहता हूँ.. पांच-छः साल पहले की उनकी तस्वीर है.. अभी भी बहुत अधिक बदलाव नहीं आया है उनमे.. मगर कुछ झुर्रियाँ जरूर बढ़ गई हैं.. मम्मी की शुरुवाती दिनों के तस्वीर में जो मुस्कान गायब रहा करती थी वह इस तस्वीर में है.. पापा की मोहक सी मासूमियत लिए मुस्कान हमेशा की तरह यहाँ भी है.. कुछ देर देखता रहा और खुद भी मुस्कुराता रहा और सोचता रहा.. कुछ साल तक पहले पापा की हरेक बात से सहमत हो जाया करता था, मगर अब उनकी हर बात से सहमत नहीं हो पाता हूँ.. मगर अभी भी अक्सर उनकी किसी बात को जान बूझकर नहीं काटता हूँ, बस असहमति को उसी जगह छोड़ने की कोशिश करता हूँ.. उनसे असहमत होने वाली बाते याद करने की कोशिश करता हूँ, मगर कुछ याद नहीं आता है.. शायद मेरे लिए वह असहमति उतनी महत्वपूर्ण नहीं है.. हो सकता है..

बचपन में पापा हमेशा कहते थे (खास करके मुझे, उनका सबसे नालायक बेटा जो था या हूँ), "बरगद के नीचे कोई दूसरा पेड नहीं जनमता है".. एक तरह का कटाक्ष ही था, जो खास मुझ पर किया गया होता था.. एक दो दफे पलट कर बोलने का मन करता था, बरगद के ठीक नीचे उससे भी बड़ा पेड जनम सकता है.. मगर कभी बोला नहीं.. आज पता है कि अगर उस बरगद के नीचे उससे बड़ा पेड जनम गया तो सबसे अधिक खुश वह बरगद ही होगा..

सीतामढ़ी!! विनीत का पोस्ट और उस पर आये कमेंट्स से मुझे अपने बचपन कि एक मित्र याद आ गई, जो अभी दिल्ली मेट्रो में ही उच्च पद पर है.. उसे फोन करके चिढाने का अवसर कैसे गँवा सकता था, सो फोन घुमा दिया.. एक-दो बार चिढाने के बाद जब उसे बताना पड़ा कि यह बात कहकर चिढा रहा हूँ तो मायूस होकर कहती है कि शायद "सेन्स ऑफ ह्यूमर" कम हो गया है..

"पटना कब जा रहे हो?"

"पता नहीं.. तुम कब जा रही हो?"

"पटना तो नहीं, मुजफ्फरपुर अपने ससुराल जा रही हूँ.. सीतामढ़ी भी जाने का इरादा है.. सीतामढ़ी गई तो डुमरा में अपने उस ऑफिसर्स क्वाटर वाले घर को देखने जरूर जाउंगी.."

"अरे वाह!! फोटो लेना और मुझे अगले ही दिन अपने इं-बाक्स में चाहिए.."

"मतलब?"

"अरे भाई, मुझे अगले ही दिन मेल करना.. सच में तुम्हारा सेन्स ऑफ ह्यूमर कम होता जा रहा है.. सब दिल्ली मेट्रो का असर लग रहा है.."

"अरे याद है, कैसे एक-एक करके पूरे मोहल्ले के एक-एक घर का सीसा क्रिकेट खेल के तोड़े थे.. क्या अपना, क्या पराया, कोई भेदभाव नहीं.."

"हाँ, और सीसा टूटने के तुरंत बाद आधे घंटे के लिए पूरी चांडाल चौकड़ी गायब.. और गेंद पास वाले नाले में चला जाता था तब उससे निकलने के बाद पूरा काला होकर ही निकलता था.."

"हाँ, फिर जो शोट मारा था वही उसे धोता था.."

सीतामढ़ी के डुमरा वाले घर में जब मैं पांच-साढे पांच साल का था तब गया था.. और श्वेता, जिसका जिक्र ऊपर कर रहा था वह हमारे घर के ऊपर रहती थी, मुझसे दो साल बड़ी.. उसका छोटा भाई गुड्डू मुझसे एक साल बड़ा.. भैया दो साल बड़े.. दीदी तीन साल बड़ी.. पड़ोस में योगेश मुझसे एक साल बड़ा, उसकी बहन रूबी मुझसे एक साल छोटी.. और भी कुछ बच्चे.. कुल मिलकर चार साल से लेकर आठ साल तक के बच्चों कि पूरी चांडाल-चौकड़ी.. (रूबी का जिक्र एक बार पहले भी आया है इस ब्लॉग पर, शायद कोई तीन साल पहले.. उसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं..) फिर तो किसके घर में अमरुद था और किसके घर में भूत-जिन्न का प्रकोप, ये सब बातें निकलने लगी.. अगर मुझे एक मीटिंग में नहीं नहीं जाना होता तो शायद बात और भी दूर तक जाती..

शाम ढलते-ढलते ढेर सारा काम आ ही गया, और एक बार फिर दफ्तर से निकलते-निकलते दस बज ही गये.. मम्मी का फोन आया.. किसी बात पर मरने कि बात लेकर ब्लैक मेल करने कि कोशिश करने में लग गई.. अब तक तो इतने सालों में मैं भी पेशेवर हो चूका हूँ, सो गुस्साने के बजाये उतनी ही तन्मयता से कह दिया, "आप आगे बढिए, मैं जल्द ही पीछे से आता हूँ.. इस जीवन में तो साथ रहना मयस्सर होता नहीं दिख रहा है.."

फिलहाल तो सोने जा रहा हूँ.. पापा का प्यार भी कभी कभी नींद सा ही महसूस होता है.. जब उमड़ता है तो बस उससे गले लगा लेने में ही असीम खुशी मिलती है.. :)

दो बजिया वैराग्य के सारे किस्त पढ़ने के लिए नीचे लेबल पर एक बार किलिकिया लें.. अपनी मार्केटिंग खुद करने का जमाना है, सोचा कुछ कदम ताल हम भी मिला लें जमाने के साथ.. :)

..............

आजकल खुद से लड़ाई चल रही है..
मन स्थिर नहीं हो पा रहा है.. कई तरह के अंतर्द्वंदो से घिरा हुआ मन आपस में ही टकरा कर जैसे अंदर ही घुटकर दम तोड़ दे रहा है..

Sunday, June 20, 2010

My Idol, My Dad

अभी दो-चार दिन पहले कि ही बात है.. एक Time Management Training Program में अचानक से पूछा गया, "Who is your idol? किसी और के कुछ कहने से पहले ही मेरे मुह से यंत्रवत निकल गया "My Dad." मुझे फिर अगला सवाल पूछा गया, "Why? You got lots of money from him, that's why?" मेरा कहना था, "Not lots of money. But yes, sufficient amount of money which helped me to start my life." अगला सवाल था, "Your dad is your idol only because of money, right?" मैंने कहा, "I strongly oppose to you. He is my idol because he completed his all responsibility towards his family and society perfectly. I can say that he is very good human being." आज कि यह पोस्ट एक साल पहले लिखी हुई है, आज इसी को रीठेल किये जा रहा हूँ.. :)

आज पापा जी कि याद बहुत आ रही है.. हर वे बातें याद आ रही हैं जो मैंने उनके साथ गुजारी थी.. इन यादों से मेरा एक अजीब रिश्ता बन चुका है, ये कभी भी मेरा पीछा नहीं छोड़ती हैं.. कोई भी ऐसी बात मैं भूल पाने में हमेशा खुद को असमर्थ पाता हूं, जिसे मैंने थोड़ी भी भावुकता के साथ जीया है.. वहीं कुछ काम की बातें हो तो उसे मैंने याद ही कब रखा है, मुझे यह भी याद नहीं नहीं है.. :)

जब से दक्षिण भारत में रहने को आया हूं, तब से घर छः महिने से पहले नहीं जा पाया हूं.. और यह अंतराल इतना अधिक हो जाया करता है, कि जब घर पहूंचता हूं तो पापा जी के चेहरे पर कुछ नई झुर्रीयां देखता हूं.. मन को बहुत तकलीफ होती है, लगता है जैसे पापा जी अब बूढ़े हो रहे हैं और धीरे-धीरे असक्त भी होते जा रहे होंगे.. इतनी समझ तो है ही मुझमें कि यह मनुष्य के जीवन का एक चक्र मात्र है.. कुछ वर्षों के बाद यह चक्र मुझे भी दोहराना है.. शायद कभी मैं भी बूढ़ा होउंगा, यह प्रश्न मुझे कभी परेशान नहीं करता है जितना पापा-मम्मी के चेहरे पर आती झुर्रियां.. सोचता हूं कि काश मैं ययाति वाले कथा को दुहरा पाता?

जब छोटा था तब पारिवारिक दायित्व बहुत अधिक होने के चलते मम्मी को हमेशा गुस्से में देखता था और हममें से कोई भी भाई-बहन उनके पास जाने से कतराता था.. उस समय पापा कि गोद हमारे लिये सबसे सुरक्षित जगह हुआ करती थी.. घर में सबसे छोटा होने का फायदा भी मैंने जम कर उठाया, और पापा कि गोद में 15-16 साल कि उम्र तक खेला हूं.. घर का सबसे बड़ा नालायक, सबसे ज्यादा गुस्सैल भी और पढ़ाई-लिखाई भी साढ़े बाईस.. और ऐसे में भी पापा जी का भरपूर प्यार मिलना, बिना किसी डांट-पिटाई के.. मम्मी पापा जी को अक्सर कहती थी, "यह अगर बड़ा होकर बिगड़ गया तो सारा दोष आपका ही होगा.." तो वहीं पापा जी भी झटक कर कह देते थे कि "अगर यह बड़ा होकर सुधरा तो सारा श्रेय भी मेरा ही होगा".. आज के परिदृश्य में वे लोग मुझे बिगड़ा हुआ मानते हैं या सुधरा हुआ यह तो वही बता सकते हैं.. मगर मैं अपनी नजर में अभी तक सुधरा हुआ तो बिलकुल भी नहीं हूं.. एक बेटे के बड़े होने के बाद वह अपने पापा मम्मी को जो भी सुख दे सकता है वो तो अभी तक उन्हें मुझसे तो नहीं मिला है..


चित्र में पापा, मम्मी, भैया और मेरा पुतरू(भैया का बेटा)..

छुटपन के बारे में याद करने कि कोशिश करता हूं तो एक प्लास्टिक का बैट और बॉल याद आता है, जिसे पापा जी नीचे से गुड़का कर(लुढ़का कर) फेकते थे और मैं उसे मारता था.. एक रेलगाड़ी भी याद आती है जिसमें प्लास्टिक कि रस्सी बंधी होती थी और उसे पकड़ कर खींचने पर शोर करती थी, जिसे कई बार पापा जी मेरा हाथ पकड़ कर खींचते थे.. एक कैरम बोर्ड याद आता है, जिसका स्ट्राईकर पकड़ना भी पापा जी से ही सीखा था कैरम के सभी नियमों के साथ और बाद में उसी कैरम को खेलते हुये मैं और भैया अपने गली-मुहल्ले के चैंपियन बन गये थे.. बैडमिंटन का वो छोटा वाला प्लास्टिक का रैकेट भी याद आता है जिसे खेलना भी पापा जी ने ही सिखाया था.. ये सभी यादे छः साल कि उम्र या उससे पहले की हैं..

थोड़े बड़े होने पर भी पापा जी के साथ क्रिकेट खेलने जाते थे और पापा जी हमेशा थ्रो बॉल फेंकते थे.. बिलकुल ऐसे जैसे पत्थर फेंक रहे हों.. पता नहीं ऐसे ही कितनी बातों का थ्रो पत्थर मैंने उनपर कितनी बार फेका है, उन पत्थरों से कितनी चोट भी पहूंचायी है.. फिर भी कभी इसका अहसास नहीं होने दिया उन्होंने मुझे..

एक बार किसी पर्सनैलिटी डेवेलपमेंट ट्रेनिंग में मुझसे कहा गया था कि 1 मिनट आंखें बंद करके उस क्षण को सोचो जब तुम्हें सबसे ज्यादा खुशी मिली हो.. मैंने आंखें बंद की और 1 मिनट ईमानदारी से सोचने के बाद मैंने पाया कि मेरे लिये वह क्षण सबसे ज्यादा खुशी का क्षण होता है जब घर पहूंचकर पापा जी का पैर छूने कि कोशिश करता हूँ मगर उससे पहले ही पापा जी मुझे सीने से लगा लेते हैं..

जब पापा जी के पके हुये बालों को और उनके चेहरे की झुर्रियों को देखकर मैं उन्हें चिढ़ाता हूं कि पापा जी अब बुढ़ा गये हैं तो उनका कहना होता है कि अब तो सठिया भी गये हैं.. आखिर दादा-नाना तो बन ही चुके हैं.. अगर आज के संदर्भ में देखा जाये तो मैं उनपर आश्रित नहीं हूं, और अगर शारीरिक सक्षमता कि बात आती है तो उनसे ज्यादा ही सक्षम हूं.. मगर फिर भी जब वे साथ होते हैं तो ना जाने एक अजीब सी हिम्मत बंध जाती है, की पापा जी मेरे साथ है तो सारी दुनिया भी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती है..

ऐसा क्यों होता है यह मुझे नहीं पता है, मगर मैं चलते-चलते यह जरूर कहना चाहूंगा कि मेरे पापा जी मेरे जीवन में मेरे एकमात्र हीरो हैं.. मैं हमेशा सोचता हूं कि काश कभी मैं अपने पापा जैसा आदर्शवादी और कर्मठ इंसान बन पाऊं..


यह विडियो पिछले साल 2009 22 अप्रैल, पापा-मम्मी कि शादी कि 32वीं सालगिरह की है..

Thursday, June 17, 2010

बस ऐंवे ही कुछ भी

उसे पता था कि मेरा फोन रोमिंग पर है, मगर फिर भी हम फोन पर लगे हुये थे.. चलो, इस सरकार में चावल दाल की कीमते भले ही आसमान छू रही हों, मगर कम से कम मोबाईल बिल रोमिंग पर भी कम ही आता है.. शायद सरकार बातों से ही जनता का पेट भरने के चक्कर में हों.. उसने पूरे उत्साह से बताना शुरू किया कि मैंने तुम्हारा पोस्ट पढ़ा भी और कमेंट भी किया.. सच कहूं तो मुझे घोर आश्चर्य हुआ, क्योंकि उसे अगर देवनागरी में कुछ लंबा मेल भी लिख देता हूं तो उससे बात करने पर उसकी चिढ़न साफ महसूस होती है.. उसे कंप्यूटर स्क्रीन पर देवनागरी पढ़ना बिलकुल पसंद नहीं है..

सारी बात बताने के बाद लड़ना चालू, "ओये, वो पूरी मैंने बनाई थी.. तू कैसे लिख दिया कि तूने जो बनाई वही तो मैं खाऊंगी?" और मेरा कहना था "आटा शिवेंद्र साना, पूरी तुम बेली, और उसे तला मैंने.. फिर तुम कैसे सारा क्रेडिट लिए जा रही हो?" खैर थोड़ी ही देर में हम अपनी ही बात पर टिके ना रह कर हँसने-चिढाने लगे.. :)

पिछले गुरूवार को तमिलनाडु एक्सप्रेस में उसे बिठा आया.. अच्छी तरह देख-भाल लिया कि ट्रेन गई कि नहीं? जब ट्रेन निकल गई तभी संतुष्टी हुई कि हां अब वापस नहीं आने वाली है.. ;)

मैंने अब तक कई लेख स्वजनों पर लिख रखें हैं.. अगर ब्लॉग से इतर लोगों की बात की जाये तो शायद ही किसी ने ब्लॉग पर ही प्रतिउत्तर में अपनी बात कही हो.. अक्सर मित्रगण ई-पत्रों के द्वारा अपने मन की बात कहते हैं, कई दफ़े वह भी नहीं.. मैं वैसे भी जिसके बारे में लिखता हूं, उनसे प्रतिउत्तर की उम्मीद नहीं रखता हूं.. अक्सर कई दफ़े मैं बताता भी नहीं हूं कि आपके बारे में कुछ लिखा है.. मगर चूंकि मैं यहाँ इसकी एक तस्वीर लगाना चाह रहा था, सो इससे पूछा कि लगाऊं कि नहीं, और इसे पता चल गया कि इसके बारे में कुछ लिखा गया है.. :) साथ ही साथ इसका एक कमेन्ट भी मिल गया..

इसने लिखा था :

इस सलीके से जिंदगी का तार बुना है
हर शहर से मसरूफियत का अलंकार जुड़ा है
नये लोगों को दोस्त बनाने मे होती है जो कशमकश
हर शहर के रास ना आने में छिपी वो वजह है

शायद अपनी बात ठीक से कह नहीं पायी मैं यहाँ...पर बताने का प्रयास जरूर करुँगी..मैं हिंदी ब्लॉग नहीं पढ़ती और प्रशान्त ये बहुत अच्छे से जानते हो तुम..पर मेरे बारे में क्या लिखे हो ये Thought थोडा Motivating था मेरे लिए...
बहुत कम शब्दों में पूरा मर्म कह दिया तुमने....
अपने परिवार, अपने दोस्त, अपने शहर से बाहर आने में तकलीफ होती है और कुछ भी नया अपनाने में विरोध होता है...वही विरोध झलकता है किसी नए शहर को कोसने में....पर विरोध में भी एक जुड़ाव है और वही जुड़ाव उस जगह से दूर जाने पर दिखता है..
मुझे तो ये फिकर है कि चेन्नई को कोस नहीं पाउंगी अब.. :-P पर तसल्ली के लिए एक नया शहर मिल गया है बैंगलोर....
बहुत अच्छी पोस्ट है तुम्हारी....या मुझे इसलिए पसंद आई क्योंकि मेरे बारे में थी???


अब मुझे मुक्ता से यह कहना है कि वह पोस्ट मैंने अच्छी लिखी थी या नहीं यह मेरे पाठकों पर ही छोड़ दिया जाए, तो अच्छा होगा.. तुम या मैं शायद निष्पक्ष होकर नहीं बता पायेंगे कि कैसी लिखी गई थी.. मगर तुम्हे कवितागिरी का क्या शौक चर्रा गया यार? I am either totally confused or surprised.. मुझे भी नहीं पता.. :D

वैसे यह बात सही कही तुमने दोस्त कि नई चीजें स्वीकार करने में मन में अक्सर एक विरोध होता है, और वही विरोध झलकता है किसी नए शहर को कोसने में.. मगर यह सच्चाई भी है कि परिवर्तन ही संसार का नियम भी है.. खैर मैं भी क्या दर्शन बांटने लग गया हूँ.. अच्छे से कोसना नए शहर को.. :)

नोट : मेरे विचार से आज कि यह पोस्ट घोर ब्लोगरिय पोस्ट है.. :D

वैसे अगर आप इस पोस्ट को पढेंगे तभी इस पोस्ट का मुआमला कुछ-कुछ समझ में आएगा.. :)

Friday, June 04, 2010

ब्लाह..ब्लाह..ब्लाह..

"मैं बहुत कम बोलती हूं ना, सो कभी-कभी बहुत दिक्कत हो जाती है.." पिछले दस मिनट से लगातार बोलते रहने के बाद एक लम्बा पॉज देते हुये वो बोली..

कुछ दिनों से लग रहा है कि हिंदीभाषी अब धीरे-धीरे बढ़ते जा रहे हैं मेरी कंपनी में, आज से तीन साल से तुलना करने पर उत्तर भारत के अधिक लोग दिखाई पड़ते हैं अब..

"मुझे यहां कोई हेल्प नहीं किया, जो कुछ अभी आता है वो सब खुद से ही करके सीखे हैं.. अरे, मैं भी कैसी हूं ना! तभी से खा रही हूं और आपसे पूछा भी नहीं.. मेरे बगल में बैठती है ना, क्या नाम है उसका? हां *******.. अभी परसों कुछ पूछे तो डांट दी.. मुझे रोना आ गया.. अब आप ही बताईये, आपसे कोई पूछता है तो आप उसे डांट दोगे क्या? आता है तो बता दो, आपका क्या जाता है.. नहीं आता है तो वही बोल दो.. और अगर टाईम नहीं है तो यही बोल दो.. डांटने कि क्या जरूरत है? अरे ये गट्टा आपको कैसा लगा? मम्मा बनाई है.. बहुत अच्छा बनाई है.. चावल का है, बेसन का नहीं.."

वो लगातार बोले जा रही थी.. पिछले तीन महिने से वो मेरे ही प्रोजेक्ट में मगर एक दूसरी टीम में एज अ ट्रेनी ज्वाईन की है.. हर दिन दोपहर साढ़े तीन बजे के लगभग मैं कैंटीन में जूस पीने जाता हूं, आज वह थोड़ी देर से खाना खाने आयी थी तो मुलाकात हो गई.. अमूमन इस समय कोई कैंटीन में होता नहीं है, मेरे इसी समय जाने कि असल वजह थोड़ी देर अकेले बैठने की ख्वाहिश होती है और उस समय पापाजी को अक्सर फोन भी किया करता हूं.. उसने साथ बैठने का ऑफर दिया तो मैंने मना नहीं किया.. पहली बार गौर से देख भी रहा था.. अगर दूरदर्शन के गुमशुदा तलाश केंद्र वाले उसके बारे मे बताते तो वह कुछ ऐसा होता - "कद पांच फुट दो इंच, रंग गेहुवा और चेहरा गोल है, दायें आंख के ऊपर कटे का निशान है.." :D

"मेरे साथ सबसे बड़ी प्रोब्लेम ये है कि मुझे जो आता है वो मैं समझ सकती हूं, मगर दूसरे को समझा नहीं सकती हूं.." अब अगर किसी दूसरे कि बातें अपनी सी लगती है तो आश्चर्य नहीं होता.. अब लगता है कि हर कोई किसी ना किसी मायने में हर किसी सा ही होता है.. "बचपन से चेन्नई में हूं मगर तमिल में परफेक्शन अभी तक आया नहीं है.. और चाहे कुछ भी, मगर अपने लोगों का एक्सेंट इनसे अलग होता है, सो कई बातें कहना कुछ और चाहते हैं और ये समझते कुछ और हैं.." हम्म्म!! ये भी अपना भोगा सत्य है.. मगर तीन साल में ही इससे मुझे निजात मिल गई है.. यह तो बचपन से है, अभी तक अपना एक्सेंट बदल नहीं पायी है.. हद्द है भाई.. "मुझे यहां काम करने में बिलकुल मन नहीं लगता है, मुझे जो टेक्नोलोजी पसंद है उस पर काम नहीं करा के मुझे विजुअल बेसिक पर काम दे रखा है.. मुझे जावा पसंद है.." यह कौन सी नई बात है.. यहां तो हर दुसरे प्रोजेक्ट में जाने पर एक नई टेक्नोलोजी पर काम करना पड़ता है.. मगर सोचने कि रफ़्तार बढती ही जा रही थी, वैसे भी अगर आप बोल नहीं होते हैं तो कुछ सोच रहे होते हैं..

वहां से उठने से पहले मैंने उसे सिर्फ इतना ही कहा कि अगर कोई भी डांटे तो उसी समय उसे बोल दो कि "यू शुड नॉट टॉक विथ मी लाईक दिस. इफ यू हैव एनी प्रोब्लेम देन गो थ्रू प्रोपर चैनल..".. "ओह!! ऐसा होता है क्या?".. "हां! कोई ऐसे ही किसी को नहीं डांट सकता है.. चाहे कोई भी हो, CEO ही सही.. कम से कम इस कंपनी में तो ऐसा ही है.."

अभी कुछ दिनों पहले मेरा एक मित्र भी कुछ ऐसे ही सवाल पूछ रहा था और शिकायत कर रहा था कि कोई मदद भी नहीं करता है.. शुरूवात में मेरी भी यही समस्या थी.. अब लगता है कि मैं इन सबसे ऊपर उठ चुका हूं.. ;)

जिस तरह से लगातार बोले जा रही थी, उससे तो मैं इसी बात पर खुश हूं कि मुझे इस तरीके का कोई सवाल नहीं पूछना पड़ा कि "हां बसंती, तुम्हारा नाम क्या है?" :D

Tuesday, June 01, 2010

एक शहर, मसरूफियत और जिंदगी

अब उसका यहाँ चेन्नई से जाना लगभग तय हो चुका है.. एक तरह का काउंटडाउन चल रहा है.. कल तक जब उसका जाना तय नहीं था तब वह हर दूसरे-तीसरे दिन चेन्नई को कोसती हुई मिलती थी.. और किसी तरह यहाँ से भागने कि इच्छा जताती रहती थी.. दफ्तर में वर्क प्रेसर भी सामान्य से कुछ अधिक ही था उसे, ऊपर से अपने टीम के भीतर की राजनीति में भी बुरी तरह पिसी हुई थी.. कुल मिलाकर माहौल कुछ ऐसा बन भी चुका था कि कोई भी वह शहर ही छोड़ कर भागने को छटपटाने लगे..

जिसके बारे में बता रहा हूँ उसका नाम मुक्ता है..

कल मैंने उसे अपने घर खाने पर बुलाया था, और एक अरसे बाद कई घंटे बैठ कर बातें हुई.. जिंदगी मुसलसल कुछ इस तरह उलझा देती है कि एक ही शहर में रहते हुए भी मसरूफियत में मिलने का ख्याल भी नहीं आ पाता है.. उसका कहना था कि जमाने बाद पूरी खा रही है(मैंने जो बनाया था, वही तो खायेगी न :))..

इससे दोस्ती भी अजीब तरीके से हुई.. यह मेरी कालेज के मित्र कि मित्र है, और जब TCS वालों ने इसकी पोस्टिंग चेन्नई दे दी तब मेरी मित्र की मित्र ने इसे मेरा नंबर देते हुए कहा की "प्रशान्त चेन्नई में है, और उससे जो भी मदद करने को कहोगी, वह कर देगा".. अब मैंने कितनी मदद की, इसका हिसाब तो इसे ही बैठाने दिया जाए..

यह कई दिनों से चेन्नई से बाहर जाने कि जुगत में लगी हुई थी, मगर TCS के भीतर ही.. यह प्रयास कर रही थी Relocation का.. पहले इसके जाने का दिन भी तय हो गया था.. मगर फिर अचानक से इसे कहा गया कि चाहे कुछ भी हो, छः महीने से पहले टीम से Release नहीं किया जा सकता है.. ठीक उसी समय इसे Wipro में नई नौकरी मिल गई और आनन-फानन में Resign मार कर निकल गई वहां से..

अब जब इसके जाने के दिन पास आ गए हैं तब इसकी बातों में चेन्नई को लेकर कोई कसक नहीं दिख रही थी, उल्टा कहीं ना कहीं इस शहर से एक लगाव सा भी झलक रहा था.. इसका कहना था, "इस शहर ने मुझे बहुत कुछ सिखाया है.. कम से कम एक इंसान के कई चेहरे के दर्शन मुझे चेन्नई में ही हुए".. मेरा मानना है कि अगर हालात बहुत कठिन हों तो आपको कई बातें अपने आप ही सिखने को भी मिल जाती है..

चेन्नई शहर में रहते हुए भी पहले साल में सिर्फ एक बार इससे मिला था.. अगर दूसरे साल कि बात याद करूँ तो इससे हुए मुलाक़ात को भी अँगुलियों पर गिन सकता हूँ.. मगर हाँ, पिछले छः महीने में इससे मिलने कि रफ़्तार में कुछ तेजी आई थी.. अकेलेपन कि कुछ साथियों में इसका नाम भी शुमार कर सकता हूँ.. जब यह चेन्नई में ही थी तब भी कम ही मिलता था.. हम दोनों कि ही अपनी व्यस्तताएं थी.. अब भी कम ही मिलूँगा.. मगर एक-एक करके साथियों का चेन्नई छोड़ कर जाना अखर रहा है..

यह जब परेशान थी तब मैं चाहता था कि इसे कोई नई नौकरी मिल ही जाए चेन्नई से बाहर, जिस दिन इसे नौकरी मिली उस दिन मैं भी खुश था कि चलो इसे टेंशन से छुटकारा तो मिला.. मगर जैसे-जैसे इसके जाने के दिन आ रहे हैं, वैसे-वैसे कुछ अच्छा नहीं लग रहा है.. कम से कम एक तसल्ली तो है कि अधिक दूर नहीं है, बैंगलोर में ही तो रहेगी.. फिलहाल तो चेन्नई में एक और साथी कि कमी महसूस होगी..

इस चित्र में - यह चित्र इसके फेसबुक के प्रोफाइल से लिया हूँ मैं..

मुझे पता है कि यहाँ "मसरूफियत" कि स्पेलिंग सही नहीं है, क्या कोई मुझे बताएँगे कि सही क्या है?