Wednesday, February 24, 2010

मेरा सामान

एक दफ़ा जब याद है तुमको,
जब बिन बत्ती सायकिल का चालान हुआ था..
हमने कैसे, भूखे-प्यासे, बेचारों सी एक्टिंग की थी..
हवलदार ने उल्टा एक अठन्नी देकर भेज दिया था..
एक चव्वनी मेरी थी,
वो भिजवा दो..

सावन के कुछ भींगे-भींगे दिल रक्खे हैं,
और मेरी एक ख़त में लिपटी रात पड़ी है..
वो रात बुझा दो,
और भी कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है,
वो भिजवा दो..

पतझड़ है कुछ,
पतझड़ में कुछ पत्तों के गिरने की आहट,
कानों में एक बार पहन कर लौट आई थी..
पतझड़ कि वो साख अभी तक कांप रही है..
वो भिजवा दो,

एक सौ सोलह चांद की रातें,
एक तुम्हारे कांधे का तिल..
गिली मेंहदी की खुश्बु,
झूठ-मूठ के शिकवे कुछ..
सब भिजवा दो..

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8 comments:

  1. पहली बार पढ़ा, सुना और देखा है। सुंदर भेंट के लिए आभार!

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  2. अरे वाह बहुत सुंदर कविता, बर्बस ही होंठो पर मुस्कान आ गई ओर गीत के तो कहने ही क्या मेरी पसंद का जो है.
    धन्यवाद

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  3. ऐसे भाव अनायास ही आ जाते हैं...बात तो कुछ और होती है वरना इतना हिसाब किताब भला कौन करता है...

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  4. बहुत सुंदर रचना और गीत सुन कर बताते हैं.

    रामराम.

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  5. प्रस्तुति क़ाबिले-तारीफ़ है।

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  6. ham soche ki aaj tum apane saaman ki list lagaa doge blog par taaki yaad rahe ki ye prashant kaa ye kisi or kaa.. par ye kyaa tum to gaanaa thel diye..:)

    meraa bhi manpasand..

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  7. कई बार देखा, सुना और भीतर तक महसूस किया है....भाई जी आजकल कुछ दूसरी ही लय में आ गये हैं....

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