Thursday, February 25, 2010

ऐसा खुदा जिसने आवारागर्दी और यायावरी सिखाया


अब वह बात पुरानी हो चुकी है.. लोग उसे भगवान कहते कहते शायद भगवान मान भी लिए हों क्रिकेट का.. छुटपन में सपने देखते थे कि सचिन वन डे में दोहरा शतक जमाये.. बड़े होने के साथ वह दीवानगी कम होती गई.. आज जब उसने लगा ही दिया तब याद आया, कि इसी तवारिख़ का इन्तजार हमें बीस वर्षों से था..

मजे कि बात तो यह कि जब वह दोहरा शतक लगा रहा था तब एक बेजान सी बात पर हमारे टीम के सभी सदस्य बहस कर रहे थे.. वे बेचारे क्या जाने कि इस शतक का मोल क्या है? क्या पता उन्हें अपने बाकी बचे जीवन में फिर यह नजारा देखने को मिले भी या नहीं? और अगर मिले भी तो कहीं वह भारत के ही खिलाफ ना हो.. इधर बहस गर्म होती जा रही थी और उधर हमारा ध्यान सामने कमेंट्री सुन रहे कुछ लोगों पर था.. अचानक से एक थम्स-अप का इशारा आया, और हम समझ गए कि हो गया आज कारनामा..

उस समय शायद सात-आठ साल का रहा होऊंगा जब उसे टीवी पर खेलते देखा था.. एक बच्चा खुद से ७-८ साल बड़े को बच्चा कहने कि तोहमत भी लगा गया था.. अरे, एक बच्चा पाकिस्तानियों को पीट रहा है.. उस जमाने में 'साला' ही सबसे बड़ी गालियों में शुमार था.. मगर पाकिस्तानियों को साला कहने कि हिम्मत भी नहीं थी, मगर सचिन फिर भी उसे धोए जा रहा था..

उसके बाद के कुछ और किस्से याद हैं.. सन 1992 का आस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड में हुआ विश्व कप.. छठी कक्षा में था तब.. जाड़े कि ठिठुरती ठंढ में स्कूल से भाग कर घर आया करते थे.. स्कूल से भागने का गुर भी इसी मुए ने सिखाया था हमें, जो कालेज के जमाने तक काम आया.. एक शुक्रिया उस यायावरी कि शुरुवात कराने के लिए भी..

अखबार और इण्डिया टुडे में उसके फोटो आने पर कटिंग काट कर अपने नोटबुक के भीतर छुपाते थे तब.. कुछ टुकड़े अब भी उस टीन कि पेटी के अंदर घुसी पड़ी होगी.. कुछ-कुछ अजायब घर सा माहौल रहता है उस पेटी का.. कुछ बचपन में पढ़ी कहानी कि किताबे.. कुछ पहले प्यार के कुछ किस्से गिफ्टों कि शक्ल लिए हुए.. कुछ कामिक्स के फ्री में मिले हुए मैग्नेटिक स्टीकर... और उन सब के बीच सचिन और माराडोना के अख़बारों से ली हुई कटिंग.. अब तो उस जमाने के कतरन कुछ-कुछ एंटीक पीस सा माहौल बनाते हैं.. ये दो खेल एक ऐसी दीवानगी लिए हुई थी कि पहले प्यार कि दीवानगी फीकी पर जाए.. शायद जैसे-जैसे उम्र बढती जाती हैं, वैसे-वैसे ही दीवानगी कि कीमत भी बढती जाती है.. जिसे अदा ना कर पाने कि एवज में उस दीवानगी से मरहूम रह जाते हैं..

मैट्रिक में खराब नंबर आने पर मैंने कहा, सचिन भी तो एक दफे फेल हो चुका है.. तो मैंने कौन सा बुरा काम कर दिया.. फिलहाल जो नंबर आया था उसकी सजा अब तक भुगत रहा हूँ.. थ्रू-आउट सिक्सटी परसेंट का होर्डिंग लगभग हर नौकरी देने वाले के दरवाजे पर टंगे दीखते हैं.. मानो एक ऐसा गुनाह किया हो जिसका मुआफीनामा भी कबूल नहीं..

फिर कुछ दिन यूँ ही गुजरे.. सचिन कप्तान बने और खुद कप्तानी छोड़ी.. उन दिनों उनके किसी इंटरव्यू में पढ़ा था और उसका खूब मजाक भी बनाया था.. सचिन ने कहा था कि उसका सपना वन डे में पन्द्रह हजार रन बनाने का है.. और तब सचिन उस खूबी से अपनी बल्लेबाजी कि जिम्मेदारियों को नहीं निभा पा रहे थे.. हम भी किसी संगदिल बेवफा सनम कि तरह सचिन का साथ छोड़ गांगुली के हिस्से टपक गए थे.. फिर 1996 आया और चला गया.. सचिन ने खूब खेला, मगर लोगों को काम्बली का रोता चेहरा और श्रीलंकाईयों का खुशी से उछालना ही याद रहा.. तब तक पटना का सफर हमने भी तय कर लिया था.. एक ऐसा युग जिसे मैं सचिन का डार्क एज कहता हूँ..

फिर सचिन ने कप्तानी खुद छोड़ी और पहुंचे बंगलादेश.. इंडिपेंडेंस कप खेलने.. १८ जनवरी का वह तारीख मुझसे भूले भी ना भूलता है.. जब पहली बार किसी टीम ने तीन सौ से अधिक आंकडो का पीछा करते हुए उसे हराया था.. अब अगर जीतने वाला भारत हो और हारने वाला पकिस्तान, और वह भी कोई रिकार्ड का सा बनाते हुए, तो भला उस तारीख को भूलने का जुर्म हम कैसे कर सकते हैं? फिर वह साल तो जैसे सचिन के ही नाम होकर रह गया.. पूरे नौ शतक.. कई खिलाडी पूरे जीवन भर नौ शतक नहीं बना पाते हैं और इस खुदा ने एक साल में वह कर दिखाया.. फिर वह शारजाह कि जमीं पर लगातार लगाये दो शतक, जिसने शेन वार्न के जीने कि दिशा ही बदल कर रख दी, उसे भला कौन भूल सकता है.. पहले लगाये शतक में पहले लगाये दो छक्कों के बार कमेंट्री बाक्स में जो हलचल और रोमांच पैदा की थी, वह रोमांच मैंने अभी तक के किसी भी टेलीविजन कमेंट्री में नहीं सुनी है..

एक किस्सा याद आ रहा है.. स्कूल में मार-पीट करने जैसे आवारा कामो कि सीख भी यही रहनुमा दे गया है मुझे.. तब कहीं से कोई खबर पढ़ी थी कि सचिन को बचपन में टेनिस खिलाडी बनने का शौक था और इसके हीरो शायद जिमी कार्नर हुआ करते थे.. फिर क्या था.. हमने तो बेफिक्री में कह दिया, सचिन सचिन है.. यह आज अगर टेनिस भी खेलता होता तो भारत के पास ३०-४० ग्रैंड स्लैम होते.. कुछ लड़के इसे मानने को तैयार नहीं थे.. अब कोई मेरे खुदा को ना माने और हम उसे काफिर ना करार दें, ऐसा भी कहीं होता है.. बस वह मुलाक़ात उसी वक्त मुक्का-लात में भी बदल गई.. सनद रहे के आवारागर्दी कि डायरी को मोटी करने में, कुछ पन्ने सचिन के नाम भी शहीद हुए है..

लिखते ही जा रहा हूँ.. अभी इसे यहीं रोकता हूँ.. अगर मिज़ाज ठीक रहे तो आगे भी लिखूंगा.. :)

Wednesday, February 24, 2010

मेरा सामान

एक दफ़ा जब याद है तुमको,
जब बिन बत्ती सायकिल का चालान हुआ था..
हमने कैसे, भूखे-प्यासे, बेचारों सी एक्टिंग की थी..
हवलदार ने उल्टा एक अठन्नी देकर भेज दिया था..
एक चव्वनी मेरी थी,
वो भिजवा दो..

सावन के कुछ भींगे-भींगे दिल रक्खे हैं,
और मेरी एक ख़त में लिपटी रात पड़ी है..
वो रात बुझा दो,
और भी कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है,
वो भिजवा दो..

पतझड़ है कुछ,
पतझड़ में कुछ पत्तों के गिरने की आहट,
कानों में एक बार पहन कर लौट आई थी..
पतझड़ कि वो साख अभी तक कांप रही है..
वो भिजवा दो,

एक सौ सोलह चांद की रातें,
एक तुम्हारे कांधे का तिल..
गिली मेंहदी की खुश्बु,
झूठ-मूठ के शिकवे कुछ..
सब भिजवा दो..

Monday, February 22, 2010

दिमाग का एक और फितूर


मन में ठान लिया था कि अब नहीं सोचूंगा, बहुत सोच लिये और सोच-सोच कर दुखी भी हो लिये.. अब खुश रहना चाहता हूं.. वैसे भी जीवन ने यही पाठ पढ़ाया है कि जिसके लिये हम सोचते हैं और दुखी होते हैं उसके लिये हमारे प्रति उन सोच, प्यार, आदर, सम्मान का कोई मोल नहीं होता है.. और जिसे हम बस यूं ही लेकर चलते हैं तो बाद में पाते हैं कि खजाना उधर ही छुपा हुआ है.. अधिकांश अनुभव तो ऐसे ही हैं अपने..

जिंदगी फिर एक नई करवट लेने का प्रयत्न कर रही है.. पता नहीं इस बार ऊंट किस करवट बैठेगा? बचपन से इस बात को घुट्टी में घोंट के पिला दिया गया है कि परिवर्तन ही संसार का अकाट्य सत्य है, और ये मन है कि जब तब इस बात को मानने से इंकार करने लगा तब जिंदगी ने भी वापस वही पाठ पढ़ाया.. पता नहीं दूसरे किस प्रकार के होते हैं, मैं तो किसी भी परिवर्तन से बहुत घबराता हूं.. चाहे बात रिश्तों में हुये परिवर्तन की हो या फिर किसी साफ्टवेयर का नया अपग्रेड वर्सन ही उपयोग में लाना हो.. हां, नई तकनीक को आसानी से स्वीकार करना व्यसायिक मजबूरियों ने सीखा दिया है, सो अब यहाँ सब आसान लगने लगा है.. नहीं तो वह भी आसानी से बदलना नहीं चाहता था मैं.. देखता हूँ कि जिंदगी कब सिखाती है परिवर्तन को आसानी से स्वीकार करना?

हां, मैं स्पष्ट रूप से स्वीकार करता हूं कि मुझे परिवर्तन अधिक नहीं सुहाता..

अभी घर जाने की कवायद चल रही है.. दफ़्तर में छुट्टियां लेने से लेकर कुछ खरीददारी करने तक.. हर बार घर जाने से पहले सोचता हूं कि मां से खूब बातें करूंगा.. जो बातें फोन पर नहीं कर पाता हूं, या फिर जिसे फोन पर कहने में हिचक होती है, वो सब कह डालूँगा.. मगर ये हो नहीं हो पाता है.. किसी ना किसी प्रकार कि व्यस्तता घेर लेती है.. फिर भी अगर समय निकलता है और मम्मी के गोद में सर रख कर चैन से लेटा होता हूं तब पाता हूं कि सामने वह बात कहना और भी मुश्किल है.. फोन अधिक आसान कर देता है कुछ भी कहना.. कई बाते ये सोच कर भी नहीं कहता हूँ कि शायद कह दूं तो वे यह सोच कर परेशान होंगे कि बेटा उदास है या फिर परेशान है..

छः साल बाद होली पर घर में रहूंगा.. मुझसे अधिक उत्साहित घर के लोग हैं.. एक तरह से इंतजार किया जा रहा है मेरा वहां..

फिलहाल तो छाया गांगुली जी का गाया एक गीत सुन रहा हूं.. जिसके बोल हैं,

"जब फागुन रंग झमकते हों,
तब देख बहारें होरी की..
परियों के रंग दमकते हों,
जब शीशे जाम झलकते हों..
महबूब नशे में छकते हों..
तब देख बहारें होरी की.."


अगर मौका लगा तो अगले पोस्ट में इसे पोडकास्ट करता हूँ.. :)

चित्र गूगल से सर्च करके लिया गया है. जिस साईट से लिया गया है वहाँ कापीराईट का कोई T&C मुझे नहीं दिखा. अगर किसी को आपत्ति हो तो बताये, आपत्ति जायज होगी तो चित्र हटा लिया जायेगा.

Monday, February 15, 2010

समय बड़ा बलवान हो भैया!!

जैसे-जैसे समय भागता जा रहा है, ठीक वैसे-वैसे ही मायूसी भी बढ़ती जा रही है.. लगता है जैसे दोनों समानुपाती हैं.. डर लगता है, कहीं मायूसी डुदासी का और उदासी अवसाद का सबब ना बन जाये.. मुझे इस मायूसी के कारणों का भी ज्ञान है, मगर वे कुछ वैसी ही बातें हैं जिसे मैं किसी से भी बांटना नहीं चाहूंगा!! देखता हूं कि आगे क्या होता है? वैसे भी कहा गया है, "समय से पहले और भाग्य से अधिक किसी को कुछ नहीं मिलता है" और मजे कि बात ये है कि आजकल मैं ये मानने भी लग गया हूँ..

कल रात बैंगलोर से बस पकड़ते समय मम्मी को एक एस.एम.एस.लिखा था.. "miss you mommy!! :'( "

Monday, February 08, 2010

दिल में बैठा एक डर

सुबह अमूमन देर से उठता हूं, दफ़्तर का समय भी कुछ उसी समय होता है.. मगर आज जल्दी नींद खुल गई.. सुबह के दैनिक क्रिया से निवृत होकर अपना मेल बाक्स चेक कर ही रहा था कि उधर से मेरे मित्र का फोन आया.. बेहद हड़बड़ी में था.. हेलो बोले बिना बोला "जल्दी से मेरे लिये पटना का एक फ्लाईट बुक करा दो".. उसका इतना कहना था और मैं समझ गया कि मसला क्या है.. मगर फिर भी प्रतिक्रिया में मेरे मुंह से अचानक निकल गया, "पटना!! क्यों क्या हुआ?" उधर से बस इतनी आवाज आई "पापा!!" और फफकर रोने लगा.. दो-तीन सेकेण्ड बाद फोन काट दिया.. मिनट भर किंकर्तव्यविमूढ़ जैसी स्थिति में रहने के बाद मैंने नेट पर टिकट चेक किया और नेट पर टिकट मिलने में देर लगने कि स्थिति जान अपने दूसरे मित्र को फोन किया, कि तुम टिकट बुक कराओ और मैं उसे लेने घर से निकलता हूं..

दो मिनट के भीतर मैं घर से बाहर अपने बाईक पर था.. बाईक चलाना मेरे शौक में शामिल होते हुये भी चलाने में दिल नहीं लग रहा था और इसी कारण से मैंने अपने घर से अशोक पिलर तक की दूरी नापने में अभी तक का सबसे अधिक समय लगा.. बहुत संभल कर और धीरे-धीरे चला रहा था.. रास्ते में दो-चार आंसू भी ढलक गये..

बाद में जब अपने मित्र को फ्लाईट पर चढ़ा कर वापस घर आया तब जाकर यह अहसास हुआ कि दुःख से अधिक मन में कहीं डर बैठा था.. कभी ना कभी मेरे साथ भी यही होने वाला है जैसा डर.. अपने आस पास खुद से बड़े उम्र के लोगों में ऐसी स्थिति पहले भी देखी है, यहां तक कि अपने पापा-मम्मी के साथ भी.. मगर अपने बेहद अभिन्न मित्र के साथ भी ऐसा ही होने पर मन बेहद टूटा सा महसूस हो रहा है..

बार-बार सोच रहा हूं, "क्या इसी के लिये हमें घर से बाहर निकलना पड़ता है? जिसे लोग जीवन कि उन्नति समझते हैं वो ऐसे कीमत पर भी मिले तो भी क्या हम सफल होते हैं?" अभी मेरे मन में श्मशान वैराग्य जैसा कुछ भी नहीं है.. थोड़े से आक्रोश के साथ थोड़ी सी लज्जा भी है मन में इस जीवन के प्रति.. अपनो के लिये कुछ ना कर पाने कि छटपटाहट भी है साथ में..

लज्जित हूं अपने मन में आयी एक बात को लेकर.. मन में एक बात आयी थी कि कुछ और बेहतर स्थिति में आने पर पापा-मम्मी को लेकर अपने पास आ जाऊंगा.. फिर मुझे इसमें अपना स्वार्थ दिखने लगा.. जिस जगह उन्होंने अपना पूरा जीवन गुजार दिया, उसे छोड़ कर आने में क्या उन्हें कष्ट नहीं होगा? और मैं सब छोड़ कर वापस जाने कि स्थिति में हूं नहीं..

अजीब सा कश-म-कश चल रहा है मन में.. जीवन कि विडंबनायें भी अजीब होती हैं..

चलते-चलते : वैसे यह अजीब शब्द भी कुछ अजीब नहीं होते हैं!! कुछ समझ में ना आये तो वह अजीब.. कुछ लीक से हटकर घटे तो वह अजीब.. नई चीज अगर समझ में ना आये तो वह अजीब.. यूं तो इस संसार में हर कोई किसी ना किसी मायने में अजीब ही होते हैं..

अभी एक दो दिन पहले कि ही बात है.. हम चार मित्र बैठकर यूं ही बातें कर रहे थे.. मेरे मित्र ने बातों ही बातों में कहा कि उसके गांव के लोगों का मानना है कि अगर इस गांव में किसी एक कि मौत होती है तो एक के बाद एक लगातार चार और लोगों कि भी मृत्यु होती ही है और अभी तक दो लोगों कि मृत्यु हो चुकी है.. हमने मजाक ही मजाक में कहा कि हम सभी मिलकर तुझे ही मार देते हैं.. आज जब उसे विदा करने को फिर से हम चारों मित्र एयरपोर्ट पर थे तब वही बात उठी, और हमारा कहना था कि अब अगर ऐसे हालात हों तो इस अंधविश्वास पर हमारे मित्र का विश्वास और भी बढ़ जायेगा, और एक तरह से यह भी और दो का इंतजार करने लगेगा.. जब हम ये बातें कर रहे थे तब हमारा मित्र कहीं और गया हुआ था..

कुछ बाते जो मुझे हद्द दर्जे तक परेशान करती हैं.. हमेशा..

अमूमन मेरी कोशिश रहती है कि हद तक किसी से झूठ ना बोलूँ.. मगर एक आम इंसान कि तरह सच को मैं भी छुपाता हूँ.. खासतौर से जब पूरी तरह से मेरी बात हो तब झूठ बोलने कि अपेक्षा मैं कुछ ना कहना ही पसंद करता हूँ.. वैसे भी मेरे साथ ऐसे किस्से कम ही आते हैं जब मुझे किसी से अपने बारे में कोई बात छुपानी पड़ी हो.. नहीं तो आमतौर से कोई मुझसे मेरे बारे में कुछ भी पूछता है तो मैं बिना किसी लाग लपेट के सही सही बता देता हूँ.. जीवन के कई मोड पर इससे कई बार नुक्सान भी उठाना पडा है, मगर फिर भी मेरे लिए चलता है.. मैं यहाँ सिर्फ और सिर्फ अपने बारे में ही लिख रहा हूँ, अगर बात किसी और के बारे में है तो मैं अक्सर उन विषयों पर बाते ना करके उसे छिपा भी जाता हूँ.. मैं भला क्यों किसी और कि परेशानी की गवाही किसी और के सामने क्यों दूं?

मेरे जिंदगी का सौ फीसदी ना भी तो कम से कम नब्बे फीसदी बाते मेरे आस पास रहने वाले लगभग सभी को पता है.. मगर बाकी के दस फीसदी फिर भी मुझे कभी ना कभी कुरेदती है.. अंदर तक भेदती है.. लगता है कि मैं जमाने से नहीं, खुद से ही कुछ छिपा रहा हूँ.. और वे बाते ऐसी हैं जिसे मैं सिर्फ अपने लिए ही छोड रखा है.. भला कुछ तो अपना हो, हर बात दूसरों को कह कर दिल कि भड़ास निकाल लेना भी ठीक नहीं.. मगर वह जो मन के अंदर है, उससे कुछ हमेशा सा रिसता सा महसूस होता रहा है.. टीस हमेशा उठती रही है.. कभी-कभी सोचता हूँ कि यह भी किसी बेहद अपने को सूना कर मन हल्का कर लूं.. अपने आस पास तलाशता हूँ किसी ऐसे उपयुक्त शख्स को.. मगर कोई मिलता नहीं, और शायद उन बातो को मैं किसी से बांच सकूं.. ऐसा कोई मिलेगा भी नहीं.. अपनी उन कमियों को मैं किसी के सामने जाहिर नहीं कर सकता.. खुद कि उन कमियों से खुद को मैं किसी के भी सामने कमजोर नहीं देख सकता.. वैसे यह ब्लॉग ही है जो मेरे हर कन्फेशन को शांति से सुनता रहा है.. मगर इस ब्लॉग के हिस्से भी वे दस फीसदी नहीं हैं..

ऐसी कई बाते हैं, जिसे सुनकर जो भी मेरा भला चाहते हैं वे मुझे कम से कम घंटे भर का लेक्चर भी सुनायेंगे.. पता नहीं इंसान अपनी कमजोरी से हमेशा क्यों भागना चाहता है.. कुछ कुंठाएं अगर मन में बैठी हों तो सारे जमाने कि कुंठाए क्यों दिखने लगती है?

आज फिर जाने क्या-क्या बकवास लिखने बैठ गया हूँ..


चलते-चलते : कई लोग मुझसे कहते हैं कि मैं पुरानी बाते बहुत सोचता हूँ.. कंचन दीदी ने तो मेरा नाम ही नौस्टैल्जिया ही रख दिया है.. यहाँ मैं कुछ पुरानी बातों का जिक्र करते हुए भी नौस्टैल्जिक टाइप नहीं लिखा.. वैसे मूड तो अभी भी कुछ-कुछ वैसा ही है.. :)

Saturday, February 06, 2010

कुछ चित्रों कि रंगीनियत से बुना गया पोस्ट

इस पोस्ट में डाले गए सभी चित्र मुझे बेहद खास पसंद हैं, और मेरे ही द्वारा लिए गए भी हैं.. लगभग सभी चित्र हाल-फिलहाल में लिए गए हैं, और इनमे मैंने किसी भी प्रकार कि छेड़छाड़ किसी साफ्टवेयर के द्वारा नहीं की है.. यह अपने पूर्ण प्राकृतिक अवस्था में है..









यहाँ आप अपनी पसंद बताएं फिर मैं अपनी पसंद बताता हूँ.. कल इसी समय.. :)

Friday, February 05, 2010

अ फ्राईडे (अ वेडनेसडे कि तर्ज पर एक साफ्टवेयर कंपनी में)

प्रोजेक्ट मैनेजर राठौर - कौन हो तुम..??? क्या पहचान है तुम्हारी ?

फोन से - कौन हूं मैं!! मैं वो हूं जो आज कमिटमेंट करने से डरता है, मैं वो हूं जो आज घर जाने से डरता है, ये सोच कर की कहीं घर वाले पहचानने से इंकार ना कर दें...

मैं वो हूं जो, आज जॉब चेंज करता है तो सोचता है कि कहीं रिसेशन मे मुझे कंपनी से ना निकाल दे..

मैं वो हूं जिसकी गर्लफ्रेंड उससे फ्राईडे को दस बार फोन करती है, "क्या कर रहे हो?? काम ज्यादा है?? थक गये हो??"

मेरा हाल पूछने के लिये या काम पूछने के लिये नहीं, राठौर साब... बल्की वो ये जानना चाहती है कि कहीं हमेशा कि तरह इंड मोमेंट पर बॉस के बुलाने पर मैं शनिवार कि डेट कैंसिल तो नही कर रहा!!!

मैं वो हूं जो ब्रेकफास्ट के टाइम पर डिनर करता है, लंच टाइम पर ब्रेकफास्ट करता है, डिनर के टाइम पर लंच करता है.. वो भी टाइम मिल जाए तो...

मैं वो हूं जो अक्सर फंसता है.. कभी इंटर्व्यू के सवाल में फंसता है, कभी बड़ी कंपनियों के जाल में फंसता है, कभी बॉस और क्लाइंट के बवाल में फंसता है...

प्रोजेक्ट दफ़्तर की भीड़ तो देखी होगी आपने राठौर साब... उस भीड़ में से कोई भी चेहरा चुन लिजिये.. मैं वो ही हूं..

I'm the same old ..STUPID SOFTWARE ENGINEER....

Tuesday, February 02, 2010

क्यों चली आती हो


क्यों चली आती हो ख्वाबों में
क्यों भूल जाती हो
तुमने ही खत्म किया था
अपने उन सारे अधिकारों को
मुझ पर से
अब इन ख्वाबों पर भी
तुम्हारा कोई अधिकार नहीं

क्यों चली आती हो ख्यालो में
कभी नींद चुराने, कभी चैन चुराने
तुमने ही तो मुझे
अपने ख्यालों से निकाल फेंका था
अब मैं तुम्हारा
बहिष्कार करना चाहता हूं
पर तुम हो कि मानती ही नहीं

मेरे हिस्से कि दिन की गरमी
से घबरा उठी थी तुम,
अब क्यों रातों कि
चांदनी चुराने आती हो
ये शीतलता ही मेरे
जीने का भरोसा है
ये जैसे तुम जानती ही नहीं