Wednesday, December 03, 2008

हमारे पूर्वज नहीं हम बंदर हैं और नचाने वाला यह सिस्टम

आज कल जिसे देखो वही सिस्टम को गालियां दे रहा है.. मैं भी हूं उसी जमात में.. नेताओं को गाली, सिस्टम को गाली, पाकिस्तान को गाली.. खैर ये सब बातें बाद में करता हूं पहले आपको एक कहानी सुनाता हूं.. ये कहानी मैनेजमेंट कालेजों में बहुत प्रसिद्ध है..

एक बार 10 बंदर जंगल से पकड़े गये.. दसों को एक ही पिंजरे में रखा गया जिसके बीच में एक खंभा था और खंभे के ऊपर ढ़ेर सारे केले लटके हुये थे.. बंदरों ने जैसे ही वो केला देखा सारे के सारे एक साथ लपके उसे खाने को.. जैसे ही एक बंदर ने खंभे पर चढने कि कोशिश की वैसे ही सारे बंदरों पर बर्फ जैसा ठंढा पानी डाल दिया गया.. बंदर हैरान परेशान.. मगर फिर से हिम्मत दिखा कर केले लेने को लपके.. जैसे ही बंदर खंभे पर चढ़ने कि कोशिश की फिर से ठंढा पानी आ गिरा उनके ऊपर.. अब तो ये जैसे नियम बन गया.. कोई बंदर खंभे पर चढ़ने कि कोशिश करता और पानी उस पर आ गिरता..

यह सिलसिला कई दिनों तक चला.. अब बंदर समझ गये थे कि उस खंभे पर चढ़ने पर ही ठंढा पानी उनके ऊपर गिरता है सो कोई उस खंभे के पास भी नहीं फटकता.. केले खाने का लालच सभी के भीतर था मगर फिर भी कोई खंभे के पास फटकता भी नहीं था..

फिर एक दिन एक नया बंदर लाया गया और एक पुराने बंदर को निकाल लिया गया.. नये बंदर को कुछ भी पता नहीं कि उस खंभे पर चढ़ने पर ऊपर से ठंढा पानी गिरता है सो वह केले खाने के लिये खंभे कि ओर लपका.. जैसे ही वो केले खाने के लिये खंभे के पास पहूंचा तभी सभी बंदर ये सोच कर कि कहीं इसके खंभे पर चढ़ते ही ठंढा पानी ना गिरे, सो उसे खंभे पर चढ़ने से पहले ही पीट दिया.. वो बेचारा बंदर हक्का-बक्का कि उसे क्यों पीटा गया? मगर हिम्मत जुटा कर वो फिर से खंभे कि ओर गया.. फिर से पिटाई हो गई.. उसकी समझ में इतना ही आया कि जो खंभे पर चढ़ने जाता है उसकी पिटाई कि जाती है..

अब हर दिन एक नया बंदर लाया जाता और एक पुराने बंदर को बाहर निकाला जाता.. नया बंदर केले खाने को खंभे के पास जाता और उसकी पिटाई होती.. धीरे-धीरे सभी पुराने बंदर बाहर आ गये और नये बंदर अंदर.. किसी को पता नहीं कि खंभे के पास जाने से ऊपर से ठंढा पानी गिरता है, वो तो बस इतना जानते थे कि जो खंभे के पास जाता है उसकी पिटाई की जाती है.. क्यों? किसी को पता नहीं.. बस की जाती है तो बस की जाती है और इस तरह एक सिस्टम का निर्माण हो चुका था.. बस महीने भर में..


हमारा सिस्टम भी कुछ इतना ही खोखला है.. सभी को पता है कि क्या सही है और क्या गलत, मगर कभी कोई यह नहीं पूछता है कि ये गलत क्यों हो रहा है? अगर कोई सही गलत की बात भी करे तो सबसे पहेले लोग उसी कि हंसी उड़ाते हैं और बाद में सभी सिस्टम को गालियां देते हैं कि साला सिस्टम ही खराब है.. ये भ्रष्टाचारी सरकारी मुलाजिम हों या फिर कूड़े सी मानसिकता रखने वाले नेता(इन्हें राजनेता कहते मुझे शर्म आती है), ये सभी सिस्टम हैं और हम बंदर..

अगर आशावादी होकर लिखूं तो कह सकता हूं कि आओ संकल्प करें कि हमेशा सही बात पर ही सिस्टम का साथ देंगे और धीरे-धीरे ही तो सिस्टम बदलता है..

और अगर निराशावादी होकर लिखूं तो यही कहूंगा कि कुछ नहीं बदलने वाला है, सिस्टम को बदलने कि बात ही खोखली है.. साला सिस्टम ही खराब है.. अब यह आप पर छोड़ता हूं कि आप आशावादी हैं या निराशावादी?

अंत में - जैसा कि मैं पहले भी लिखता आया हूं कि मेरे घर में सभी मेरे चिट्ठे को पढ़ते हैं, मुझे नहीं पता कि मेरी पिछले पोस्ट को पढ़कर उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी.. मगर इतना तो जानता हूं कि वो खुश नहीं होंगे.. खैर ये भी पता है कि अगले 3-4 दिनों तक वो इसे नहीं पढ़ने वाले हैं.. जो भी हो वो भी यह जानते हैं कि मैं अपनी हर सही-गलत बात उनसे साझा करता हूं, एक ये भी सही..

13 comments:

  1. सब बदलेगा अगर तुम-हम लगातार इसे बदलने की कोशिश करते रहे तो।वर्ना हम भी बंदरो मे शामिल हो जायेंगे।वैसे पिछली पोस्ट मे तुमने कुछ भी गलत नही लिखा था और तुम्हारा गुस्सा एकदम जायज था,तुम्हे तो बधाई मिलनी चाहिये तुम्हारे उस महामूर्खानंद ्को आखिर माफ़ी मांगनी पड़ी। अच्छा लिखा।

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  2. सिस्टम ही तो जड है इस सब बातो की ओर इस सिस्टम को बदलने के लिये सब से पहले ्मुझे बदलना है, ओरो की फ़िकर बाद मै, लेकिन यहां फ़िर बंदरो वाली बात आ जाती है.
    आज तो आप को सलाम करने को दिल करता है, यह आवाज मेरे दिल की है, क्योकि जिन्होने इस सिस्टम को देखा है वही अपने घर मै यह बंदर खेल देखता है तो अन्दर ही अन्दर खीजता है, ओर टोकने पर उसे **चरियां** कहा जाता है,
    धन्यवाद

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  3. बन्दर कथा समाज के हर सही गलत परंपराओं की ओर इंगित करती है..कितने ही काम ऐसे हैं जो किये जाते हैं सिर्फ इसलिये कि ऐसा ही होता आया है.

    फुरसतिया जी की एक कविता याद आ रही है...चिड़िया और उसके बच्चे वाली जिसे चिड़िया इसलिये डांटती है कि पिंजड़ा खुला पाकर वह उड़ जाना चाहती है और चिड़िया कहती है ऐसी बात नहीं करते, ऐसा आज तक नहीं हुआ..


    बिल्कुल वही बात है.

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  4. जज्बा गायब है। समीक्षा गायब है। या तो आंख मूंदकर अनुसरण करेंगा या अनदेखी करेंगे। बेहतरी की तलाश में नए विकल्पों पर विचार बंद हो चुका है। हम न तो बहुत अच्छे फॉलोअर हैं और न ही बहुत अच्छे सर्जक...
    औसत से भी कम हैं हम लोग...
    सर्वाधिक अनुशासनहीन, ठंडे और कुंद समाज का हिस्सा हैं हम...

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  5. हमें सिस्टम को समझने का प्रयत्न करना चाहिए और इस की तकनीक भी, कि यह कैसे बदलता है?

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  6. सि‍स्‍टम अचानक नहीं बदल सकता। समाज के एक हि‍स्‍से में भी अच्‍छा सोचने, आचरण करनेवाले लोग अगर जीवि‍त हैं, तबतक आशा भी बनी रहनी चाहि‍ए।

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  7. ये ही सिस्टम है.. बन्दर और ’मदारी’ भी.. सोच और रिवायतें दोनों बदलनी होगी..

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  8. .. ये भ्रष्टाचारी सरकारी मुलाजिम हों या फिर कूड़े सी मानसिकता रखने वाले नेता(इन्हें राजनेता कहते मुझे शर्म आती है), ये सभी सिस्टम हैं और हम बंदर..

    बहुत सटीक और शाश्वत सत्य लिखा है !

    रामराम !

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  9. बोध कथा बढ़िया है। पर कष्ट यही है कि मानव की लर्निंग-कण्डीशनिंग बन्दर छाप है!

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  10. इस कथा के माध्यम से बहुत गहरी बात कही है आपने

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  11. ...सिस्ट्म हम से है सिस्टम से हम नही

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  12. आपने सही लिखा है. अगर इजाजत हो तो मैं बात को आगे बढ़ा दूँ.

    सिस्टम किसी उद्देश्य से बनाया जाता है. समय-समय पर सिस्टम की समीक्षा की जानी चाहिए, यह देखने के लिए कि उद्देश्य किस हद तक पूरे हुए. अगर पूरे नहीं हुए तो कारणों की जांच होनी चाहिए और आवश्यक कदम उठाने चाहिए. सिस्टम एक मशीन की तरह होता है जिस की लगातार देख-भाल होनी चाहिए, कमियां दूर की जानी चाहिए. जब उद्देश्य पूरे होने लगें या पूरे हो जाएँ, नए उद्देश्य तय किए जाएँ. सिस्टम व्यक्ति पर निर्भर नहीं होना चाहिए. सिस्टम व्यक्ति ने बनाया है, इस का मतलब यह नहीं है कि व्यक्ति सिस्टम से ऊपर है. व्यक्ति सिस्टम प्रबंध में एक ट्रस्टी की तरह होता है, उस का मालिक नहीं. आज हर छेत्र में, हर स्तर पर, भारत को भरत जैसे ट्रस्टी चाहिए, जिन्होनें राम का प्रतिनिधि बन कर अयोध्या का प्रबंध किया.

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  13. प्रशांत जी, सिस्टम हम आप जैसों से ही मिलकर बनता है. मेरे विचार से आपका यह कथन कि हर सही बात पर सिस्टम का साथ देंगे, तब तक सम्भव नहीं हो सकता, जबतक हर हिन्दुस्तानी सिस्टम में अपनी भूमिका को अच्छे ढंग से समझ न ले. यह जाग्रति पैदा करने का काम मीडिया का है, जो अपना रोल ख़ुद नहीं निभा पा रहा.

    मेरे विचार से देश को अभी सबसे बड़ी जरूरत एक सामानांतर मीडिया खड़ा करने की है. एक मीडिया जिसमें नेता-अभिनेता-माफिया की ख़बरों के लिए कोई जगह न हो. केवल यही कदम जनता को जागरूक कर सकता है. आज जाग्रति की आवश्यकता अपने अधिकारों से ज्यादा कर्तव्यों को लेकर है.

    और हाँ,अपनी लेखनी की ज्वाला ठंडी न होने दीजियेगा. धन्यवाद

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