Saturday, October 18, 2008

एक चिड़िया जो ओ गदही पुकारती थी

मुझे उस चिड़िया का नाम पता नहीं है जो ओ गदही पुकारती थी.. हम तीनों भाई-बहन बहुत छोटे थे उस समय.. मैं छठी कक्षा में था, भैया आठवीं में और दीदी नौंवी में.. पापाजी हम तीनों को अलग-अलग नामों से पुकारते थे.. मुझे पुछरू(अब इस नाम से पुकारे गये जमाना बीत गया है), भैया को नकपिच्चू और दीदी को गदही.. इस नाम से पुकारे जाने पर पूरे जन्म भर का प्यार उमर आता था..(शायद अब भी पुकारे जाने पर वही एहसास रहे.).. दो कमरे और एक ड्राईंग रूम के अलावा दो लैट्रिन-बाथरूम, एक बाल्कनी, रसोई घर, डायनिंग हॉल और एक छोटा सा बगीचा हुआ करता था.. हम सभी सितामढी में रहते थे.. कुछ धुंधली सी यादें जानकी मंदिर कि भी है जिसके बारे में मान्यता है कि सीता जी का जन्म वहीं हुआ था..

बगीचे में 5-6 अमरूद के पेड़ थे, कुछ पपीते के और केला के पेड़ों का एक समूह भी जिसे बहुत छोटे में मैंने ही लगाया था और जब सूखने लगा था तब गुस्से से काट भी दिया था.. मगर बाद में चाचाजी ने उस कटे हुये पेड़ को फिर अच्छे से लगाया तो वह लग गया.. शायद 5-6 साल का रहा हो ऊंगा उस समय.. एक खास तरह कि चिड़िया अक्सर उन्हीं पेड़ों में से किसी पर आकर बैठती थी और "टू नी नी" जैसी आवाज निकालती थी.. एक दिन दीदी को पापाजी ने बताया कि वह ओ गदही पुकार रही है.. मतलब तुम्हें बुलाती है.. बचपन का मासूम मन भी इसे मान लिया.. वैसे भी दीदी किसी आम लड़की कि तरह चिड़िया जैसे उड़ना चाहती थी.. हवाओं को अपने मुट्ठी में बंद कर उड़ाना चाहती थी.. जमाने कि फिक्र से बेफिक्र..

ठीक-ठीक याद नहीं है पर शायद 1992-93 में पापाजी का तबादला चक्रधरपुर, जो बिरसा मुंडा कि कर्मभूमी रह चुकी है और अब झारखंड में है, हो गया.. पापाजी 2-3 महीने या शायद 3-4 महीने के लिये हमलोगों को वहीं छोड़कर वहां चले गये.. हो सकता है 1-2 महीने के लिये ही गये हों मगर वही सालभर से कम नहीं था मेरे बालमन के लिये.. सो अभी तक बस इतना ही याद है कि बहुत दिनों तक नहीं आये थे.. फोन का जमाना उस समय तक हमलोगों के लिये नहीं आया था.. सारा काम चिट्ठियों से ही होता था जो महिने में 2-3 ही मिलते थे.. वो चिड़िया भी लगता था उन्हीं के साथ चली गयी थी.. उसने भी आना कम कर दिया था.. जब कभी ओ गदही जैसी आवाज आती हम दौड़ पड़ते बगीचे कि तरफ.. लगता जैसे पापाजी का संदेश लेकर आयी हो..

सितामढी के बाद कभी भी उस चिड़िया कि आवाज नहीं सुनी.. मैं सोचता था कि कहीं वो भी तो विलुप्त नहीं हो गयी होगी? आज सुबह-सुबह लगभग 5.30 में एक फोन के आने से नींद खुल गई.. बाहर बालकनी में आया तो ठंडी हवा चल रही थी.. आसमान में बादल छाये हुये थे.. तभी कहीं से वही आवाज सुनी.. "ओ गदही" या कह सकते हैं "टू नी नी".. लगा कि बस हम इंसानों की भाषा ही बदलती है.. पंछी-जानवरों कि भाषा हर जगह एक जैसी ही होती है.. लगा जैसे कि वही बचपन फिर से लौट आया है.. मन ख्यालों में डूब गया.. लगा जैसे पापाजी अभी कहेंगे कि देखो स्वीटी, तुम्हें ये चिड़िया "ओ गदही" बुला रही है..

भले ही अब हर दिन घर बात हो जाती है.. जब जिससे संपर्क में आना चाहूं आ सकता हूं.. चौबिसों घंटे मोबाईल भी साथ होता है.. ई-पत्रों से सुविधा और भी बढ गयी है.. मगर उस हाथ के लिखे पत्रों कि महत्ता खत्म नहीं हो सकती है.. उसकी छुवन से वो अहसास कभी नहीं जा सकता है.. हस्तलिपी से आप पल भर में किसी को पास पा सकते हैं.. कुछ दिन पहले मैंने पापाजी को एक ई-पत्र लिखा था जिस पर उन्होंने कहा था कि मैं तुम्हें इसके जवाब में सेन्ड नहीं पोस्ट करूंगा.. 10 दिन हो गये हैं.. अभी तक मुझे मिला नहीं है.. या तो पापाजी भूल गये भेजना या फिर कहीं रास्ते में अटका होगा.. पता नहीं.. खैर अगर भूल गये होंगे तो मेरा यह पोस्ट पढकर याद आ जायेगा..

18 comments:

  1. यादों से गुजरना लगा।

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  2. यह वही चिड़िया है फिर से जनम पा कर आप के पास चली आयी है। पुराने दिनों की याद दिलाने।

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  3. बहुत सही कहा प्रशांत,मोबाईल ओर नेट ने जैसे चिट्ठियों को खतम अर डाला है।दिवाली-दशहरे के ग्रिटिंग्स हो या राखी,या फ़िर गर्मियोंकी छूट्टियों के लिये नानाजी का बुलावा।सब कागज़ पर मिलता था।सारा प्यार उस्मे उतरा हुआ नज़र आता था।पोस्ट्मैन की सायकल की घंटी की आवाज़ तक पह्चानी हुई रह्ती थी।पता नही कब और कैसे सब बदल गया।बहुत अच्छा लिखा आपने।याद ताज़ा कर दी पुराने दिनों की।

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  4. दीपावली की हार्दिक शुभ कामनाएं /दीवाली आपको मंगलमय हो /सुख समृद्धि की बृद्धि हो /आपके साहित्य सृजन को देश -विदेश के साहित्यकारों द्वारा सराहा जावे /आप साहित्य सृजन की तपश्चर्या कर सरस्वत्याराधन करते रहें /आपकी रचनाएं जन मानस के अन्तकरण को झंकृत करती रहे और उनके अंतर्मन में स्थान बनाती रहें /आपकी काव्य संरचना बहुजन हिताय ,बहुजन सुखाय हो ,लोक कल्याण व राष्ट्रहित में हो यही प्रार्थना में ईश्वर से करता हूँ ""पढने लायक कुछ लिख जाओ या लिखने लायक कुछ कर जाओ ""

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  5. पुराने दिनों की याद ताजा कर दी आपने प्रशांत। बहुत ही अच्छा लिखा है। साथ में एक बात और लगता है आपके पिताजी के ट्रांस्फर के कारण आप भी कई जगह देख चुके हैं। उसके ऊपर भी लिखिएगा कभी यदि मौका लगे तो जगहों के बारे में।

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  6. चिड़ियों की आवाज में मानव स्वर तलाशना हर जगह का शौक रहा है। विशेषत: गावों में, जहां प्रकृति के लिये समय है।
    एक चिड़िया मेरे गांव में गाती थी। उसकी पैरोडी थी -
    तीसी क तेल
    भांटा क फूल
    हम तुम अकेल
    जूझैं बघेल!

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  7. .


    आहः पुछरू, निमिष मात्र में
    तुमने मुझे कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया, जीते रहो !
    सीतामढ़ी के आगे का स्टेशन रीगा,
    उसके बगल ही में सुगर फ़ैक्टरी,
    ठीक उसके पीछे एक गाँव उफ़रौलिया,
    जिसकी पगडंडियों पर ऊँगली पकड़ कर चलते हुये, अपने बाबा से मिलती संस्कार शिक्षा...
    आहः पुछरू,जीते रहो !
    सबकुछ अब जैसे बिखरा हुआ है, वहाँ !
    आधा गाँव तो कलकत्ता कमाने पहुँचा हुआ है । बाकी को पटना मुज़फ़्फ़रपुर राँची ने निगल लिया ।
    बचे फ़ुटकर जन छिटपुट शहरों में हैं,
    एक नाम उफ़रौलिया को जीते हुये ...

    आहः पुछरू,जीते रहो !
    पर मैं भी कितना स्वार्थी हूँ कि
    यह सब याद करते करते जाने कहाँ खो गया
    और तुम्हारी गदहिया पर
    कोई प्रतिक्रिया भी नहीं दी ..
    आहः पुछरू,जीते रहो !

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  8. यादों की सुन्दरतम जुगाली ! शुभकामनाएं !

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  9. बिल्कुल ठीक कहा हाथ के लिखे में एक अलग आत्मीयता सी महसूस होती है ......आज तक

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  10. बहुत बढिया भाई ! मजा आया पढ़ कर !

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  11. पुरानी यादे हमेशा ही अच्छी लगती हैं जब खासकर अपनो की हो !

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  12. kya kahun ..yadon ke baare me..?


    ..han main ab bhi chiththiyan likhti hun...sach hai unme khusboo hoti hai..likhne wale ki hanthon ki chhuwan hoti hai.

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  13. बहुत आत्मीय पोस्ट! अच्छा लगा इसे पढ़कर!

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  14. सच कहूँ तो मुझे लगता है कि जब भी मैंने आपका कोई स्तम्भ पढा है तो मुझे उसमें कुछ ना कुछ खामियाँ ही नज़र आयी, इसमें भी है जैसे कि सीतामढी होता है ना कि सितामढी, पर आपने इतने दिल से लिखा है कि आँखें नम हो गयी। अचानक ही लगा कि मैं 20 साल पीछे चला गया हूँ, वही सब कुछ आँखों के सामने आ गया।

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  15. यादों की गलियों से गुजरना अच्छा लगा. चिट्ठी के बारे में मेरा भी यही ख्याल है, हाथ के लिए ख़त में एक खास अपनापन होता है. शब्दों पर उँगलियाँ फेर मन लिखनेवाले के पास पहुँच जाता है. बिल कुल दिल से आपने लिखा है. मुझे भी अपना बचपन और गाँव याद आ गया.
    यादों की गलियों से गुजरना अच्छा लगा. चिट्ठी के बारे में मेरा भी यही ख्याल है, हाथ के लिए ख़त में एक खास अपनापन होता है. शब्दों पर उँगलियाँ फेर मन लिखनेवाले के पास पहुँच जाता है. बिल कुल दिल से आपने लिखा है. मुझे भी अपना बचपन और गाँव याद आ गया.
    अपने ब्लॉग का लिंक यहाँ देख कर आश्चर्यमिश्रित खुशी हुयी. शुक्रिया.

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  16. बचपन के दिन भी क्या दिन थे।

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  17. प्रशान्त आपका ब्लोग पढ़ बहुत अच्छा लगता है.. खास कर पुरानी यादें.. बहुत सजीव चित्रण करते हो.. बधाई

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