दिव्य भाई की पहली किताब(टर्म्स एंड कंडीशंस एप्लाई) एक ही झटके में पूरा पढ़ गया था. और पढने के बाद दिव्य भाई को अपना ओनेस्ट ओपिनियन भी दिया था फेसबुक के इनबाक्स में जिसका सार यह था, "कहानियां साहित्यिक मामलों में कुछ भी नहीं है और बेहद साधारण है, मगर कहानियों की बुनावट और कसावट आपको किताब छोड़ने से पहले पूरा पढने को मजबूर कर दे."
अभी उनकी दूसरी किताब मशाला चाय जब आने वाली थी उस समय अपनी निजी चीजों में कुछ इस कदर उलझा हुआ था की प्री-बुकिंग नहीं किया, जैसा पहली किताब को लेकर किया था. यह किताब आने से पहले उन्होंने बहुत हल्के-फुल्के अंदाज में मुझे इनबाक्स में लिखा, "कुछ ऐसा लिख दो जिससे लोगों को लगे की यह नहीं पढ़ा तो क्या पढ़ा..." और उन्हें मैंने बताया, "मैं आपकी किताब से नए लोगों को पढ़ना सीखा रहा हूँ. मेरे वैसे दोस्त जो कभी कोई किताब नहीं पढ़ते वे भी आपकी किताब बड़े चाव से पढ़े."
मैं यह बात अभी भी उतने ही पुख्ते तौर से कह रहा हूँ. अगर आप हिंदी पढना जानते हैं मगर कभी कोई किताब हिंदी की नहीं पढ़ी है तो यह आपके लिए पहला पायदान है..पहली सीढी... और दिव्य भाई, आपको यह जानकार और भी अधिक आश्चर्य होगा की आपकी पहली पुस्तक अभी मेरे एक कन्नड़ मित्र के पास है जो हिंदी बेहद हिचक-हिचक कर ही पढ़ पाती हैं. मगर थोड़ा पढने के बाद मुझे बोल चुकी हैं की यह तो मैं पूरा पढ़ कर ही वापस करुँगी, कम से कम दो महीने बाद...
यह मैं उस वक़्त लिखने बैठा हूँ जब अधिकाँश लोग जिन्हें इस किताब में रुचि होगी, वे सभी इसे पढ़ चुके होंगे. जिन्हें जो कुछ भी बातें करनी थी, वह भी वे कर चुके. मगर फिर भी लिख रहा हूँ...
पहली कहानी पढ़ते वक़्त बचपन से पहले मुझे अपना वह जूनियर याद आया जो अभी भी बात-बात पर विद्या कसम खाता है. उसे कभी कोई और कसम खाते नहीं देखा हूँ, ना ही भगवान् कसम खाते. शायद अब वह समझ गया होगा की अब विद्या कसम खाने से भी कुछ हानि नहीं होने वाली..
दूसरी कहानी.....मैंने कई आस पास के चरित्र बहुत करीब से देखें हैं जो इससे मिलते हैं...कुछ सौ फीसदी...कुछ नब्बे फीसदी...खुद मैं भी तो साठ-सत्तर फीसदी तक के आस पास पहुँच ही जाता हूँ...दरअसल यह भारत के किसी भी मेट्रो में रहने वाले युवाओं की साझी कहानी है..जो ज़िन्दगी में किसी भी नए बदलाव का स्वागत करना जानता है..कुछ पीछे छूट जाए तो रुदाली नहीं गाता है..अकेलापन दूर करने का एकमात्र साधन दफ्तर और दोस्त ही हैं....ऐसी कई बातें तो मैंने भी कई दफे सोची थी/है, मगर इतनी आसानी से कोई ऐसे भी लिख सकता है? ब्रैवो....
बाकी कहानी अभी पढ़ी नहीं.. सो बाकी किस्सा फिर कभी...
चलते-चलते आपको फिर से याद दिला दूँ, अगर आप यह किताब इस उम्मीद में उठायें हैं पढ़ने के लिए की आपको घोर साहित्यिक खुराक मिले, तो यह किताब आपके लिए नहीं है..मगर याद रखें, इसमें वही कहानियां आपको मिलेंगी जैसी मानसिक अवस्था से आज का युवा गुजर रहा है.
अभी उनकी दूसरी किताब मशाला चाय जब आने वाली थी उस समय अपनी निजी चीजों में कुछ इस कदर उलझा हुआ था की प्री-बुकिंग नहीं किया, जैसा पहली किताब को लेकर किया था. यह किताब आने से पहले उन्होंने बहुत हल्के-फुल्के अंदाज में मुझे इनबाक्स में लिखा, "कुछ ऐसा लिख दो जिससे लोगों को लगे की यह नहीं पढ़ा तो क्या पढ़ा..." और उन्हें मैंने बताया, "मैं आपकी किताब से नए लोगों को पढ़ना सीखा रहा हूँ. मेरे वैसे दोस्त जो कभी कोई किताब नहीं पढ़ते वे भी आपकी किताब बड़े चाव से पढ़े."
मैं यह बात अभी भी उतने ही पुख्ते तौर से कह रहा हूँ. अगर आप हिंदी पढना जानते हैं मगर कभी कोई किताब हिंदी की नहीं पढ़ी है तो यह आपके लिए पहला पायदान है..पहली सीढी... और दिव्य भाई, आपको यह जानकार और भी अधिक आश्चर्य होगा की आपकी पहली पुस्तक अभी मेरे एक कन्नड़ मित्र के पास है जो हिंदी बेहद हिचक-हिचक कर ही पढ़ पाती हैं. मगर थोड़ा पढने के बाद मुझे बोल चुकी हैं की यह तो मैं पूरा पढ़ कर ही वापस करुँगी, कम से कम दो महीने बाद...
यह मैं उस वक़्त लिखने बैठा हूँ जब अधिकाँश लोग जिन्हें इस किताब में रुचि होगी, वे सभी इसे पढ़ चुके होंगे. जिन्हें जो कुछ भी बातें करनी थी, वह भी वे कर चुके. मगर फिर भी लिख रहा हूँ...
पहली कहानी पढ़ते वक़्त बचपन से पहले मुझे अपना वह जूनियर याद आया जो अभी भी बात-बात पर विद्या कसम खाता है. उसे कभी कोई और कसम खाते नहीं देखा हूँ, ना ही भगवान् कसम खाते. शायद अब वह समझ गया होगा की अब विद्या कसम खाने से भी कुछ हानि नहीं होने वाली..
दूसरी कहानी.....मैंने कई आस पास के चरित्र बहुत करीब से देखें हैं जो इससे मिलते हैं...कुछ सौ फीसदी...कुछ नब्बे फीसदी...खुद मैं भी तो साठ-सत्तर फीसदी तक के आस पास पहुँच ही जाता हूँ...दरअसल यह भारत के किसी भी मेट्रो में रहने वाले युवाओं की साझी कहानी है..जो ज़िन्दगी में किसी भी नए बदलाव का स्वागत करना जानता है..कुछ पीछे छूट जाए तो रुदाली नहीं गाता है..अकेलापन दूर करने का एकमात्र साधन दफ्तर और दोस्त ही हैं....ऐसी कई बातें तो मैंने भी कई दफे सोची थी/है, मगर इतनी आसानी से कोई ऐसे भी लिख सकता है? ब्रैवो....
बाकी कहानी अभी पढ़ी नहीं.. सो बाकी किस्सा फिर कभी...
चलते-चलते आपको फिर से याद दिला दूँ, अगर आप यह किताब इस उम्मीद में उठायें हैं पढ़ने के लिए की आपको घोर साहित्यिक खुराक मिले, तो यह किताब आपके लिए नहीं है..मगर याद रखें, इसमें वही कहानियां आपको मिलेंगी जैसी मानसिक अवस्था से आज का युवा गुजर रहा है.