जब छोटा था तब...कहीं भी जाऊं, मम्मी का आँचल पकड़ के चलता था.. गाँव हो या कोई और जगह, अधिकतर गाँव ही हुआ करती थी, भैया-दीदी पूरा गाँव नापते रहते थे, मगर मैं, मम्मी कहीं भी जाए, उनकी साडी का एक छोड़ पकड़ कर चुपचाप खड़ा रहता था.. मम्मी कितना भी डांटे, या मना करे, मगर चाहे कुछ भी हो, मैं अपना कर्म नहीं भूलता था.. उनकी साडी पकडे खड़ा रहता या रोता रहता था.. अगर उनके साथ नहीं हूँ तो पापा की धोती, जिसे वह आराम के क्षणों में लुंगी की तरह पहनते थे, उसे पकड़ कर उनके साथ रहता.. पापा यदि बैठे हुए हों तो उनकी गोद में मैं भी बैठा रहता था..
मम्मी हमेशा पापा को कहती थी कि अगर ये बिगड गया तो सारा कसूर आपका ही होगा, और पापा उसी समय पलट कर कहते थे, और अगर सुधरा तो सारा श्री भी मेरा ही होगा.. मम्मी कभी इस बात का विरोध नहीं करती थी, बस इतना ही बोलती थी, अगर सुधरा तो ना?
बचपन में मम्मी अगर मारती भी थी(मुझे याद नहीं की मम्मी कभी मारी हो मुझे, मगर ऐसा ही सुना है), या डांटती भी थी तो भी बचाने के लिए मम्मी को ही पुकारता था.."मम्मीsssss"!!!! पापा हमेशा मेरे साथ खड़े रहे हैं कदम-कदम पर.. मगर कभी बचाने के लिए उनका नाम नहीं पुकारा हूँ...
उनसे दूर होने के बाद जब कभी किसी बड़े कष्ट में रहा हूँ, जैसे की वायरल बुखार, जैसे की पैर का टूटना, तो भी कराहते हुए "मम्मी" ही पुकारता रहा हूँ.. ये जानते हुए भी की बचपन से ही पापा की "जान" रहा हूँ मैं.. पन्द्रह-सोलह साल तक की उम्र तक उनकी गोद में बैठ कर खेला हूँ, जो कई लोगों को अतिशयोक्ति लग सकती है..
मुझे वह दिन भी याद है जब कई अन्य वजहों से मैं जितनी दफे दिल्ली से पटना जाता था और पड़ोस से चाभी लेकर घर खोलता था, फिर अगले दिन वह चाभी उसी पड़ोस में देकर गोपालगंज के लिए निकल जाता था..M.C.A. पहले सेमेस्टर की परीक्षा के बाद जब घर लौट रहा था तब मन में इस विकार के साथ यात्रा की थी कि अगर इस दफे भी घर में कोई ना हुआ तो पूरे तीन साल बाद ही घर जाऊँगा.. जी हाँ, वह विकार ही था, और इसे आज महसूस करता हूँ.. मम्मी आज तक सिर्फ एक ही इंसान को लेने के लिए रेलवे स्टेशन गई है, और वह मैं ही था, जब पहले सेमेस्टर की परीक्षा के बाद घर लौटा था..
अब ये तो पता नहीं की कितना सुधरा, इसका हिसाब-किताब उन्हें ही करने दिया जाए.......
मम्मी हमेशा पापा को कहती थी कि अगर ये बिगड गया तो सारा कसूर आपका ही होगा, और पापा उसी समय पलट कर कहते थे, और अगर सुधरा तो सारा श्री भी मेरा ही होगा.. मम्मी कभी इस बात का विरोध नहीं करती थी, बस इतना ही बोलती थी, अगर सुधरा तो ना?
बचपन में मम्मी अगर मारती भी थी(मुझे याद नहीं की मम्मी कभी मारी हो मुझे, मगर ऐसा ही सुना है), या डांटती भी थी तो भी बचाने के लिए मम्मी को ही पुकारता था.."मम्मीsssss"!!!! पापा हमेशा मेरे साथ खड़े रहे हैं कदम-कदम पर.. मगर कभी बचाने के लिए उनका नाम नहीं पुकारा हूँ...
उनसे दूर होने के बाद जब कभी किसी बड़े कष्ट में रहा हूँ, जैसे की वायरल बुखार, जैसे की पैर का टूटना, तो भी कराहते हुए "मम्मी" ही पुकारता रहा हूँ.. ये जानते हुए भी की बचपन से ही पापा की "जान" रहा हूँ मैं.. पन्द्रह-सोलह साल तक की उम्र तक उनकी गोद में बैठ कर खेला हूँ, जो कई लोगों को अतिशयोक्ति लग सकती है..
मुझे वह दिन भी याद है जब कई अन्य वजहों से मैं जितनी दफे दिल्ली से पटना जाता था और पड़ोस से चाभी लेकर घर खोलता था, फिर अगले दिन वह चाभी उसी पड़ोस में देकर गोपालगंज के लिए निकल जाता था..M.C.A. पहले सेमेस्टर की परीक्षा के बाद जब घर लौट रहा था तब मन में इस विकार के साथ यात्रा की थी कि अगर इस दफे भी घर में कोई ना हुआ तो पूरे तीन साल बाद ही घर जाऊँगा.. जी हाँ, वह विकार ही था, और इसे आज महसूस करता हूँ.. मम्मी आज तक सिर्फ एक ही इंसान को लेने के लिए रेलवे स्टेशन गई है, और वह मैं ही था, जब पहले सेमेस्टर की परीक्षा के बाद घर लौटा था..
अब ये तो पता नहीं की कितना सुधरा, इसका हिसाब-किताब उन्हें ही करने दिया जाए.......