Thursday, February 17, 2011

देखा, मैं ना कहता था, तुम्हें भूलना कितना आसान है

भूलना या ना भूलना, एक ऐसी अनोखी मानसिक अवस्था होती है जो अभी तक किसी के भी समझ के बाहर है.. भूलने की कोई तय समय-सीमा या कोई उम्र नहीं.. कई चीजें हम ठीक एक सेकेण्ड के बाद भी भूल जाते हैं, कई दफ़े कुछ कहते-कहते ही आगे कहने वाली बात भूल जाते हैं.. कई दफ़े एक उम्र गुजरने के बाद भी बातें नहीं भूली जाती.. कई दफ़े कुछ बातें भूलने की कोशिश में ही एक उम्र गुजर जाती है..

देखो ना...मैं भी भूल चुका हूँ कई बातें.. वह दिन भी भूल चुका हूँ जब तुम्हें पहली बार देखा था.. वे दिन भी भूल गया हूँ जब तुम्हें कनखियों से देखता था यह दिखाते हुए की मैं कहीं और देख रहा हूँ और वे दिन भी जब इसके ठीक विपरीत घटनाएं घटी थी.. भूल चुका हूँ तुम्हारे साथ बिताए वे हर पल जिसके मूक गवाह मात्र हम दोनों ही थे.. भूल चुका हूँ तुम्हारे साथ उस पहाड़ी वाले शहर की अनजान गलियों में बेपरवाह, निरुद्देश्य भटकना.. यह भी भूल गया हूँ, जब डरते डरते तुम्हारे होंठों को छुवा था पहली बार और प्रतिक्रिया स्वरूप तुमने बेझिझक चूम लिया था मुझे...अपनी 'झिझक' और तुम्हारा 'अल्हड़पन' भी भूल गया हूँ..

और भी कई बातें भूल गया हूँ, और उस गीत के मुखड़े भी.. देखो मैं अब भूल गया हूँ प्रेम में डूबा तुम्हारा वह पहला स्पर्श भी.. तुम्हारा वह प्यार में मुझसे लड़ना झगड़ना कैसे याद रख सकता हूँ, यह भी भूल चुका हूँ मैं.. तुम्हारे प्रेम में डूबे उन खतों को भी भूल चुका हूँ जिसमें अनगिनत रूमानी ख्यालात लिखे हुए थे, और यह भी भूल चुका हूँ कि वह अभी तक उस चाभी वाले फैन्सी डायरी में रखी हुई है.. देखो मैं भूल चुका हूँ उन झीलों को भी जिनके बारे में सोचते हुए हम अक्सर आगोश में समा जाया करते थे और जिनकी तुलना मैं अक्सर तुम्हारी उन्हीं भूली हुई आँखों से करता था.. वही भूली हुई आँखें जिनसे मैंने सपने देखे थे अनेक.. देखो ना मैं भूल चुका हूँ उन क्षणों को भी जब तुम्हारे केशुओं के तले बैठे अमावस की रातों का भ्रम पाल लेता था.. हम वे अक्सर सिर्फ वही बाते भूलते हैं जिनका कोई महत्व हमारे जीवन में नहीं होता है.. ठीक वैसे ही मैं तुम्हें भी भूल गया!!

देखा मैं ना कहता था की कुछ चीजों को भूलना उतना ही सहज होता है जितना कि हमारा भूला हुआ प्यार था..



याद ना आये कोई
लहू ना रूलाए कोई..

हाय! अंखियों में बैठा था,
अंखियों से उठ के
जाने किस देश गया..
जोगी मेरा जोगी वे!
रांझा मेरा राँझना,
मेरा दरवेश गया.. रब्बा!!
दूर ना जाए कोई..
याद ना आये कोई..

शाम के दिए ने,
आँख भी ना खोली,
अंधा कर गई रात..
जला भी नहीं था,
देह का बालन,
कोयला कर गई रात, रब्बा!
और ना जलाए कोई..
याद ना आये कोई!!


Tuesday, February 15, 2011

कैसा होगा हमारा 'तहरीर'?

जब इस नए दौर की एक असाधारण क्रांति का आगाज़ हो रहा था तब किसी कारणवश मैं दुनिया की इन खबरों से कहीं दूर था.. ना टीवी, ना समाचार पत्र और ना ही इंटरनेट.. मेरे लिए ऐसी स्थिति बेहद भयावह सी होती है, मगर उन दिनों ऐसा ही था.. रह-रह कर कहीं किसी कोने से जैसे उस क्रांति की आवाज आ रही थी जो मुझे बेचैन कर रही थी.. सही खबर कुछ भी साफ़ नहीं थी मेरे लिए.. बाद में मिले अधकचरे खबरों ने उन पर मेरी बेचैनी और बढ़ा दी और चेन्नई वापस आने के बाद ही जाकर मुआमला कुछ हद तक साफ़ हो पाया..

मैं इस क्रांति को एक असाधारण क्रांति मानता हूँ, और इसका सबसे बड़ा कारण यह की यह क्रांति पूर्णरूपेण ना भी सही मगर अधिकाँश हिस्सा किसी नेता के बगैर आम जनता के द्वारा की गई क्रांति थी.. अंदर की वजहें कई हो सकती है, विदेशी साजिश से लेकर अंदरूनी साजिश तक.. कई अनगिनत वजहें.. मगर इस क्रांति के मूल में निर्विवाद रूप से वैसी जनता थी जिन्हें पिछले तीस साल से दबाया जा रहा था.. उन्हें कोई ऐसा मौका नहीं मिल रहा था जिससे उन्हें 'मुबारक' होने का मौका मिले.. भ्रष्टाचार, अनियमितता, बेरोजगारी, भुखमरी से जनता परेशान थी और उन्होंने यह आंदोलन शुरू किया.. सबसे आश्चर्यजनक बात तो मेरे लिए यह रही की लोगों को जोड़ने का काम एक ऐसी चीज ने किया जिसे आम समाज बेकार लोगों का सगल मानती रही है.. सोशल नेट्वर्किंग, ट्विटर, ब्लोगिंग!!

मगर कमोबेश यही हालात तो भारत में भी है.. हर दिन एक नए घोटाले का पर्दाफाश होता है जो पुराने से कई गुना बड़ा होता है.. अपने होश संभालने के बाद सबसे बड़ा घोटाला हर्षद मेहता के "शेयर घोटाले" के रूप में देखा था.. अच्छा हुआ जो हर्षद मेहता गुजर गए, नहीं तो आज भयानक अवसाद में घिरे होते, क्योंकि जितनी रकम के लिए उन्होंने अपना सब कुछ गंवाया उससे कई गुना अधिक रकम हजम करके कई लोग छुट्टे घूम रहे हैं.. चारा घोटाले की हवा ने लालू का राजनितिक जीवन लगभग बर्बाद सा कर दिया, उन्हें भी कुछ अफ़सोस जरूर होगा.. यहाँ घोटालों से सम्बंधित कई बातें गोपनीय रहती है, जैसे यहाँ तमिलनाडु में कई लोगों से सुना है जो बेहद आत्मविश्वास के साथ बताते हैं कि एक राजनेता ने न्यूजीलैंड के पास कोई पूरा आइलैंड ही खरीद रखा है.. जैसे बिहार में हर किसी को पता है कि चारा घोटाले के उजागर के समय कौन सड़कों पर रूपये से भरे बोरे को फ़ेंक जाता था.. "गोपनीय बातें अक्सर उतनी ही गोपनीय होती है जिसकी खबर हर किसी को होती है, मगर सबूत किसी के पास नहीं होता है.." अनियमितता से लेकर भुखमरी, महंगाई और बेरोजगारी भी उतनी ही है.. हम अंदर से किस हद तक भ्रष्टाचार को स्वीकार कर चुके हैं वह इस बात से पता चलता है की हम महाभ्रष्ट पुलिसवाले को सिल्वर स्क्रीन पर देख कर खुश होकर सीटियाँ और तालियाँ बजाते हैं..

मुझे तो कई दफ़े यह अहसास हुआ है कि हम भारतीय भी उतने ही करप्ट हैं जितने कि यहाँ के राजनेता.. जैसे सिग्नल पर अगर कोई पुलिस वाला नहीं है तो सिग्नल तोड़ने का हक सभी को मिल जाता है.. जैसे रेलवे रिजर्वेशन काउंटर पर लाइन में लगने के झंझट से बचने के लिए कुछ रूपये हम आराम से काउंटर पर बैठे व्यक्ति को दे देते हैं.. जैसे अगर किसी कारणवश पुलिस के हाथों पकडे जाने पर हम 300 रूपये जुर्माना भरने के बजाये 50 रूपये घूस देकर छूटना पसंद करते हैं.. जैसे अब हमारी आदत में यह शुमार हो चुका है कि कुछ मुसीबत आने पर अपनी काबिलियत पर भरोसा रखने के बजाये हम जुगाड़ ढूंढते हैं..

मगर इतना कुछ होने पर भी मैं बेहद आशावादी होकर यह सोचता हूँ कि भारत का "तहरीर" कौन सा चौक होगा? जहाँ आम जनता अपने अधिकारों के लिए दूसरों का मुंह ताकना छोड़ कर खुद लड़ने निकलेगी?

Tuesday, February 08, 2011

कहीं किसी शहर में, किसी रोज

दो साल बाद मिल रहे थे दोनों, दोनों कि बेचैनियाँ भी बराबर ही थी.. लड़का सारी रात रेलगाड़ी के डब्बों को गिनते हुए बिताया था, लड़की सारी रात करवटें बदलते हुए पीजी कि एकमात्र दीवार को गिन कर.. दोनों ही अपने शहर से जुदा एक नए शहर में थे..

लड़के को एक एक करके वो सारी घटनाएं याद आ रही थी, कैसे कई दिनों तक छुप-छुप कर उसे देखा करता था, कैसे उसने इजहार-ए-इश्क किया था, कैसे पहली बार उसने उसे डांटा था, कैसे उसने भी उसकी बातों से मुत्तफिक़ होते हुए शरमा कर अपना चेहरा छुपाया था..

लड़की को एक एक करके वो सारी घटनाएं याद आ रही थी, कैसे अपने सालगिरह के एक दिन बाद भी वह उन्हीं कपड़ों में आया था 'बचपना कितना था उसमे' कैसे उसे कनखियों से ताकते हुए उसके दिलों के तारों से खेल जाता था, कैसे उसने पहली बार उसका हाथ थामा था और वह चीख उठी थी उसे भरी सभा में..

फिर दोनों दो अलग जगहों पर रहते हुए भी दोनों कि सोच एक हो चली.. कैसे उन्होंने उस अलग होने वाले दिन एक दूजे का हाथ कस कर थाम रखा था, कैसे हिज्र कि रात एक एक करके इतनी लंबी हो चुकी थी, कैसे एक-दूजे को देखने को दोनों तड़प रहे थे..


यह बेचारा पिछले चार महीने से ड्राफ्ट में बैठा घुट रहा था, इस इन्तजार में की कुछ और जोड़ा जायेगा इसमें.. आज ऐसे ही आपके सामने है, बिना कुछ जुड़े-घटे..