Tuesday, March 30, 2010

अब मुझे कोई इन्तजार कहाँ

मेरे कितने जिद करने पर तुमने मुझे चूमने के लिए अपने होंठो को आगे कर दिया था.. आँखे भी बंद थी तुम्हारी.. तुम्हारी वह मासूमियत देख कर तुम्हारे होंठो को चूम भी नहीं पाया था मैं.. बस देखता रह गया था वह समर्पण.. कुछ देर बाद आँखें खोलने पर तुमने मुझे मुस्कुराता पाया था.. तुम झेंप गई थी.. झेंप मिटाने कि कोशिश में मुझसे लड़ पड़ी थी.. मगर मैंने तुम्हारी वह छवि आँखों में बंद कर ली थी.. आँखों में अब भी तुम्हारी वह छवि कैद है.. इन्हें आजाद करने के लिए मुझे तुम्हे चूमना जरूरी है.. किसी को यूँ ही कैद में नहीं रखना चाहिए..

देर रात ट्रेन कि खिडकी से झांकते चाँद को देख तुम्हे अक्सर मेरी याद आ जाती थी.. तुम्हारा ख़्वाब था कि कभी मैं भी इन रूमानी हालातों में तुम्हारे साथ रहूँ, चाँद के साथ चलूँ.. यह सब फोन पर उसी वक्त बताया था तुमने.. रेल कि खिडकी से मैं भी अक्सर झांकता हूँ.. साथ दौड़ते कई तारों को देखता हूँ जो अचानक उलझते-सुलझते रहते हैं.. रिश्ते भी अक्सर उतनी ही तेजी से उलझ जाया करते हैं.. काश रिश्ते भी उसी तेजी से मैं सुलझा पाता कभी.. एक हुनर सीखनी बाकी है अभी..

तुम मेरे सीने पर सर रख कर सोना चाहती थी.. उस दिन मेरे सीने पर सर रखकर सोते हुए कहा था तुमने.. जाने किस भय से मुझमे समा जाना चाहती थी तुम.. उस दिन तुम दरवाजे को बंद करना भूल गई थी.. संयोग से कोई गुजरा नहीं वहाँ से.. वह पहला और आखिरी दिन था.. आख़िरकार तुम्हारे ख़्वाब पूरे हो गए थे, मेरे सीने पर सर रख कर सोने का.. कुछ ख्वाहिशें अधूरी है अभी.. जिंदगी से कुछ विशलिस्ट उधार ले रखा है.. कुछ ख़्वाब अभी भी तुम्हारी राह तक रहे हैं.. तुम्हारा आना जरूरी है अब.. ख़्वाबों को भी उनकी जमीन मिलनी चाहिए जहाँ वह कुछ और ख़्वाब पैदा कर सके.. तुम्हारा इन भूमिहीन ख़्वाबों से सामंतों सा व्यवहार ठीक नहीं है..

उस दिन तुम्हारे जाने से पहले जिद कि थी, उस मीठी वाले कैंडी की, उसी बनिए के दूकान से.. जिसे पूरी नहीं कर सका था मैं.. रविवार जो था उस दिन.. बंद दुकानों का बंद दिन.. सोचा अगली बार वह जिद पूरा कर दूँगा.. वह अगली बार कभी नहीं आया.. जिंदगी के दोराहे में दोनों अलग हो गए, कभी ना मिलने के लिए.. थोडा दंभ, थोड़ी बेफिक्री में और अधिक लाचारी में सोचा कहाँ जायेगी? वह जो एक क्षण भी मेरे बगैर नहीं रह पाती है.. दिन हफ्तों में, हफ्ते महीनो में और महीने सालों में बदलते गए.. नहीं आना था तुम्हे, नहीं आयी.. मैंने कहा था ना तुम्हे, एक हुनर सीखनी बाकी है अभी.. समझती क्यों नहीं हो तुम?

अब मुझे कोई इन्तजार कहाँ..
वो जो बहते थे आबसार कहाँ..

आँख के एक गाँव में, रात को ख़्वाब आते थे..
छूने से बहते थे, बोले तो कहते थे..
उड़ते ख़्वाबों का एतबार कहाँ..
अब मुझे कोई इन्तजार कहाँ..

जिन दिनों, आप थे, आँख में धूप थी..
जिन दिनों आप रहते थे..
आँख में धूप रहती थी..
अब तो जाले ही जाले हैं..
ये भी जाने ही वाले हैं..
वो जो था दर्द का, करार कहाँ..
अब मुझे कोई इन्तजार कहाँ..

अब मुझे कोई इन्तजार कहाँ..
वो जो बहते थे आबसार कहाँ..


Ishqiya - 03 - Ab ...


Note - कंचन दीदी के शह पर लिखा गया यह पोस्ट. :)

Sunday, March 28, 2010

क्या हम खुद को गलत मानने कि हद तक मैच्योर हैं?

११ मार्च को आखिरी दफ़े कुछ लिखा था यहाँ.. १५ दिन से ऊपर गुजर गए हैं यहाँ कुछ भी लिखे हुए.. मैं कभी भी इस मुगालते में नहीं रहा कि लोग मुझे पढ़ने को बेचैन हैं और मुझे अपने पाठकों के लिए कुछ लिखना चाहिए.. मुझे पता है कि लोगों कि यादाश्त बहुत कमजोर होती है और जो सामने उन्हें दिखता है बस उसे ही याद करती है.. बाकी बाते तो इतिहास के पन्नों में छिप जाया करती है.. अच्छे-अच्छे लेखक को भी लोग भूल जाया करते हैं, मैं तो लेखक भी नहीं हूँ..

कई लोग हैं जो मुझसे यह बात पूछ चुके हैं कि तुम कुछ लिख क्यों नहीं रहे हो? कुछ फोन पर, कुछ चैट पर और कुछ ई-पत्र के जरिये.. मैं अच्छे से जानता हूँ कि इसका कारण मेरा लिखा पढ़ने कि इच्छा के बदले उनको यह जानने कि उत्सुकता है कि मैं कभी भी इतने अंतराल तक अपने ब्लॉग को खाली नहीं छोड़ा करता हूँ.. आज भी कुछ बकवास ही लिख कर जा रहा हूँ..

चलिए मैं बता ही देता हूँ कि इन दिनों क्या किया?

इन दिनों खूब पढ़ा हूँ, जिसमे कंप्यूटर कि किताबों से लेकर साहित्य और दर्शन तक शामिल है.. अभी भी कई किताबें बची हुई है जो समयाभाव में मेरी राह तक रही हैं.. अपने स्वाभानुसार खूब सोचा भी हूँ, जिसमे इन साहित्य और दर्शन से लेकर अपने जीवन और भविष्य से संबंधित बाते भी हैं.. कई नए अनुभव भी मिले हैं इन पन्द्रह दिनों में ही जो शायद जीवन में तब तक काम आयें जब तक उसे गलत साबित करने वाले नए तथ्य सामने ना आ जाये..

काफी कुछ लिखा भी हूँ.. मगर सिर्फ और सिर्फ अपने लिए.. किसी और को उस जगह झाँकने नहीं देना चाहता हूँ.. क्योंकि मेरा मानना है कि हिंदी ब्लॉग जगत अभी तक उतना मैच्योर नहीं है कि उसे हजम कर सके.. लोग यहाँ चार-पांच साल पुराने लिंक को भी संभाल कर रखते हैं जिससे समय आने पर सामने वाले पर कीचड़ उछाला जा सके.. सामने वाले को नंगा कर खुद को सभ्रांत लोगों में शुमार दिखना चाहते हैं.. कुछ कुछ यही हाल मैं समाज के बारे में भी कहूँगा.. समाज के लोग तिलमिला उठते हैं ऐसी बाते सुनकर.. अपनी भ्रांतियों को टूटते देखना उनकी आदत में नहीं है.. कुछ लोग जल्दी और कुछ देर से मगर तिलमिलाते सभी हैं, और उसपर भी अगर बात सच्ची हो और उसे काटने का कोई तर्क उन्हें नहीं दिखे तो उसे अश्लील या वल्गर कहकर ख़ारिज कर देना चाहते हैं..(सनद रहे कि मैं भी इसी समाज और हिंदी ब्लॉग जगत ही ही बासिन्दा हूँ.. सो यह सब मुझपर भी लागू होता है..)

सभी कुछ लिखता हूँ अपनी वेब डायरी में.. एक ऐसे ब्लॉग पर जो मेरा नितांत निजी ब्लॉग है और उसपर मेरे अलावा किसी और को भटकने का अधिकार मैंने नहीं दिया है.. कुछ ख़्वाब ख्यालात कि बाते भी हैं उस पर, कुछ रूमानी बाते भी और कुछ समाज, दोस्ती और रिश्तों कि बाते भी.. कुछ बाते मैंने अपने कुछ मित्रों से भी कि उन विषयों पर जिन पर मैंने वहाँ लिख छोड़ा है, मगर उनके शब्द या व्यवहार फिर से बिना किसी तर्क के उसे ख़ारिज करने पर ही लगा हुआ था.. हो सकता है कि कभी मैं खुद ही उन्हें खारिज कर दूं, और बिना किसी गवाह या सबूत के उसे डिलीट होने का सजा भी सुना दूँ..

फिलहाल जिन किताबों को पढ़ रहा हूँ उसका चित्र मैं यहाँ लगा रहा हूँ.. जिन्हें जल कर ख़ाक होना है वह हो जाए और जिन्हें यह सोचकर गर्व करने का मौका मिल जाए कि "हुंह, यह सब तो मैंने दस साल पहले ही पढ़ रखे हैं" तो वे गर्वित भी हो सकते हैं..



कुछ अंग्रेजी कि पुस्तके भी हैं, जिनकी तस्वीर यहाँ नहीं लगा रहा हूँ, जिनमे प्रमुख रूप से रोबिन शर्मा कि किताबें शामिल है..

फुटकर नोट : कभी कभी लगता है वे मनुष्य जो सबसे अधिक अनैतिक होते हैं, नैतिकता का सबसे बड़ा लेक्चर उन्ही के पास होता है..

Thursday, March 11, 2010

बाथ टब कि कहानी


"पछान्त मामू, आपके पास टब है?" उसके अजीब सवालों में एक और सवाल शामिल था अभी.. मुझे समझ में नहीं आया कि अचानक से साईकिल चलाते हुए वह टब या यूं कहें कि बाथ टब पर कैसे आ गई.. मैंने भी उसके बालमन को दिलासा देते हुये "हां" कह दिया..

"कितना बड़ा है आपका वाला टब?" अगला सवाल.. मुझे घर में घुसे हुये बस दो-तीन घंटे ही हुये थे, सो अभी तक मेरा धैर्य उसके सवालों का जवाब देते हुये चूका नहीं था.. फिर भी मुझे समझ में नहीं आया कि क्या कहूँ, कि कितना बड़ा है? उसी ने समझाते हुए पूछा, "वन है या हन्ड्रेड?" मैंने पूछा "वन और हन्ड्रेड क्या होता है?"

मेरे नासमझ से सवाल ने उसे हंसा दिया.. मन ही मन सोची होगी कि मामू इत्ते बड़े हो गए हैं फिर भी कित्ते बुद्धू हैं.. "वन मतलब थोडा सा, और हन्ड्रेड मतलब सबसे बड़ा.." बोलते हुए वह अपने छोटे से हाथ को जितना फैला सकती थी, फैला लिया.. अब जबकि सारा मामला साफ़ था तब भला कोई खुद को कम क्यों बताये? मैंने भी हन्ड्रेड ही बताया..

"आप मुझे नहाने दोगे?"
"नहीं."
"मैं अच्छी लड़की हूँ.. बदमाशी भी नहीं करती हूँ.."
"अच्छा! क्या-क्या बदमाशी नहीं करती हो? पहले ये बताओ फिर हम बताएँगे कि तुमको नहाने देंगे कि नहीं."
"मैं जो हूँ न.. मैं जो हूँ न.." सोचते हुए थोडा सा हकलाने लगी.. जो उसके झूठ बोलने कि कोशिश करने कि शुरुवात जैसा कुछ लगा.. "मैं अप्पू को नहीं मारती हूँ.." हाँ, झूठ ही बोलने वाली थी.. दीदी से जब भी बात होती है तब ये जरूर सुनने को मिलता है कि आज फिर दोनों बहन झगडा कि है.. ये दीगर बात है कि ये अपनी छोटी बहन अप्पू को तभी मारती है जब उसकी शैतानियाँ इसके बर्दास्त से बाहर होता है..

"और क्या बदमाशी नहीं करती हो?" मेरे मन में अब उसकी सभी बदमाशियों को जानने का लालच जाग गया था..
"मैं किसी से किट्टा भी नहीं होती हूँ.. मम्मी से तो कभी नहीं.." उसने कभी नहीं पर जोर डालते हुए कहा.. हफ्ते भर पहले ही दीदी से हुई एक बात याद आ गई, जब यह मुझे दीदी से बात नहीं करने दे रही थी और दीदी के डांटने पर उससे बार-बार किट्टा हो रही थी.. मैं मन ही मन अपनी कामयाबी पर खुश होते हुए मुस्कुरा दिया..

"और?"
"और, मैं हूँ ना.. पौटी भी नहीं बोलती हूँ.." मुझे उसके भोलेपन पर प्यार आ गया.. मुझे याद आया जब मैं उससे पिछली बार मिला था तब वह गुस्से में आकर पौटी बोलती थी और सभी उसे समझते थे कि यह अच्छा शब्द नहीं है.. उसका कहना होता था कि क्या पौटी लगने पर भी पौटी नहीं बोलना चाहिए? तब फिर से उसे समझाना पड़ता था कि जब पौटी लगे तभी पौटी बोलना चाहिए.. नहीं तो नहीं.. इस बार उसके मुह से एक बार भी किसी और के लिए पौटी शब्द नहीं सुना.. लगा शायद पहले से अधिक समझदार हो गई है..

फिर बात आई-गई हो गई.. २ घंटे कि नींद भी मैंने मार लिया.. और वह जो दिन में नहीं सोती है सो मामू के पास रहने के लालच में मेरे पास ही सो भी गई.. उसके पास खिलोने वाला घर भी है, जिसे वह हाउस कहती है.. उसके लिए छोटे-छोटे फर्नीचर भी हैं.. मुझसे जिद करके वह सारा फर्नीचर उस छोटे से घर में सजवाया गया.. मैंने भी बहुत जतन से उसे सजाया भी.. मगर उससे क्या होता है भला.. मैंने जिस काम के लिए आधे घंटे का समय लिया था उसे उसने बस आधे मिनट में ही तितर-बितर किया और फिर से मेरे पास लेती आई.. "मामू ये खराब हो गया.. फिर से सजा दो.."

रात में फिर से उसे मेरा टब याद आया.. "मामू, आपका टब बहुत बड़ा है?"
"हाँ.."
तभी किसी कमरे से अप्पू कि रोने कि आवाज आने लगी.. उसे इसमे भी एक नया सवाल मिल गया..
"मामू, जो बच्चे रोते हैं वो गंदे बच्चे होते हैं ना?"
"किसने बोला?"
"मिस ने.." शायद स्कूल वाले मिस कि बात हो..
"नहीं बेटू, जो बच्चे बिना बात के रोते हैं वो गंदे होते हैं.."
"तो जब मैं आकांक्षा को मारती हूँ और वह रोती है तब वह गन्दी बच्ची नहीं होती हूँ ना?"
मन ही मन में हंसी आ गई.. खुद बुरा काम करके आकांक्षा को अच्छी बच्ची साबित कर रही है.. मगर यह आकांक्षा है कौन? यह सवाल मन में आया मगर मैंने पूछा नहीं.. उसकी ही रौ में बहना अच्छा लग रहा था..
"लेकिन किसी को मारना बहुत बुरी बात होती है.." मैंने कहा..
"जो बच्चा किसी को मारता है उसे आप टब में नहीं नहाने देते हैं?"
"नहीं.."
"अब से मैं किसी को नहीं मारूंगी.." मगर मेरे चहरे पर सपाट भाव देख उसे लगा कि मैं उसकी बात पर भरोसा नहीं कर रहा हूँ.. "सच्ची मामू.." मुझे हर हाल में वह सहमत करना चाह रही थी..
"ठीक है.. फिर नहाने दूँगा.."

रात के खाने के बाद वह दीदी से जिद करने लगी कि मैं मामू के पास सोऊंगी.. दीदी उसे मन कर रही थी.. मैंने दीदी को बोला कि सोने दो आज.. दीदी का कहना था कि तुम्हारे साथ तो कोई बात नहीं है, मगर कोई बाहरी मेहमान आएगा तब भी ये जिद करने लगेगी.. इसकी आदत यही हो जायेगी.. मेरा कहना था कि एक दिन में कोई आदत नहीं लगेगी और उसे अपने पास सुला लिया..

अचानक से उसे फिर से उसका टब याद हो आया.. अब यह जादुई टब मेरा कहाँ रहा.. अब तो उसी का हो गया था.. उसे भरोसा हो गया था कि यह मेरा और उसका ज्वाइंट वेंचर है.. और हम दोनों जिसे चाहेंगे उसे ही उसमे नहाने देंगे.. बोली, "मामू, जो कच्छा बोलता है उसे भी नहीं नहाने दूँगी न?"
"नहीं", मैंने कहा फिर पूछा, "कौन कच्छा बोलता है?"
"राहुल जो है ना, वो बोलता है.." अब राहुल कौन है भाई? मगर पूछा नहीं.. अगले दिन अहले सुबह वाली फ्लाईट कि याद आ गई.. और सोने कि जुगत में लग गया..

सुबह-सुबह उसे सोता ही छोड़ मैं घर से निकल गया.. चेन्नई उतरने के बाद दीदी को फोन लगाया तो पता चला कि मेरे जाने के १५ मिनट बाद ही उसकी नींद खुली और मुझे नहीं देख कर दीदी के पास गई.. लगभग रोने ही वाली थी कि दीदी उसे गले से लगा कर सुला दी.. सुबह उसे याद ही नहीं कि मामू आया था और चला गया.. स्कूल से आने के बाद अचानक से याद आने पर अपनी मम्मी के पास जाकर फूट-फूट कर रोने लगी कि मामू चला गया.. चुप होने से पहले वाली आखिरी सिसकी में बोली "मामू मुझे टब में भी नहीं नहाने दिया.." बाद में जब दीदी से टब के बारे में बताया टब दीदी बोली कि टब में पानी बहुत खर्च होता है सो इसे नहीं नहाने देते हैं.. इसलिए तुमसे बोल रही थी कि मुझे टब में नहाने दो..


अदिति अप्पू साथ-साथ. अदिति रूठी हुई है और अप्पू पीछे से उसके रूठने जैसी एक्टिंग करने कि कोशिश कर रही है.

Saturday, March 06, 2010

शाईनिंग इंडिया और कैटल क्लास

मैं अबकी जब घर आ रहा था तब चार साल के बाद स्लीपर में यात्रा किया.. मैं रास्ते भर खूब इंज्वाय किया.. तरह तरह के लोग आते थे और अपने तरह से अपना बिजनेस कर रहे थे.. कोई पान-मसाला बेच रहा था तो कोई नट बन कर पैसे कमा रहा था.. कभी कोई लैंगिक विकलांग आकर जबरी वसूली कर रहा था, तो कोई गा रहा था.. कोई भीख मांग रहा था तो कोई भगवान का रूप धारण किये हुआ था.. पटना पहूंचने से ठीक पहले मुझे अचानक से लगा कि यह लोग चाहे जैसे भी अपने जीने की जद्दोजेहद में लगे हुये हैं... और मैं इन्हें देखकर मजे ले रहा हूं? क्या मैं भी उन सो-कौल्ड एलीट वर्ग में आ गया हूं जो थर्ड ए.सी., सेकेण्ड ए.सी. या फिर हवाई जहाज से यात्रा करने वालों की जमात में शामिल हो गया हूं? और उनके लिये ये सारे लोग तमाशा हो गये हैं, कुछ उसी तरह जैसे हम चिड़ियाघर में जानवरों का तमाशा देखने जाते हैं!! फिर अपने ऊपर शर्म आने लगी.. मन में आया कि यही है शाईनिंग इंडिया, जहां किसी का दर्द औरों के लिये तमाशा से अधिक और कुछ नहीं होता है..

हमारे देश में जब तक यह अमीर-गरीब की खाई यूं ही बढ़ती रहेगी तब तक भारत कभी भी उन्नती के पथ पर आगे नहीं बढ़ सकता है..