Wednesday, September 30, 2009

मुझे नहीं पढ़ना यह ब्लौग!!


जैसा कि मैं कई बार पहले भी अपने पुराने पोस्ट पर बता चुका हूं, मैं अधिकतर ब्लौग गूगल रीडर की सहायता से ही पढ़ता हूं.. कुछ ब्लौग ऐसे भी मिलते हैं जिसे कुछ दिनों तक देखने के बाद उसमें अपनी पसंद की कोई चीज नहीं मिलती है.. फिर उसे हटा देता हूं..

इसी फीड सब्स्क्रिप्शन/अनसब्स्क्रिप्शन के चक्कर में परेशान हूं.. एक ब्लौग है.. उसे सब्स्क्राईब किया था.. मगर बाद में उस पर अधिकतर सामाग्री किसी एक जाति विशेष से संबंधित पोस्ट होने लगे.. मैंने उसे अनसब्स्क्रिप्शन किया.. उस दिन वह नहीं दिखा.. मगर कुछ दिनों बाद वह वापस अपने उसी जगह पर दिखना शुरू हो गया.. मैं पूरी तरह से कंफ्यूज.. मुझे लगा जैसे मैंने उसे हटाया नहीं था.. फिर से हटाया.. मगर अगले दिन फिर से दिखने लगा..

अबकी बार मैंने उसे हटाने से पहले सारे कूकी और अस्थाई फाईल्स को डिलीट किया और उसे हटाने के बाद भी यही डिलिशन का काम दोहराया.. नतिजा सिफर.. आज फिर जब गूगल रीडर को खोल कर देखा तो पाया वह अपनी जगह पर शान से दिख रहा था और मेरा मुंह चिढ़ा रहा था..

कई साफ्टवेयर ऐसे भी आते हैं जिनका काम दूसरे साफ्टवेयरों को खोप समेत कबूतराय नमः करना होता है.. इन्हें साफ्टवेयर किलिंग कहते हैं.. लगता है अब गूगल रीडर किलिंग नाम का शब्द भी शब्दकोश में जोड़ने की जरूरत है.. ;)

किसी के पास अगर इस समस्या का समाधान है तो कृपया सूचित करें..

Tuesday, September 29, 2009

ब्लौगवाणी के बाद हिंदी चिट्ठाकारिता की दिशा क्या हो सकती थी?

अभी-अभी नेट पर बैठा.. हर दिन की तरह दिन की शुरूवात ब्लौगवाणी से नहीं की.. सोचा कि वह तो बंद हो चुकी है.. मगर जैसे ही अपने ब्लौग पर गया तो पाया कि ब्लौगवाणी के विजेट पर कल के मैसेज के बदले ब्लौगवाणी का लोगो दिख रहा है.. देखकर मन प्रसन्न हो गया.. ब्लौगवाणी का मैसेज भी पढ़ा जिसका लिंक यहां है.. ब्लौगवाणी के नये अवतार के बारे में जानकर और भी अच्छा लगा.. अब उसका इंतजार है..

मैं बैठा सोच रहा था कि अगर ब्लौगवाणी सच में नहीं आती तो हिंदी ब्लौगिंग का ऊंट किस करवट बैठता?

सबसे पहले तो मैं अपने इस ब्लौग की बात कर लूं.. मेरे इस ब्लौग पर लगभग 64000 हिट्स हुये हैं.. जिसमें से लगभग आधे ब्लौगवाणी की ओर से आये हैं.. मुझे अपने शुरूवाती दिनों की भी याद है जब 80 फीसदी ट्रैफिक ब्लौगवाणी देता था.. जैसे-जैसे समय बीतता गया और मेरा गूगल पेग रैंकिंग ऊपर चढ़ता गया, वैसे-वैसे ब्लौगवाणी की भागीदारी कम होती गई.. जो अब कुल 50 फीसदी पर आ गई है.. मतलब आजकल मुझे हर पोस्ट पर ब्लौगवाणी से लगभग 20 से 30 फीसदी ही ट्रैफिक मिलती है, लगभग 10 फीसदी चिट्ठाजगत से, लगभग 50 फीसदी गूगल से और बाकी के श्रोत अन्य हैं..

मतलब कुल मिला कर मैं यह कह सकता हूं कि मुझे अब ब्लौगवाणी के चले जाने से बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता.. मगर ऐसे में इसके बंद होने से मुझे बहुत बुरा लगा.. हम जब छोटे होते हैं और माता-पिता पर निर्भर रहते हैं, वहीं बड़े होने के बाद और स्वनिर्भर होने के बाद क्या उन्हें छोड़ देते हैं? कुछ-कुछ मेरे ब्लौग के लिये ब्लौगवाणी का महत्व भी ऐसा ही कुछ है.. किसी अभिभावक की तरह..

मेरी राय में ब्लौगवाणी के बंद होने से उन ब्लौगरों के ट्रफिक पर बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता जिनका गूगल पेज रैंक 3/10 या उससे ज्यादा है.. मगर नये ब्लौगरों को जो क्षति पहूंचती वह बयान नहीं किया जा सकता है.. मैंने यह भी देखा है कि नये ब्लौगरों को ही ब्लौगवाणी से अधिक शिकायत होती है.. कि उनके ब्लौग को कोई पसंद नहीं करता या फिर कोई पढ़ता नहीं या फिर कोई कमेंट नहीं करता.. तो यह बात साफ कर देनी चाहिये कि जब वे लगातार अच्छा लिखते रहेंगे तब जाकर 1-2 साल में वे उस स्थिति में पहूंच सकेंगे जहां वे कई ब्लौगरों को देखते हैं.. सिर्फ 3-4 ट्रैफिक खीचने वाले शीर्षक देकर नहीं.. कुछ लोग हैं जो इसके अपवाद हैं और कम समय में ही अपनी पहचान बना लिये हैं..

मैं सभी को यही सलाह देना चाहूंगा कि वे पसंद, ब्लौगवाणी द्वारा आने वाले ट्रैफिक्स और चिट्ठाजगत के रैंक के फेर में ना पड़कर गूगल रैंकिंग और अलेक्सा रैंकिंग के फेर में पड़ें.. तभी वे लंबी दौर में बने रह सकते हैं.. इसी में हिंदी चिट्ठाकारिता की भी भलाई है..

अगर आपके पास भी इस विषय पर कहने को कुछ है तो अपना विचार रखना ना भूलें.. धन्यवाद

Monday, September 28, 2009

बधाई हो, ब्लौगवाणी बंद हो गया है!!!


अंततः ब्लौगवाणी बंद हो गया.. मेरी नजर में अब हिंदी ब्लौगिंग, जो अभी अभी चलना सीखा था, बैसाखियों पर आ गया है.. मैथिली जी में बहुत साहस और विवेक था जो इसे इतने दिनों तक चला सके.. शायद मैं उनकी जगह पर होता तो एक ऐसा प्लेटफार्म, जिससे मुझे कोई आर्थिक नफा तो नहीं हो रहा हो उल्टे बदनामियों का सारा ठीकरा मेरे ही सर फोड़ा जा रहा हो, को कभी का बंद कर चुका होता..

इससे उन लोगों के दिल को तसल्ली जरूर मिल गई होगी जो पानी पी-पी कर ब्लौगवाणी को कोसने में यकीन करते थे.. कुछ ऐसे भी लोग थे जो अपने ब्लौग पर ट्रैफिक बढ़ाने के लिये भी ब्लौगवाणी को कोसने का काम करते थे.. अब वे भी बेचैन रहेंगे, क्योंकि उन्होंने सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को ही हलाल कर दिया है..

अब देखना यह है कि हिंदी ब्लौग पर आने वाले ट्रैफिक पर इससे कितना असर पड़ता है.. मेरा अपना अनुमान है कि लोग अब दूसरे अग्रीगेटरों की ओर भी बढ़ना शुरू करेंगे जिसमें पहला नाम चिट्ठाजगत का होगा.. नारद का इतीश्री तो लोग पहले ही कर चुके हैं.. ब्लौगवाणी के जाने से हिंदी ब्लौगिंगा के एक युग का अंत हो गया है..

मेरा मेरे ब्लौग मित्रों से अपील है कि अब एक अंतिम स्तंभ "चिट्ठाजगत" जो बचा हुआ है, उसके क्रियाक्रम में भी अब जुट ही जाओ.. यह अंतिम बड़ा अग्रीगेटर प्लेटफार्म क्यों बचा रहे? इसे भी स्वाहा कर ही दिया जाये..

अंत में मैथिली जी से मैं आग्रह करना चाहूंगा कि आप अपने फैसले पर पुनर्विचार जरूर करें.. अगर कुछ समस्या हो इसे चालू रखने में तो मुझसे संपर्क करें, मैं यथासंभव मदद करने को तैयार हूं..

Saturday, September 26, 2009

गौतम जी अन्य फौजियों से अलग तो नहीं? फिर ये संवेदनहीनता क्यों?


बस अभी अभी खबर मिली कि हमारे प्रिय गौतम जी जख्मी हैं.. आतंकवादिओं से हमारे देश की रक्षा करते हुये कंधे पर गोली खायी और अभी अस्पताल में हैं.. जैसे ही इसे अनुराग आर्य जी के ब्लौग पर पढ़ा, एक झटका सा लगा.. अधिक छानबीन की तो पता चला कि वह अब खतरे से बाहर हैं.. थोड़ी संतुष्टी हुई.. सोचा कि उन्हें उनके ब्लौग पर शुभकामनायें दे दूं.. पहूंचा उनके ब्लौग पर.. कुछ लिखा भी.. मगर तभी एक विचार ने मुझे बहुत परेशान कर दिया, और मैं यह लिखने बैठ गया..

गौतम जी को मैं बहुत अच्छे से जानता हूं.. वे मेरे एकमात्र कंम्यूनिटी चिट्ठा "हम बड़े नहीं होंगे, कामिक्स जिंदाबाद" के लेखक भी हैं(वैसे कहने को एक और कंम्यूनिटी चिट्ठा है मगर वह सिर्फ कुछ खास मित्रों के लिये ही).. गौतम जी शेरों-शायरी करना और कामिक्स-कार्टून में भी रूची रखते हैं.. उनके जख्मी होने की खबर सुनकर लगभग सदमा लगने जैसी स्थिति में ही पहूंच गया.. कभी फोन पर बात नहीं हुई है, फिर भी अपने से लगते हैं..

एक-दो दिन पहले ही उस मुठभेड़ के बारे में किसी समाचार चैनल पर सुना था जिसमें दो जवान के शहीद होने और तीन के जख्मी होने की खबर भी थी.. जब कभी भी इस तरह की खबर सुनता हूं या पढ़ता हूं तो एक बार ख्याल गौतम जी पर जरूर जाता है.. मगर सोचता हूं कि वह ठीक ही होंगे.. इस बार भी कुछ वैसे ही विचार मन में आये थे.. मगर हर बार की सोची चीज पूरी हो जाये यह संभव नहीं है.. अगर ऐसा हो तो जीने का सलीका ही खत्म हो जाये.. जीवन में मिर्च और सरसो का तड़का शायद इसी अनिश्चितता से मिलता है.. मगर अचानक से अधिक मिर्च पड़ जाने से तकलीफ भी होती है..

अभी जब उनके बारे में पढ़ा तो सदमा सा लगा.. फिर थोड़ी देर बाद अजीब सा महसूस होने लगा.. मैं बैठा सोच रहा था कि क्या वे फौजी जो हमारे दोस्त रिश्तेदार होते हैं, उन फौजियों से अलग होते हैं जिन्हें हम नहीं जानते? अपने परिचित फौजियों को मिली एक जख्म भी सदमा पहूंचाती है, मगर अन्य फौजियों को देश रक्षा में मिली मौत भी हम निर्विकार भाव से न्यूज चैनल पर सुनते हैं.. आखिर यह संवेदनहीनता हमारे भीतर आयी कहां से?

अंत में गौतम जी और अन्य सिपाहियों के जल्द से जल्द ठीक होकर आने की कामना करता हूं.. गौतम जी, आपके अगले गजल का कोई बेसब्री से इंतजार कर रहा है..

Friday, September 25, 2009

जिन्हें गुमान था कि वे सितारे हैं, शायद वह टूट गया

आज दोपहर में मैं खाना खाने के लिये अपने दफ़्तर के ठीक बगल में अवस्थित रेस्टोरेंट "पेलिटा नासी कांधार" गया.. कुछ हद तक कह सकते हैं कि वह चेन्नई के कुछ प्रसिद्ध रेस्टोरेंट्स में से एक है.. कारण यह कि वहां मलेशियन खाना अच्छे गुणवत्ता के साथ मिलता है..

मेरे साथ तीन और लोग थे, और वे तीनों तेलगु हैं.. हमने अपना खाना आर्डर किया और लगे गप्पे मारने.. तभी देखा कि एक आदमी पूरे शान से आया और ठीक मेरे बगल वाले टेबल पर बैठ गया.. लोग बाग भी उन्हीं की ओर बारंबार नजरें इनायत रहे थे.. मगर हमें इनसे कोई मतलब नहीं था, क्योंकि उन्हें पहचानने वाला कोई ना था हममें से.. लगभग पांच मिनट बाद उन तीनों में से एक ने उसे पहचाना और हमें बताया कि वह तमिल सिनेमा का एक सितारा है, तभी लोग उसे नजरें इनायत कर रहे हैं.. मगर फिर भी हम चारों में से किसी ने नजर फेर कर भी नहीं देखा.. सभी आपस में ही हंसी मजाक में मसगूल रहे..

थोड़ी देर बाद हमने पाया कि हमारे बदले वह ही हमें बार-बार पलट कर देख रहा है.. शायद आश्चर्य कर रहा होगा कि ये लोग दूसरों कि तरह क्यों नहीं मेरी ओर ध्यान दे रहें हैं.. जब तक हम वहां से जाते तब तक उसके चेहरे पर से वह मुस्कान गायब हो चुकी थी, अब कारण हमारे द्वारा ध्यान ना देना हो या फिर कुछ और ही.. खैर इतना तो जरूर था कि उसे लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचने की आदत सी हो चुकी थी, मगर यहां लोग जब उसकी ओर ध्यान नहीं दे रहे थे तो उसके चेहरे पर खीज आ चुकी थी.. :)

खैर मुझे उसका नाम भी नहीं पता है, और ना ही मैंने पता करने कि कोशिश की..

आज मेरी कंपनी में गरबा नाच का आयोजन किया गया था, जिसमें मैं भी नाचा और फिर तस्वीरें लेने में व्यस्त हो गया.. बस अभी-अभी वहीं से आ रहा हूं, पसीने से लथपथ.. अगले पोस्ट में उसकी कुछ तस्वीरों के साथ कुछ यहां की सांस्कृतिक जानकारी भी लाऊंगा..

Friday, September 18, 2009

दो बजिया वैराग्य

मम्मी की बातों में अक्सर जहां एक मां की ममता का आवेश छिपा होता है वहीं पापा कि बातों में एक विद्वता का पुट और पूरे जीवन भर के अनुभव का निचोर मिलता है.. जब कभी मानसिक रूप से कमजोर होता हूं तो मम्मी को हमेशा साथ पाता हूं.. वहीं ये सब बाते पापाजी से नहीं कर पाता हूं.. खुद के कमजोर दिखने का एक डर सा बैठा होता है.. जीवन या कैरियर से संबंधित किसी अंतर्द्वंदों में घिरे होने की सी स्थिति में पापाजी से जमकर बातें होती है.. साहित्य संबंधित बातों को लेकर अक्सर हम घंटों फोन पर ही बैठ जाया करते हैं.. किसी जमाने में पापाजी को हिंदी साहित्य में भीषण रस मिलता था(जिसे उन्होंने मेरे होश आने से पहले ही छोड़ दिया) जो कार्य की अधिकता और परिवार की जिम्मेदारियों को संभालते-संभालते ना जाने कब पीछे छूट गया.. उन पर भी खूब चर्चा होती है.. एक तो मुझे भी उनमें रस मिलता है, दूसरी साहित्य संबंधी कई बातों में काफी जिज्ञासा भी होती है और तीसरी बात यह कि मुझे लगता है की इन विषयों पर उन्हें भी कोई बात करने वाला नहीं मिलता है.. कम से कम घर में तो नहीं.. मैंने भी अपने पापाजी के अनुभव से एक बात सीखी है.. प्रशासनिक अधिकारी होने से आप या तो अपने आप में बहुत सिमट कर रह जाते हैं या फिर आपको हर जगह हावी रहने की आदत सी पड़ जाती है.. मेरे पापाजी इनमें से पहले श्रेणी में आते हैं..

पापाजी की समझ में जब से मुझे(हमें) अच्छे-बुरे का ज्ञान हुआ तब से उन्होंने कुछ कहना छोड़ दिया.. बस समय आने पर कम शब्दों में मुझे समझा दिया करते हैं.. कक्षा आठवीं की बात याद है मुझे, जब मैंने परिक्षा में चोरी की थी और पापाजी को बहुत बाद में पता चला था.. उस समय भी उन्होंने कुछ नहीं कहा, और तब भी उन्होंने कुछ नहीं कहा जब उन्हें पता चला कि मैं चेन स्मोकर हो गया हूं.. उन्हें मेरी इन बुरी बातों का ज्ञान है बस इतना ही काफी होता था मुझे अपने भीतर आत्मग्लानी जगाने के लिये..

मुझे एक और आत्मग्लानी अक्सर अंदर से खाये जाती है.. मेरे मुताबिक मैंने अभी तक अपने जीवन में कोई भी ऐसा काम नहीं किया है जिस पर पापा-मम्मी गर्व से कह सकें कि "हां! देखो प्रशान्त मेरा बेटा है.." भैया ने उन्हें इस तरह के इतने मौके दिये हैं कि अब तो उन्हें भी याद नहीं होगा.. भैया सन् 1994 में जब मैट्रिक में गणित में 99 अंक लाये थे तब से उस गिनती की शुरूवात हुई थी, जिसमें आई.आई.टी. में टॉप करना भी शामिल रहा.. भैया उम्र में मुझसे बहुत बड़े नहीं हैं.. ऐसे में हर चीज में मैं उनसे स्पर्धा किया करता था.. और हर चीज में उनसे हारता भी था, चाहे वो कोई खेल हो या पढ़ाई.. उस समय बहुत चिढ़न होती थी.. मगर अब वही बातें अब मैं अपने सभी परिचितों के बीच गर्व से सुनाता हूं कि हां मेरे भैया आई.आई.टी. जैसे संस्थान के टॉपर रह चुके हैं और यू.पी.एस.सी. में भी अच्छे रैंक लाये थे..

मैंने खुद को लेकर अक्सर पापाजी के भीतर कुछ सालता सा महसूस किया हूं.. एक-दो बार उन्हें खुद उन बातों पर अफ़सोस करते भी सुना.. उनका यह मानना है कि जब मेरी पढ़ाई का सही समय आया(मैट्रिक और उसके बाद की पढ़ाई का) तब वो मुझ पर कुछ भी ध्यान नहीं दे पाये.. अगर अपने मन की बात करूं तो उन दिनों मेरे मन में भी कुछ इस तरह की हीन भावना थी कि जितना ध्यान भैया पर उन्होंने दिया उतना मुझपर नहीं.. मगर जब आज के संदर्भ में मैं देखता हूं तो पाता हूं कि भले ही उस समय उन्होंने मुझपर उतना ध्यान नहीं दिया था मगर बाद में जितना सहयोग और आजादी पापा-मम्मी ने ना दिया होता तो आज मैं जो कुछ भी हूं, वह ना होता.. एक के बाद एक खराब अंकों से पास होना, फिर बारहवीं में एक बार फेल होने के बाद भी कभी मेरे मन में किसी भी प्रकार की कुंठा को जगने नहीं दिया.. भले ही इस संदर्भ में वो जो कुछ भी सोचते हों मगर मेरा तो यही मानना है कि मैं आज जो कुछ भी हूं वो सभी पापा-मम्मी के कारण ही..

कभी-कभी पापाजी मुझे धिरोदात्त नायक भी कहा करते हैं.. मुझे बहुत आश्चर्य भी होता है उनकी इस बात पर.. मेरे मुताबिक तो मैं नायक कहलाने के भी लायक नहीं हूं.. फिर धिरोदात्त नायक तो बहुत दूर की कौड़ी है.. शायद यह इस कारण से होगा कि सभी मां-बाप अपने बच्चों को सबसे बढ़िया समझते हैं.. उनकी नजर में उनके बच्चे सबसे अच्छे होते हैं, सच्चाई चाहे कुछ और ही क्यों ना हो..


शादी के तुरंत बाद कि पापा-मम्मी की तस्वीर

बहुत सारी बातें मन में आ रही है.. कुछ इमोशनल सा और कुछ नौस्टैल्जिक सा भी हुआ जा रहा हूं.. कुछ बातें लिख डाली है मैंने, कई बातें लिख नहीं सकता और कई और बातें जो लिखने लायक हैं उसे भविष्य के लिये छोड़ रहा हूं..

परसों ऑफिस छोड़ने से पहले मैंने अपने ट्विटर पर जो अंतिम अपडेट किया था वह कुछ ऐसा था, "हर दिन रात के दो बजे मन दार्शनिक सा हुआ जाता है, आज फिर टेस्ट करके देखते हैं.." अभी भी रात के दो बज रहे हैं और मैं बैठा यह सब लिख रहा हूं.. :)

यह पोस्ट मैंने कल रात बैठकर लिखी थी.. पापाजी को जब इस बारे में बताया था तो उन्होंने इसे दो बजिया वैराग्य का नाम दे दिया.. जो कि इसका शीर्षक भी है.. :)

Wednesday, September 16, 2009

आई.टी. में प्रतिदिन कार्यावधि अधिक होने के कुछ प्रमुख कारण

मेरे पिछले पोस्ट पर दिनेश जी ने कुछ प्रश्न पूछे थे, और स्वप्नदर्शी जी ने अपने कुछ अनुभव बांटे थे..

दिनेश जी ने कहा -
एक पहलू से आप की बात सही है। लेकिन यह समझ नहीं आई कि आईटी वालों को 16-16 घंटे क्यों काम करना पड़ता है जब कि अनेक आईटी प्रवीण बेरोजगार हैं। यह गैरकानूनी भी है और मानव स्वास्थ्य की दृष्टि से गलत भी इतना तनाव अनेक वर्ष तक झेलने पर तो मानसिक रोगी बढ़ जाएंगे।


स्वप्नदर्शी जी ने कहा -
I think in general men in IT companies are changing their jobs in every six months, and some people have used this or that extensive training only to improve CV and negotiation for better salary. And if you put the facts together, it will be quite clear that by not employing women, this cost is not being saved effectively. On the contrary, women like more stability, even if the salary is low and do not change jobs so often. I do not think that even 10% of the men in IT sector have been working for a single company for past 10 years.

I typically work myself about 14-16 hours, sometimes even 20 hours at a stretch. But my Academic setting offers me some flexibility that I can break it the way I want, and can carry some work home. What is needed for women and for men, to perform at their best is to have some kind of support system, flexibility with their partners and with working schedule.

Also, marriage is not the end of productive life, its the beginning, in ever sense for individuals. So I will say that neither factually, and not theoretically, this discrimination is justified.

Apart from everything else, I agree with Dwivediji that its not healthy for any one to work in stress, and even if it is the IT Job, basically it is exploitation of cheap labor, and co-operate sector will do everything to create a culture of inequality, and divide and rule people for their benefit, it can be Women vs. Men, old vs New generation, pregnant Vs. unmarried women, Dalit Vs. Savarn and so on .....

specially in India, so that they have to give minimum benefits to their employees.



मुझे अभी जहां तक अनुभव हुआ है उसके मुताबिक मैं निम्नलिखित कारणों को बड़ी वजह मानता हूं जिस कारण आई.टी. में प्रतिदिन कार्य समय अन्य इंडस्ट्री से ज्यादा होते हैं -

1. Wrong Estimation - अक्सर किसी कार्य को सम्पन्न करने में लगने वाले समय की गणना गलत होने के कारण प्रतिदिन कार्यावधि बढ़ जाया करती है.. ऐसा अक्सर उस समय होता है जब कांट्रैक्ट पाने के लिये कम से कम समय में काम अच्छे गुणवत्ता के साथ खत्म करने का प्रस्ताव क्लाईंट के सामने दिया जाता है और कांट्रैक्ट मिलने पर उस टीम के सभी लोगों को तनाव में आकर कार्य करना पड़ता है.. ये कहीं ना कहीं से बाजार के दबाव के कारण से होता है..

2. कई बार कर्मचारी की अपनी गलती के कारण भी ऐसा होता है.. ऐसा तब होता है जब कार्य की डेड लाईन तय होती है, और कर्मचारी पहले से ना लगकर अंत समय में पूरी उर्जा के साथ कार्य को खत्म करने में लगे होते हैं..

3. कई बार मैनेजर या लीड की गलती के कारण भी ऐसा होता है.. जब मैनेजर या लीड अपनी टीम को अच्छा साबित करने के लिये एक-एक व्यक्ति पर दो-दो लोगों का काम सौंप देते हैं.. अगर दूरगामी प्रभावों की बात करें तो यह कहीं ना कहीं से टीम के लिये नुकसानदेय ही साबित होता है..

4. इस क्षेत्र में कार्य करने वाले अधिकतर युवा ही होते हैं, जो घर से बाहर किसी अन्य शहर में बैचलर जीवन बिताते होते हैं.. अब ऐसे में उनका सोचना होता है कि घर जाकर भी करना क्या है, कम से कम यहां चाय-कॉफी और इंटरनेट तो मिल रहा है.. और बॉस पर भी अच्छा प्रभाव पड़ता है कि यह देर तक रूकता है.. मगर यही आदत बाद में गले का पाश बन जाता है.. क्योंकि बॉस सोचते हैं कि यह बंदा देर तक रूक कर काम करता है, जबकी समय हर समय एक जैसा नहीं होता है..

अन्य कई कारण होंगे और हैं भी, जिसका सामना मुझे अभी तक नहीं करना पड़ा है.. पाठकों से इस पर कुछ और प्रकाश डालने के अनुरोध के साथ यह पोस्ट समाप्त करता हूं..

Tuesday, September 15, 2009

आई.टी. क्षेत्र में लड़कियां

अगर इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दिया जये तो मुझे ध्यान में नहीं आता है कि कभी किसी महिला को मैं आई.टी. क्षेत्र में प्रोजेक्ट मैनेजर से ऊपर वाले पोस्ट पर कभी देखा हूं.. किसी अच्छे आई.टी. कंपनी में प्रोजेक्ट मैनेजर बनने के लिये औसतन कम से कम 8-10 साल चहिये, और कम से कम 3-4 साल पोजेक्ट मैनेजर पर अच्छे रेटिंग पाने के बाद उससे आगे तरक्की होती है.. मतलब अगर आपके पास औसत रूप से लगभग 15 साल का अनुभव होगा तभी आप उस ऊंचाई तक पहूंच पाते हैं.. मगर आई.टी. क्षेत्र में उतने दिनों तक काम करने वाली महिलाओं कि संख्या शायद आय अंगुलियों पर गिन सकते हैं..

अभी कुछ महिने पहले की बात है, मेरी एक मित्र, जो अभी हाल में ही बी.टेक पास हुई है, मुझसे बोल रही थी, "अभी कुछ दिनों में ही मेरा ज्वाईनिंग आने वाला है और मैंने सुना है कि वहां कभी-कभी 16-17 घंटे भी काम करना पड़ता है.. मैं कैसे करूंगी, मुझे समझ में नहीं आता है.."
मैंने उसे कहा कि जैसे सभी करते हैं वैसे ही तुम भी करोगी.. इस पर उसका कहना था कि मैं लड़की हूं ना इसलिये ऐसा बोल रही हूं.. पहले तो मैंने उसे समझाया कि पहले ही मन में बैठा ली हो कि मुझसे नहीं होगा क्योंकि मैं लड़की हूं, तुम तो आधा जंग यहीं हार गई हो.. मगर उसने वही रट्ट लगा रखी थी.. फिर मैंने उसे किसी भी प्रकार के सलाह देने से मना करते हुये कहा कि अगर तुम इसी सोच के साथ इस क्षेत्र में आना चाहती हो तो मेरी तरफ से कोई सलाह नहीं है..

अभी कुछ महिने पहले मेरी टीम में एक सदस्य की आवश्यकता हुई थी.. साक्षात्कारों का दौर चालू था.. मगर जिस किसी अविवाहित लड़कियों का साक्षात्कार लिया गया था वह बिलकुल अनमने ढ़ंग से.. बाद में अंदर की बात मुझे पता चली कि अविवाहित लड़कियां कब शादी करके छोड़कर चली जायें इसका कुछ ठीक नहीं होता है, सो उनका चुनाव ही ना किया जाये..
मैं यहां किसी को सही या गलत नहीं कह रहा हूं.. अगर मैनेजमेंट के नजरिये से देखें तो वह सही है.. क्योंकि वह किसी को नौकरी पर रखकर उसे ट्रेनिंग देती है और वो 6-7 महिने में छोड़ दे तो घाटा मैनेजमेंट को ही है.. वहीं इसे किसी लड़की के नजरिये से देखें तो एक तरह से उसके साथ भेदभाव किया जा रहा है.. (यह बात और है कि बाद में जिसे रखा गया वह भी जल्दी ही छोड़कर चला गया.. :))

ऐसे ना जाने कितने ही किस्से आस-पास बिखड़े हुये हैं जिसे हम कभी गौर से नहीं देख पाते हैं, मगर जिस बात ने मुझे इनपर गौर करने को विवश किया वह यह कि क्यों लड़कियां आई.टी. क्षेत्र में 15-20 साल लगातार नौकरी नहीं कर पाती हैं, वहीं मैनेजमेंट क्षेत्र या किसी और क्षेत्र में आराम से रम जाती हैं?

Friday, September 11, 2009

आज से ठीक एक साल पहले कि एक पोस्ट

पिछले साल आज के ही दिन मैंने एक पोस्ट लिखी थी, जो मेरे द्वारा लिखी गई सबसे छोटी पोस्ट है.. जिसमें सिर्फ पांच शब्दों का प्रयोग किया गया था.. अब आप इसे माईक्रो ब्लौगिंग भी नहीं कह सकते हैं, यह तो उससे भी छोटा था.. मगर उस पर आये कमेंट्स मजेदार थे.. आज इसे ही पढ़िये..


आज सात साल हो गये


आज सात साल हो गये..


10 टिप्पणी:

दिनेशराय द्विवेदी said...

जिन्दगी चल पड़ती है हर बार रास्ते पर

वक्त कैसे गुज़रता है, पता नहीं लगता



डॉ .अनुराग said...

keep it up....



manvinder bhimber said...

chalna hi jindagi hai...chalte raho



mamta said...

जिंदगी इसी का नाम है।



संगीता पुरी said...

बधाई हो।



Lovely kumari said...

तो पंचम सुर में आलाप कीजिये ...समझा समझा के थक गई मैं पर नही ..



Udan Tashtari said...

किस बात के सात साल हुए??
हमारे भी ९ साल हो गये-पहले आप बताओ फिर हम बतायेंगे. :)



PD said...

अजी अमेरिका पर आतंकवादी हमले के 7 साल पूरे हुये..
यहां तो आये कमेंट पढकर सभी ना जाने क्या क्या सोचेंगे.. :)



अभिषेक ओझा said...

हां हां ये भी खूब रही, ये तो अच्छा रहा की मैं लेट से आया !



Lovely kumari said...

:-)


आज कि बात भी लिख ही देता हूं.. आज आठ साल हो गये.. :)

आज कल कुछ भी लिखने का मन नहीं कर रहा है इसलिये अंट-संट पोस्ट कर रहा हूं.. कई पोस्ट आधी-अधूरी पड़ी हुई है, तो कुछ पोस्ट तो अब आधे के बाद अपनी सार्थकता भी खो चुकी है.. मैं अभी तक टंकी पर नहीं चढ़ा हूं और ना ही मेरी ट्यूब खाली हुई है.. बस लिखने का मन नहीं कर रहा है.. :)

Wednesday, September 09, 2009

पिछले एक महिने का लेखा जोखा

कुछ किताबें जो पढ़ी गई -

साहित्य -
1. मुर्दों का टीला (हिंदी)
2. वोल्गा से गंगा (हिंदी)
3. कतेक डारीपर (मैथिली)
4. मेघदूतम (मैथिली)
5. चार्वाक दर्शन (हिंदी)

तकनीक -
1. ProvideX Language Reference
2. Work Order in ERP System.
3. Job Cost in ERP System.
4. Software Engineering - Roger S. Pressman (अभी भी पढ़ी जा रही है)

जिसे पढ़ना है -
1. Some good books on Advance SQL.
2. Bill of Material in ERP System.
3. MAS 90 and MAS 200 ERP. Level 4 Programming Standards.

Friday, September 04, 2009

रात ख्वाब की कुछ कतरनें

पिछले कुछ दिनों से भैया से बात नहीं हुई है.. अधिकांशतः भाभी से ही बात करके फोन रख देता हूं.. कल रात सपने में भैया को देखा.. क्या देखा यह कुछ ठीक से याद नहीं है, मगर उसमें उन बचपन के दिनों की झलक थी जो कहीं मन के सूदूर कोने में जड़ जमाये बैठी है.. सुबह नींद सात बजे ही खुल गई, जबकी मैं अमूमन नौ बजे बिस्तर छोड़ता हूं.. मैंने आज भी बिस्तर नौ बजे ही छोड़ा मगर जब तक लेटा रहा तब तक भैया के बारे में ही सोचता रहा.. कुछ बचपन की बातें तो कुछ किसोरावस्था की यादें..

एक-एक करके कई सीन नजर के सामने से यूं गुजर रहे थे जैसे कोई पैरेलल सिनेमा देख रहा हूं.. अमोल पालेकर वाला.. भकुवाया हुआ सा मन था और मैं अपने सर पर तकिया दबाये उस सिनेमा का नजारा देख रहा था जो मेरे दिल के बहुत पास है..

भैया को लेकर मुझे जो सबसे पुरानी याद है वो सीतामढ़ी की है.. मैं शायद दो-तीन साल से ज्यादा का नहीं रहा होऊंगा और भैया चार-पांच साल के.. भैया उस दिन स्कूल नहीं जाने की जिद में थे और मम्मी उन्हें घर के बाहर वाली चौकी पर बिठा कर अंदर से किवाड़ बंद करके अपना काम करने चली गई थी.. भैया बाहर बहुत देर तक रोते रहे फिर चुप होने के बाद मुझे खिड़की से झांककर किवाड़ खोलने को बोल रहे थे.. मैंने कोशिश की मगर खोल नहीं पाया था.. फिर क्या हुआ, मुझे याद नहीं.. भैया के स्कूल का नाम "आदर्श ज्ञान केन्द्र" था..



भैया की तस्वीर

कुछ यादें जो कभी भी नहीं भूल सकता हूं.. शायद सन् 1988 या 1989 के जाड़े की रातों में रजाई के अंदर घुस कर भूत-भूत खेलना.. हमारा कमरा, बिस्तर और यहां तक की रजाई भी एक ही हुआ करती थी.. सोने के समय जब अंधेरा हो जाया करता था तब हम दोनों में से कोई अचानक बोलता "भूत आया.." और दोनों रजाई के अंदर घुस जाते.. मिनट भर अंदर रहने के बाद कोई एक बाहर झांक कर देखता और बोलता कि भूत चला गया, और दूसरा भी उसके बातों पर भरोसा करके बाहर निकल आता.. फिर थोड़ी देर बाद कोई बोलता भूत आया, और यह तब तक चलता रहता जब तक हम सो ना जायें.. :)

जाने ऐसी कितनी ही आधी-अधूरी यादें आ रही थी.. जैसे भैया को कैरम बोर्ड में लगातार दो-तीन दिनों तक हराना जिसे मैं आज भी किसी उपलब्धि से कम नहीं मानता हूं.. कारण, भैया मेरे अलवा शायद ही किसी और से कैरम में हारे हों.. कभी-कभी मुझे लगता था कि उन दिनों भैया मेरे साथ कैरम खेलने से दरते भी थे.. अब कितना सच है इसमें ये तो भैया ही बतायेंगे.. उनके साथ बैडमिंटन में हर बार हारना फिर भी अगले मैच के लिये भैया से जिद करना..

यूं तो भैया मुझसे दो साल बड़े हैं मगर बचपन से ही मैं कुछ लम्बा होने के कारण हम दोनों भाई की लम्बाई लगभग बराबर ही रहा करती थी.. हम दोनों भाई आपस में खूब मार-पीट भी करते थे.. मगर मुझे वैसी चीजें भी याद है कि जब कभी भैया के साथ कहीं बाहर जाता था तब मन में हौशला होता था कि भैया मेरे साथ हैं तो डरना क्या, भैया सभी को देख लेंगे.. एक दो ऐसी घटना भी याद है जब भैया ने मेरे लिये दूसरों से मारपीट भी कीये थे और दूसरों से पिट कर भी आये थे.. जैसे स्कूल बस में दसवीं कक्षा के एक लड़के के साथ(भैया उस समय आठवीं में थे)..

मैं उन दिनों को भी याद करता हूं जब मैं पढ़ने में बिलकुल फिसड्डी था और लगभग हर परिक्षा में एक-एक करके असफल होता जा रहा था.. उस समय कई बार मुझे यह अहसास हुआ था कि पापा-मम्मी से ज्यादा इस बात कि चिंता भैया को होती थी..

आठ अगस्त को जब भैया और पापा मुझे छोड़ने के लिये स्टेशन आये थे तब मैंने भैया को कहा, "जब कभी आपके बारे में सोचता हूं तो मुझे बस दो ही बातें याद आती हैं.. पहली बात, कैसे हम दोनों आपस में मारपीट करते थे.. दूसरी बात, कैसे आप मेरे लिये दूसरों से मारपीट करते थे.."

Wednesday, September 02, 2009

ओनम के अवसर पर मेरे ऑफिस में फूलों से बनी कुछ रंगोली

ओनम के अवसर पर मेरे ऑफिस में 31 अगस्त को फूलों से बने रंगोली की प्रतियोगिता रखी गई थी.. उसमें जितने रंगोली बनाये गये थे उन सभी की तस्वीर मैंने अपने मोबाईल कैमरा से उतार ली थी.. सबसे नीचे वाली रंगोली को विजेता घोषित किया गया था..