Wednesday, August 29, 2007

स्वप्न की चाह

ये कविता मैंने बहुत पहले लिखी थी और मुझे ये किसी बेकार तुकबंदी से ज्यादा कुछ नहीं लगी थी इसलिये अपने ब्लौग पर इसे नहीं डाला था। वैसे ये मुझे आज भी बहुत ज्यादा पसंद नहीं है फिर भी मैंने सोचा की अगर मैं अपनी अच्छी चीजें यहां डालता हूं तो मुझे अपनी खराब चीजों को भी सबके सामने रखना चाहिये। और इसी सोच ने मुझे इसे पोस्ट करने की प्रेरणा दी।

स्वप्न देखने कि इच्छा,
अब भी मन मे उठती है।
जब भी सपने देखता हूं,
मंजिल दूर नजर आती है।
इस तरह वो दिल को,
कुछ और दुखा जाती है।
सोचता हूँ कि जीवन
बस यूँ ही गुजर नही होती है।
और ये असीम इच्छाऐं,
कभी पूरी नही होती है।
फिर भी सपने देखने की चाह,
कभी खत्म नहीं होती है।
सपनों के इस दौर में,
हर दिन सपनों के बाजीगर मिलते हैं।
और हर दिन सपनों के मृगत्रिश्ना के,
छलावे दिखाई देती है।
अपने वज़ूद की तलाश में,
खुद अपनी लाश उठाये,
भटकता फिर रहा हूं गली-गली,
देखिये ये तलाश कब खत्म होती है।

Thursday, August 23, 2007

भाषा का ज्ञान और भाषा की समझ

मेरी समझ में भाषा का ज्ञान और भाषा की समझ दोनों में बहुत अंतर है। मेरी मातृभाषा हिंदी है जिसे मैं बचपन से बोलता आया हूं और मुझे इस भाषा से बहुत प्रेम भी है। मैं कुछ और भाषा भी समझ और बोल लेता हूं पर मेरी समझ में वो बस हिंदी का एक अनुवाद भर ही है जैसे अंग्रेजी और मैथिली। ऐसे कहने को तो मेरी मातृभाषा मैथिली है पर बचपन से ही मैं हिंदी में ही बोलता आया हूं और इसी कारण से मैं हिंदी को ही अपनी मातृभाषा का संज्ञा देता हूं।

मैं यहां विषय से थोड़ा भटक गया था, मेरी समझ में आप अपनी भावनाओं को उसी भाषा में सही तरह से उजागर कर सकते हैं जिस भाषा कि आपको समझ हो। जिस भाषा का आपको ज्ञान भर है उस भाषा में आप अपनी बात को बस दूसरे तक पहूँचा भर सकते हैं। मेरे कई मित्र ऐसे हैं जो अक्सर मुझसे पूछते हैं की मैं अपना सारा ई-मेल हिंदी में क्यों लिखता हूं, क्योंकि मेरी व्यवसायिक भाषा अंग्रेजी है। उसका उत्तर उन्हें मेरे इस चिट्ठे में मिल जायेगा। ये कुछ और नहीं मेरी अपनी भाषा से प्रेम भर है और बस यही कारण है मैं जो कुछ भी लिखता हूं उसकी लिपी देवनागरी होती है।


मेरे साथ जितने भी मेरे मित्र रहते हैं वे सभी अक्सर मेरी भाषा से आतंकित रहते हैं। कारण ये नहीं कि उन्हें ये भाषा आती नहीं है, वरन् ये कहा जाये की उन्हें भी ये भाषा उतनी ही आती है जितनी कि मुझे तो ज्यादा सही होगा, कारण ये है की आज के इस युग में वो इस तरह की भाषा के आदी नहीं हैं। उनमें से एक (विकास) के बारे में मेरा विचार तो ये है कि उसकी इस भाषा पर मुझसे ज्यादा पकड़ है। खैर, कभी-कभी मैं जानबूझ कर भी इस भाषा के भारी-भरकम शब्दों का प्रयोग भी करता हूं, बस उन्हें परेशान करने के लिये। :)

मैं इसी उम्मीद के साथ इस चिट्ठे को बंद कर रहा हूं की और लोग भी हमारे इस भाषा के

महत्व को समझे और ज्यादा से ज्यादा इस भाषा का प्रयोग करें क्योंकि प्रयोग करने से ही ये महान भाषा अपने शीर्ष पर पहूंच सकता है। प्रयोग से ही कोई भी भाषा महान बनती है। ये सही है की विदेशी भाषा का अच्छा ज्ञान होने से आप कई जगह सफल हो सकते हैं और इसीलिये विदेशी भाषा का ज्ञान भी होना बहुत जरूरी है, पर वो आपको महान नहीं बना सकती है। आपको और आपकी संस्कृति को महान बनाने का कार्य आपकी अपनी भाषा ही कर सकती है।

धन्यवाद

Saturday, August 18, 2007

एक कहानी बचपन की


मेरे पापाजी को पैर दबवाने का बहुत शौक है, खासकर खाना खाने के बाद। ये हम बच्चों कि बचपन से ही ड्युटी रहती थी की खाना खाने के बाद पापाजी का पैर दबाना है। और हर बच्चों की तरह हम भी बचते रहते थे की खाना खाने के बाद पापाजी के सामने नहीं पड़ना है, नहीं तो वो जिसे पहले देखेंगे उसे ही आज की ड्युटी करनी परेगी। लेकिन फिर भी कोई न कोई पकड़ में आ ही जाता था। फिर एक दिन पापाजी ने हम दोनों भाईयों के बीच अपना दोनो पैर बांट दिया, कि ये वाला पैर प्रशान्त दबाएगा और दुसरा वाला छोटू। और हमेशा एक कहानी सुनाया करते थे। यहां इतनी भुमिका बांधने के पीछे का कारण बस वही कहानी सुनाना था। मैं शर्त लगा कर कह सकता हूं कि आपको वो कहानी जरूर मजेदार लगेगी।


गुरूजी का पैर



एक गुरूजी थे, उनके दो चेले थे। ये जमाना गुरूकुल के समय का था जब बच्चे गुरूकुल पढने के लिये जाते थे और शिक्षा पूरी करके ही वापस घर लौटते थे। दोनों चेले अपने गुरूजी को बहुत मानते थे और उनक हर कहा मानते थे। जंगल जाकर लकड़ी काटते थे, गुरूकुल कि सफाई करते थे। गुरूजी का दिया हुआ हर कार्य करते थे और मन लगा कर पढाई भी करते थे। गुरूजी भी उन्हें बहुत मानते थे और तन-मन-धन लगा कर उनको शिक्षा देते थे।

गुरूजी कि एक आदत थी, दोपहर के समय जब सारा काम हो जाता था तो अपने दोनो चेले से पैर दबवाते थे, और वो दोनो भी पूरा दिल लगा कर अपने गुरूजी का पैर दबाते थे। गुरूजी भी मेरे पापाजी की ही तरह अपने दोनो पैरों को अपने चेले में बांट रखे थे। बायां पैर पहले चेले के हिस्से में था तो दायां पैर दूसरे चेले के हिस्से में।

एक दिन की बात है, पहला चेला बीमार पर गया। इतना बीमार की उठ भी नहीं सकता था। उस दिन गुरूजी ने दूसरे चेले को कह, "बेटा आज तो वो पहला वाला बीमार पर गया है, सो आज तुम ही मेरा दोनो पैर दबा दो।" इतना सुनना था की दूसरे चेले को गुस्सा आ गया। उसने सोचा की पहले वाले का पैर मैं क्यों दबाऊँ, और ये सोच कर वो एक बड़ा सा पत्थर उठाया और जब तक गुरूजी उसे रोकते तब-तक गुरूजी के बांये पैर को उस पत्थर से तोड़ दिया।

अब अगले दिन पहला वाला चेला ठीक होकर गुरूजी के पास पहुंचा और देखा की गुरूजी का बायां पैर टूटा हुआ है। वो गुरूजी से पूछ कि ये कैसे हुआ। गुरूजी ने उसे सब कुछ बताया। जब उसने सुना की दूसरे चेले ने उसका वाला गुरूजी का पैर तोड़ डाला है तो गुस्से से आग-बबूला हो गया और बदले की सोचने लगा कि कैसे इसका बदला लूं। फ़िर वो भी एक बड़ा सा पत्थर उठा कर लाया और गुरूजी का दायां पैर भी तोड़ डाला। अब गुरूजी बेचारे उन दोनों को कोसने के अलावा कर भी क्या सकते थे।



ये कहानी सुन कर हम सभी भाई-बहन बहुत खुश होते थे और मन ही मन सोचते थे की कितने बुद्धु चेले थे गुरूजी के। हम तो कभी भी ऐसा नहीं करेंगे।


अब ये तो मुझे पता नहीं की पापाजी क्या सोचकर ये कहानी सुनाते थे। पर आज वही कहानी एक याद बन कर दिल में बस गया है। आज हम सभी भाई बहन बड़े हो चुके हैं और भैया-दीदी की शादी भी हो चुकी है, पर उस समय जो हमलोग भागते फिरते थे की पापाजी का पैर दबाना परेगा, आज वही पैर दबाने को तरस जाते हैं। पता नहीं वो चरण देखने कब नसीब होंगे। आज पापा मम्मी पटना में अकेले हैं और मुझे पता है वहां पापाजी का पैर दबाने वाला भी कोई नहीं है!

Friday, August 17, 2007

कुछ खूबसूरत लम्हे मेरे विद्यार्थी जीवन के

यहाँ पेश है मेरे विद्यार्थी जीवन के कुछ खूबसूरत लम्हों की तस्वीर, जिसे मैं अपने भाग-दौड़ कि जिन्दगी में कहीं पीछे छुटा हुआ पाता हूं। कभी-कभी जी में आता है कि इसे अपने जीवन से फ़िर से मांग लूँ और अगर मांगने से ना मिले तो छीन लूँ।
इस तस्वीर के साथ कुछ खूबसूरत याद जुड़ी हुई है, इस तस्वीर को मेरे दोस्तों ने एक फ़्रेम में सजा कर मुझे दिया था जब मैं College छोड़ कर जा रहा था। बहुत ही यादगार तस्वीर है ये मेरे लिये।

ये तस्वीर नंदी हिल नामक जगह का है जो बैंगलोर से कुछ दूरी पर है।

ये तस्वीर है वेल्लोर के किले कि, जो हमने १४ जनवरी को लिया था। ये तस्वीर मेरे College के पीछे एक पहाड़ी मंदिर की है। यहाँ मेरा College पीछे साफ दिख रहा है।

ये मंदिर के सामने से लिया हुआ है।ये तस्वीर काटपाड़ी स्टेसन पर लिया हुआ है।

ये College में Tech Tower के पास लिया हुआ है।

मेरे अगले चिट्ठे में मेरे दोस्तों का परिचय होगा तब-तक के लिये आपको इंतजार करना होगा। :)

Monday, August 06, 2007

यह कदम्ब का पेड़ / सुभद्राकुमारी चौहान


मैं आज जब इंटरनेट की खिड़की से झांक रहा था तब अनायाश ही ये कविता हाथ लग गयी, जिसे मैं अपने बाल भारती नाम के पुस्तक में पढा था। ठीक से याद तो नहीं है पर शायद कक्षा एक या दो में। खैर जो भी हो, मुझे ये कविता बचपन से ही बहुत पसंद है और यही नहीं मुझे सुभद्राकुमारी चौहान कि लिखी हुई और भी कई कविताऐं पसंद हैं। चलिये मैं यहाँ इनका एक छोटा सा परिचय देते हुये कविता को पोस्ट करता हूं।


इनका जन्म सन १९०४ में ग्राम निहालपुर, इलाहाबाद में हुआ था और निधन सन १९४८ में हुआ। इनकी कुछ चर्चित कृतियों का नाम इस प्रकार है, झांसी की रानी, मेरा नया बचपन, जालियाँवाला बाग में बसंत, साध, यह कदम्ब का पेड़, ठुकरा दो या प्यार करो, कोयल और पानी और धूप। और इनकी कुछ कालजयी कृतियों के नाम हैं : मुकुल और त्रिधारा। (आप इन लिंकों पर चटका दबा कर अपनी मनचाही कविता को पढ सकते हैं।)



चलिये मैं अब अपनी कुछ और पुरानी यादों को ताजा करते हुये आपके सामने ये कविता रखता हूं।


यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।

मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे।।

ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली।

किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली।।

तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता।

उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता।।

वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता।

अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता।।

बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता।

माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता।।

तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे।

ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे।।

तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता।

और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता।।

तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती।

जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं।।

इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे।

यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।।

Saturday, August 04, 2007

पाब्लो नेरूदा


आज बस यूं ही इंटरनेट पर घुमते हुये मुझे पाब्लो नेरूदा से संबंधित कुछ जानकारी मिली जिसने मुझे काफ़ी प्रभावित किया। लिजिये मैं वह सारी चीजें आपके सामने अपनी भाषा में रखता हूं। उनकी लिखी कविता का हिंदी और अंग्रेजी रूपांतरण, उनसे जुड़े विभिन्न तथ्य।


इनका जन्म 12 जुलाई सन 1904 में हुआ था और मृत्यु 23 सितम्बर 1973 हुई थी। पाब्लो नेरूदा स्वभाव से एक कवि थे और उनकी लिखी कविताओं के विभिन्न रंग दुनिया ने देखे हैं। एक ओर उन्होंने उन्मत्त प्रेम की कविताएं लिखी हैं दूसरी तरफ कड़ियल यथार्थ नज़र आता है उनकी कविताओं में । कुछ कविताएं उनकी राजनीतिक विचारधारा की संवाहक नज़र आती हैं । इनकी सबसे प्रसिद्ध कविता का नाम है : TONIGHT I CAN WRITE THE SADDEST LINES.


मैं यहाँ यही कविता लिखने जा रहा हूं जो कि पहले अंग्रेजी में है और फ़िर उसका हिंदी अनुवाद किया हुआ है। जिसे अंग्रेजी में अनुवाद किया है एंडी गारसिया ने और हिंदी अनुवादक का मुझे कुछ पता नहीं चला।


I can write the saddest poem of all tonight.

Write, for instance: "The night is full of stars,
and the stars, blue, shiver in the distance."

The night wind whirls in the sky and sings.

I can write the saddest poem of all tonight.
I loved her, and sometimes she loved me too.

On nights like this, I held her in my arms.
I kissed her so many times under the infinite sky.

She loved me, sometimes I loved her.
How could I not have loved her large, still eyes?

I can write the saddest poem of all tonight.
To think I don't have her. To feel that I've lost her.

To hear the immense night, more immense without her.
And the poem falls to the soul as dew to grass.

What does it matter that my love couldn't keep her.
The night is full of stars and she is not with me.

That's all. Far away, someone sings. Far away.
My soul is lost without her.

As if to bring her near, my eyes search for her.
My heart searches for her and she is not with me.

The same night that whitens the same trees.
We, we who were, we are the same no longer.

I no longer love her, true, but how much I loved her.
My voice searched the wind to touch her ear.

Someone else's. She will be someone else's.
As she once belonged to my kisses.
Her voice, her light body. Her infinite eyes.

I no longer love her, true, but perhaps I love her.
Love is so short and oblivion so long.

Because on nights like this I held her in my arms,
my soul is lost without her.

Although this may be the last pain she causes me,
and this may be the last poem I write for her.

अब हिंदी में :

लिख सकता हूं मैं आज बेहद उदास सतरें
जैसे कि रात चूर-चूर है
कि सिहरते हैं नीले सितारे दूर कहीं
और रात हवा की बंजारन गाती है आसमानों में

लिख सकता हूं मैं आज रात बेहद उदास सतरें
चाहा था मैंने उसे और कभी उसने मुझको
ऐसी ही और रातों में थामा था उसे बांहों में
चूमा था बार बार उसे बेक़रां आसमां तले
आज की रात लिख सकता हूं बेहद उदास सतरें

ये ख्याल कि नहीं है वो मेरी
ये अहसास कि खो दिया है उसे मैंने
ये सूनी लंबी रात
........और सूनी और लंबी उसके बगैर
और शबनम की तरह नज़्म गिरे
रूह पे क़तरा-क़तरा
फ़र्क़ क्‍या पड़ता है जो उसे बांध ना सकी चाहत मेरी
ज़र्रा-ज़र्रा बिखर गई है रात
और नहीं है वो मेरे आसपास
फिर वही रात, वही बर्फ़ से नहाए दरख़्त
बदला है गर कोई तो बस ‘उस वक्त के हम’
यक़ीनन अब नहीं, पर किसी वक्‍त चाहा था उसे शिद्दत से
मेरी आवाज़ ने तलाशी ली थी, हवा जो ले जाए उस तक मेरी सदा
और किसी और की होगी वह
उसकी आवाज़ उसका नूरानी बदन, उसकी वो झील सी गहरी आंखें,
तय है कि अब चाहत नहीं, फिर भी शुबहा है कहीं
कितनी मुख़्तसर है मुहब्बत
भुलाना कितना तवील
आखिरी दर्द है ये जो उसने मुझको दिया
और उसकी ख़ातिर लिखी
ये आखिरी सतरें हैं मेरी ।