Tuesday, July 03, 2012

यह तोता आज भी पिंजड़े में बंद छटपटा रहा है


बचपन में एक तोता हुआ करता था. यूँ तो कई तोते हमने एक-एक करके पाले, और एक-एक करके सभी भाग गए. वह तोता भी जिसके बारे में लिख रहा हूँ. मगर यह तोता हमारे यहाँ सबसे अधिक समय तक रहा, तक़रीबन 8-9 साल. पापा के कई मातहत और हम बच्चे भी उसे कुछ बोलना सिखा-सिखा कर थक गए, मगर उसे ना कुछ सीखना था, और ना ही सीखा! 

शुरुवाती दिनों में वह पिंजड़ा तोड़ने का अथक प्रयास करता था. अपनी चोंच से जितनी कोशिश कर सकता था, वह करता था. लहुलुहान होने तक! खाने को छूता तक नहीं था. "कहीं भली है कटुक निबोरी कनक-कटोरी की मैदा से" वाली कविता शायद ऐसे ही दृश्य देख कर लिखी गई हो! फिर धीरे-धीरे उसने प्रयास करना छोड़ दिया.

शायद उसे समझ आ गया हो कि वह उसे तोड़ नहीं सकता है, मगर उससे अधिक संभव यह है की वह धीरे-धीरे उसे ही नियति समझ लिया हो! इतने विश्वास के साथ मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि बाद के दिनों में, तीन-चार साल बाद, जब कभी गलती से पिंजड़ा खुला भी रह जाता था तो वह बजाय दरवाजे से बाहर निकलने के बजाये डर कर और अंदर घुस जाता था. 

पहले भैया से, और बाद में मुझसे उसे बहुत लगाव हो गया था. चाहे कितने भी गुस्से में हो, मगर कभी हमें काटता नहीं था. हम ही उसे खाना देते थे, उसके लिए हम भले इंसान थे. बहुत नासमझ था वो बेचारा. इतनी समझने की शक्ति नहीं थी उसमें की हम उसका भला चाहने वाले होते तो यूँ कैद में नहीं रखते! हम तो उसके लिए ऐसे थे जैसे, कैद में रखो और खूब भला चाहो!

फिर एक दिन वह उड़ गया! तब तक हम दोनों ही रोजी की तलाश में घर छोड़ चुके थे... मगर, मैं अभी तक इस पिंजड़े में बंद छटपटा रहा हूँ....