Tuesday, June 26, 2012

होने अथवा ना होने के बीच का एक सिनेमा


कुछ चीजें अच्छी-बुरी, सच-झूठ के परे होती है. वे या तो होनी चाहिए होती हैं अथवा नहीं होनी चाहिए होती हैं. गैंग्स ऑफ वासेपुर भी इसी कैटेगरी में आता है.. हमारे उन भारतीय दर्शकों को, जो विदेशी सिनेमा देख कर आहें भरते हैं कि ऐसा कुछ यहाँ क्यों नहीं बनता, संतुष्टि जरूर मिलेगी इसे देखकर. और वे आगे उम्मीदें भी पाल सकते हैं की आगे भी ऐसे सिनेमा बनते रहेंगे..

कहानी तेजी से बढती है, ठिठककर रूकती है, फिर बढती है, फिर रूकती है..जैसे कि जिंदगी!! जिंदगी की ही तो महागाथा है यह. 

मैं कोई बहुत बड़ा सिनेमा का ज्ञानी नहीं हूँ, मगर फिर भी इतना समझ में तो जरूर आया कि सिनेमा के हर छात्र को यह जरूर देखना चाहिए. इसके अभिनेता-अभिनेत्रियों से अभिनय सिखने के लिए, कैमरामैन से कैमरे कि कला सिखने के लिए, निर्देशक से निर्देशन की बारीकियां सिखने के लिए..

हाथ के बुने हुए हाफ स्वेटर पहन कर पहलवान दोनों हाथो में मुर्गा टांग कर गली से जाते हुए दिखाना, या फिर मीट की नली वाली हड्डी सूंss कि आवाज के साथ चूसना, या फिर गोल गले के लोटे से स्नान करते हुए दिखाना, या फिर आइसक्रीम के लिए बच्चों कि शैतानी, या फिर सरदार खान का गिरिडीह के बदले गिरडी..गिरडी..गिरडी..गिरडी की आवाज लगा कर सवारी बटोरना. रात का खाना चीनी मिट्टी के प्लेट में परोसना क्योंकि मुसलमान घर आया है.. जाने कितनी ही हत्या सरदार खान कर चुका हो मगर जवान बेटे को लगी छर्रे से लगभग पागल सा हो उठना. फ्रिज के आने के बाद सब बच्चों का उचक-उचक कर उसे देखना और गृहणी का यह देखना की उसमें कोई खाली बर्तन तो नहीं रखा हुआ है! 

इसे देखने से पहले मैं कोई भी रिव्यू नहीं पढ़ रहा था. किसी तरह का पूर्वाग्रह लेकर नहीं देखना चाहता था. और मुझे सबसे अधिक अचंभित "जियs हे बिहार के लाला" गीत ने किया. जिस गीत को मैं फ़िल्म के शुरुवात में देखने कि उम्मीद कर रहा था उसे जिंदगी कि खुशी में नहीं, मृत्यु के जश्न के तौर पर लाया गया!

हो सकता है कि अनुराग जी ने कई लोगों को निराश किया होगा इस सिनेमा में गाली-गोली दिखा कर, मगर हर चीज को इतनी बारीकी से उन्होंने फिल्माया है जिसको कोई भी सिने छात्र देखना-सीखना चाहेगा. थैंक्स अनुराग जी को, हमें ऐसी सिनेमा देने के लिए!!

मैं अपनी पसंद के पिछले तीन देखे हुए सिनेमा कि बात करूँ तो मुझे वाकई आश्चर्य हो रहा है कि हम कैसे समाज में जी रहे हैं? मैं यह आकलन करने में विफल हो रहा हूँ की हमारा समाज बेशर्म है या असंवेदनशील? उन तीन सिनेमा का नाम है: १. पान सिंह तोमर, २. शंघाई एवं ३. गैंग्स ऑफ वासेपुर. मेरे मन में ऐसे प्रश्न इसलिए आये क्योंकि जिन चीजों पर खुद से घिन आनी चाहिए उन चीजों पर सिनेमा हाल में हंसी के फुहारें छूट रही थी!

अंत में अगर तिग्मांशु धुलिया की तारीफ़ नहीं करूँ तो ये नाइंसाफी होगी. जहाँ मनोज वाजपेयी अपने किरदार को मेहनत से निभाते दिखे हैं वहीं तिग्मांशु धुलिया बिना किसी एक्स्ट्रा एफर्ट के अपने किरदार को जिए चले गए हैं!!

चलते-चलते इस सिनेमा का एक डायलॉग पढते जाइए: 
पुलिस एक अपराधी के बच्चे से पूछती है, जो अपने बाप के लिए खाने का टिफिन लेकर आया है - डिब्बे में क्या है?
लड़का - अब डिब्बा खोल के औंगली से छौंका लगाईयेगा का?

नोट - यह संभव है कि बिहारी परिवेश को फिल्माने कि वजह से मुझे यह सिनेमा नॉस्टैल्जिक कर रही हो..

Wednesday, June 06, 2012

जन्म और मृत्यु

मेरे जन्म को लेकर 
अफवाहें अपनी चरम पर हैं
मगर मेरा जन्म 
ठीक उसी दिन हुआ था
जब मिला था 
तुमसे पहली दफे
अब मौत का दिन भी मुक़र्रर हुआ है
ये वही दिन होगा
जब यकीन होगा
अब ना होगी मुलाक़ात तुमसे
फिर कभी!!!