Tuesday, March 27, 2012

इकबालिया बयान ! - भाग एक

बयान एक -
मेरा नाम अदिति है. अब वो क्या है ना कि, जब भी मेरे प्रछांत मामू मेरे यहाँ आते हैं दिल्ली में तो ज्यादा टाईम मेरे साथ नहीं रहते हैं. बहुत थोड़े समय के लिए ही आते हैं. और उनको कितना भी समझाते हैं कि बालकनी के नीचे वाले पार्क में कोई डौगी नहीं है, लेकिन हमेशा वो डर कर मेरे साथ नीचे पार्क में नहीं जाते हैं. :(

अभी पता है क्या हुआ था? जनवरी में जब वो आये थे ना, तब वो रात में आये जब मैं सोयी हुई थी. मुझे ना..पापा-मम्मी ने बताया भी नहीं था की मामू आ रहे हैं, इसलिए मैं सो गई थी. सुबह-सुबह जब मैं जगी ना...तब मैंने जब उनका लाल वाला बैग देखा. मुझे तब सच्ची में लगा था कि मैं सपना देख रही हूँ. मैं दौड़ कर वापस अपने रूम में भाग गई और मम्मा को बोली कि "मम्मा, मैं सपना देख रही हूँ, आज मेरा एग्जाम है सो मुझे जल्दी से जगा देना." फिर ना...मम्मी बोली की नहीं बेटा, मामू सच में आये हैं. मैं दूसरे कमरे में देखी तो मामू सच में थे. सोये हुए! मुझे ना इतनी खुशी हुई, इतनी खुशी हुई...कि मत पूछो! लेकिन मैं स्कूल से आती उससे पहले ही मामू चले गए. :(

पता है, जब प्रछांत मामू अक्टूबर में आये थे तब दो दिन रहे. एक दिन ना, मैं उनको तंग करने के लिए उनसे एक सवाल पूछी, जो मैं सबसे पूछती हूँ. मैंने उनसे बोला, "मामू, मैं आपसे एक हार्ड वाला Question पूछूं?"
मामू ने बोला, "हाँ पूछो!"
तब मैंने उनसे पूछा, "जैसे कैट की बेबी को किटेन कहते हैं, वैसे ही क्रोकोडाईल की बेबी को क्या कहते हैं?"
अब मुझे तो पता था कि मामू को नहीं मालूम है, सो शरारत से मुस्कुराने लगी. मामू थोड़ी देर के लिए सोचने लगे. फिर वो मुझसे पूछते हैं की, "तुम्हारा नाम अदिति किसने रखा?"
मैंने कहा, "पापा-मम्मा ने!"
मामू बोले, "तो क्रोकोडाईल की बेबी को क्या कहते हैं ये क्रोकोडाईल से जाकर पूछो ना कि उसने अपनी बेबी का क्या नाम रखा है? और उसे क्या कहते हैं?"

मैं तो परेशान ही हो गई. मैं सोचने लगी की मैं क्रोकोडाईल से पूछने जाउंगी तो वो तो मुझे खा ही जाएगा!! :(

पता है, मैं इस बार क्लास में सबसे अच्छा नंबर लायी. मुझे नहीं मालूम की मैं टॉप कि या नहीं. लेकिन सबसे ज्यादा A+ मेरे ही आये हैं. प्रछांत मामू मुझे प्रॉमिस किये हैं की जब भी वो दिल्ली आयेंगे तो मुझे एक अच्छा वाला खिलौना ला देंगे.

अब ना बहुत रात हो गई है, और मुझे नींद आ रही है. मैं सोने जाती हूँ. Bye!!!



Sunday, March 25, 2012

मुट्ठी भर हवा

मुझे भरोसा था, तब भी और अब भी, कि मैं हवा को हाथों से पकड़ सकता हूँ. कई सालों से मैंने कोई कोशिश नहीं की, मगर फिर भी बचपन के उस भरोसे को नकारना नामुमकिन है. बचपन का हर भरोसा आज भी उतना ही पुख्ता लगता है, जिसे नकारने की बात सोचना भी गुनाह से कम नहीं, और उस भरोसे को साबित करने की चेष्टा भी किसी मूर्खता से कम नहीं. किसी यूनिवर्सल ट्रुथ की तरह, जो बिना सिद्ध किये ही जैसा है वैसा ही रहेगा, टाइप.

बचपन के भरोसे का भी कोई भरोसा नहीं, हर किसी बात पर यकीन हो जाता है. घर के पास वाले उस नदी में एक लंबे दांतों वाला राक्षस रहता है, किसी ने कह दिया और यकीन हो चला, ना कोई सवाल ना कुछ और, सीधा विश्वास. दादी-नानी कि कहानियों में रहने वाले हर एक पात्र पर भरोसा, चिड़िया, बाघ, शेर-चीतों से लेकर राजा-रानी और परियों पर भी. रात के अंधेरों में आने वाले भूत पर भी जो नहीं सोने वालों को खा जाता था. मयूर पंख को चूना या चौक खिलाने से वो बड़ा होता है.

मैं मुट्ठी बंद करता था, और महसूस करता था, हवा की छटपटाहट. मानो हवा का दम घुट रहा हो, वह बस किसी भी हाल में निकल भागने को बेक़रार हो, किसी उम्र कैद की सजा पाए कैदी के मानिंद. मगर बच्चे कि मुट्ठी में बंद सपनों की माफिक उस बच्चे से पीछा छुडा पाना बेहद कठिन होता. बच्चे के सपनों का क्या! वो तो हर पल बदलता है. कुछ ऐसी ही सोच में हवा भी रहती हो शायद. मगर बच्चे का क्या, गर गलती से मुट्ठी खुल भी जाती तुरत वह दूसरी मुट्ठी में हवा धर लेता.

मुझे पता है कि मैं आज भी अपनी मुट्ठी बंद करूँगा तो हवा वैसे ही छटपटाएगी, बेआवाज अनुनय-विनय भी करेगी जैसे बरसों पहले करती थी. मगर फिर भी मैं मुट्ठी में हवा बंद नहीं करता. डरता हूँ, कहीं वैसा अब नहीं हुआ तो? कुछ भरोसों को शायद नहीं ही टूटना चाहिए, भले ही वह भरोसा महज एक झूठ ही हो! भरोसा भी आखिर भरोसा होता है, उसमे शक की कोई गुंजाईश नहीं होती है!!!!!

Saturday, March 03, 2012

भोरे चार बजे की चाय अब भी उधार है तुमपे दोस्त!!

दिल्ली में पहली मेट्रो यात्रा सन 2004 में किया था, सिर्फ शौकिया तौर पर.. कहीं जाना नहीं था, बस यूँ ही की दिल्ली छोड़ने से पहले मेट्रो घूम लूं.. नयी नयी मेट्रो बनी थी तब.. उसके बाद 2009 मार्च में मुन्ना भैया के घर जाते हुए, वैसे आज मुझसे उस जगह का नाम पूछेंगे तो मुझे याद नहीं, मगर दिल्ली से बाहर ही था..फिर 2011 फरवरी में फिर से काफी मेट्रो यात्रा करने का मौका मिला.. खास करके पंकज के घर जाते हुए, फिर दीदी के घर से आराधना के घर जाते हुए..

घर से निकलते समय पहले ही पंकज ने बता दिया था की दिल्ली उतर कर मेट्रो लेकर हुडा सिटी सेंटर आ जाना.. मेट्रो के रूट का अता पता ना होते भी पता लगाते हुए मेट्रो में चढ़ ही गए और वहाँ से मालिक को फोन किये.. मालिक सोये हुए थे.. मुझे बोले कि मैं आ रहा हूँ, जब मैं वहाँ स्टेशन पर उतरा तो पता चला की मालिक मुझे इंस्ट्रक्शन देकर फिर सो गए थे..खैर सेक्टर 41(शायद) मार्केट बुलाया गया और मैं वहाँ पहुँच गया.. पहले कभी मिला नहीं था इस लड़के से, फिर भी पहचानने में कोई गलती नहीं हुई.. उलटे इसी ने मुझे पहले देखा, नहीं पहचाना होता तो फिर मैं लफड़े में पड़ जाता ;).. फिर वहाँ से घर.. घर का बनावट बिलकुल मस्त.. बोले तो एकदम रापचिक टाइप.. ग्राउंड फ्लोर पर एक हॉल और अंदरग्राउंड दो कमरे बने हुए, वो भी इतने अच्छे से दिख रहा था की कोई चोरी-चपाटी करके छुपने के लिए प्रयोग ना कर सके.. हाँ मगर चोरों को भुलावे में रखने के लिए बेहद उम्दा.. अगर अंदर घर में बत्ती ना जल रही हो तो पक्के से चोर ही इनपर केस कर दे और उसका मसौदा कुछ ऐसा तैयार होगा "इनके घर में चोरी करने जैसे ही घुसा तो अंदर घर में घुप्प अँधेरा था.. और बत्ती जलाने के लिए स्विच ढूँढने के लिए दीवाल पर हाथ से टटोलते हुए जैसे ही दो कदम आगे बढ़ा वैसे ही मानो मेरे पैरों टेल जमीन ही खिसक गई.. और मैं नीचे जाने वाली सीढियों से लुढकते हुए सीधा नीचे जा गिरा.. अब आप ही कहिये जज साहब, ये कोई तरीका है? ऐसा घर इन्होंने किराए पर क्यों लिया? मेरे टूटे हाथ-पैर के साथ मानसिक तकलीफ का हर्जाना भी इन्हें देना होगा."

खैर.. घर तो मैं पहुँच ही गया था.. पापा ने जो तिलकुट दिया था वह मैंने इसके हाथों में थमाया.. साला, बहुत मन कर रहा था की इसको देने से पहले दो-चार तिलकुट खा ही लें, क्या पता बाद में देखने को भी नसीब ना हो!! मगर जब दे ही दिया तो फिर क्या!! ;)

अब आते हैं इनके साथ रहने वाले मित्रों पर.. एक रवि और एक देवांशु.. रवि तो बड़े ही सीधे टाईप के लगे.. नहीं-नहीं, गाली नहीं दे रहा हूँ.. सच्ची में सीधे लगे.. :) देवांशु के बारे में अभी नहीं, वे बाद में पिक्चर में आयेंगे.. जब मैं घर में घुसा तब इनके कुछ और मित्र नीचे वाले कमरों में सोये हुए थे.. मुझसे जैसे ही परिचय कराया गया उसके पाँच मिनट के भीतर सब निकल भागे, बाद में पता चला की मुझसे डर कर नहीं भागे, दरअसल उनमें से किसी को दफ्तर और किसी को किसी इंटरव्यू में जाना था.. उनके जाने के बाद गहरी नींद में सोये रवि को पंकज ने मेरे मना करने के बावजूद जगाया, पता नहीं मन ही मन में कितनी गालियाँ मिली होगी मुझे, और पंकज खुद सो गया.. इसके पीछे एक छोटी कहानी है(लंबी नहीं), जो मैं नहीं बताने वाला हूँ.. ;)

फ्रेश होकर और मुंह हाथ धोकर नाश्ते के जुगाड़ बारे में सोचा गया और तब पता चला की रात में ही लगभग बारह अंडे ये सब मिलकर कब खा गए यह इन्हें भी नहीं पता.. खैर हम निकले नाश्ता करने.. घर के पास ही वाले मार्केट में एक आलू-पराठे वाले के यहाँ के लिए.. बीच में देवांशु के बारे में बताया गया.. कि कैसे नेट पर ही उनसे पंकज की मुलाक़ात हुई थी, और संयोग से दोनों एक ही शहर के, लखीमपुर के.. बाद में अच्छे दोस्त भी हो लिए, और अभी कहीं इंटरव्यू के लिए निकले हुए हैं.. रास्ते में ही उनसे मुलाक़ात हुई, हमने हाथ भी मिलाया.. उन्होंने "चाय" के लिए भी पूछा और हमने मना कर दिया.. यहाँ गौर किया जाए, "चाय" बहुत महत्वपूर्ण शब्द है.. इसकी महत्ता से ही यह पोस्ट भी है.. वापस लौटने पर देखा की रवि व्यायाम में लगे हुए हैं और देवांशु बड़े गौर से रजाई लपेट कर बिस्तर पर पालथी मार कर बैठे हुए हैं और लगातार उन्हें देखे जा रहे हैं.. हम दोनों(पंकज और मैं) ही सोफे पर बैठ कर कभी इनको देख रहे हैं तो कभी उनको.. थोड़ी देर बाद पंकज से रहा नहीं गया, उसने पूछ ही लिया कि क्या देख रहे हो? देवांशु बाबू का जवाब था "सोचते हैं कि हम भी एक्सरसाइज शुरू कर दें".. कहीं से एक जुमला उछला "एक्सरसाइज करने के लिए आदमी रख लो भाई"... और लगे हाथों भाईसाब(देवांशु) ने फिर से पूछ लिया "चाय पियोगे?" मैंने ना कहा, बाकि दोनों ने हाँ.. देवांशु ने मुझे थोडा दवाब देते हुए कहा कि पी लो यार, और तब उन्हें पता चला कि मैं चाय नहीं पीता हूँ.. फिर देवांशु बाबू उन दोनों की ओर मुखातिब होते हुए बोले "ठीक है तीन कप ही बनाना".. ;) अब समझ में आया की वे तभी से, सभी से चाय के लिए क्यों पूछ रहे थे?

खैर चाय भी बनी, उन दोनों ने पीया भी.. पंकज की बारी के समय जब चाय नीचे गिर गई तब उसे पता चला की कप का हैंडल टूटा हुआ है.. और उसी समय पता चला की देवांशु को पहले से यह बात पता थी, और उसने कप की खूबसूरती खत्म ना हो इसलिए उसे इस तरह रख छोड़ा था कि उसका टूटा हैंडल पता भी ना चले.. स्टेटस का सवाल है आखिर, नहीं तो लोग कहेंगे की IT वालों के घर में चाय के कप तक टूटे-फूटे होते हैं. खैर अपन को क्या? अपन चाय पीते थोड़े ही ना हैं! है की नहीं? :)

शाम ढलते ना ढलते फिर से देवांशु "चाय" के लिए सबसे पूछने लगा.. इसी बीच पंकज का एक और मित्र आ गया, पवन.. देखते ही देखते कहीं चला जाए कह कर प्लान भी बन गया एम्बिएंस मॉल घूमने का.. वहाँ कुछ तफरी करके और चंद किताबें खरीद कर रात नौ बजे वापस लौटते हुए घर के पास ही खाना कर पैदल ही घर का रास्ता नापने का प्लान भी बना.. खाना भी खा लिए और वापस भी चले, मगर रात गए सभी कन्फ्यूज, की सही रास्ता कौन सा है? कोई बुजुर्ग भी आस-पास नहीं जो हम भटके हुए नौजवानों को सही रास्ता बताये!!

खैर, एक नौजवान ही मिल गया जिससे हमने रास्ते के बारे में पूछा.. उसने एक तरफ दिखाते हुए बोला की यह रास्ता आपके घर को जाता है.. फिर हमारा सवाल था, कितनी देर में हम पहुंचेंगे? अब वो भाई साहब को लगा कि इन्हें विस्तार से समझाया जाए, सो पहले धीरे-धीरे चल कर बोले "ऐसे जाओगे तो आधा घंटा लगेगा" फिर जल्दी-जल्दी चल कर दिखा कर बोले "ऐसे जाओगे तो दस मिनट में पहुँच जाओगे".. पहले तो हम हक्के-बक्के की भाईसाब कर क्या रहे हैं? फिर ठहाके लगाते हुए उसके बताये रास्ते पर चल लिए..

भाईसाब का आधा घंटा होने को था, मगर घर का तो छोडिये जनाब, घर के पास की गली का कुत्ता भी नजर नहीं आ रहा था.. हमें सब समझ में आ गया, इस नौजवान पीढ़ी से रास्ता दिखाने की उम्मीद करना ही गलत है.. सो अबकी ऑटो लेकर वापस लौटे तो वह वापस उसी रास्ते पर ले आया जहाँ से अभी-अभी गुजरे थे.. हम भी मुंह छिपा कर वहाँ से निकल लिए की कहीं कोई देख कर बेवकूफ ना समझ ले..

अब तक रात हो चुकी थी, और सुबह-सुबह दीदी के यहाँ भिवाडी जाने के लिए भी निकलना था, सो जल्दी सोना था, और बाक़ी सभी को सलीमा देखना था.. तो वे सभी गए लैपटॉप पर सलीमा देखने, और हम चले निन्नी करने.. उन लोगों को सिनेमा देखते-देखते चार बज गया, जिस वक्त मैं खर्राटे मार कर सो रहा था, ठीक उसी वक्त फिर से देवांशु को फिर से चाय का सरूर चढा.. उसने फिर सभी से पूछा की "चाय पियोगे?" सभी ने मना कर दिया. अब उसका कहना था की PD से भी पूछ लेता हूँ, शायद हाँ कह दे और बना भी लाये.. सबने उसे मना कर दिया कि अभी उसे मत उठाओ.. और मैंने भोरे चार बजे की चाय मिस कर दी..

तो दोस्त, तुम्हारी वो सुबह चार बजे की चाय अब भी उधार है!! ;-)