Saturday, January 15, 2011

कुछ किताबों के बहाने - नीरज रोहिल्ला द्वारा


इस लेख को पोस्ट करने के कारणों को विस्तार से जानने के इच्छुक लोगों के लिए पहले यह, फिर लेख - नीरज रोहिल्ला ने यह "कमेंट" मुझे और विनीत को इकट्ठे लिख कर मेल किया था.. फेसबुक से बात चली थी, विनीत ने कुछ बात कही और बाद में मैंने भी कुछ जोड़ दिया.. अब ऐसे में नीरज रोहिल्ला ने जो मेल किया था उसे इस श्रृंखला की तीसरी कड़ी ही माने.. यह ईमेल मुख्यतः दो भागों में बंटा हुआ है, पहला भाग विनीत को संबोधित करते हुए और दूसरा मुझे संबोधित करते हुए..



पहला भाग विनीत के लिए :
हमारे घर में साहित्यिक किताबें नाम की भी नहीं थीं। धार्मिक किताबें अवश्य थी ढेर सारी गीताप्रेस वाली, सत्यार्थ प्रकाश भी बचपन में ही पढा था तब पता चला कि हमारे नानाजी आर्यसमाजी थे । पिताजी की अंग्रेजी वाली कामर्स की भी खूब किताबें थीं जो हम हिन्दी मीडियम वालों के लिये विस्मय का विषय थीं। साहित्य का पहला चस्का हिन्दी (विषय) की किताबों से लगा, उसमें भी कविता ने कभी आकर्षित नहीं किया लेकिन गद्य ने सदैव अपनी ओर खींचा। कविता में अपनी समझ "उठो लाल अब आंखे खोलो", "कुटिल कंकडों की कर्कश रज", "सिंहासन हिल उठे" से आगे न बढ सकी।

उसके बाद भला हो उत्तर प्रदेश शिक्षा परिषद की हिन्दी/अंग्रेजी पुस्तकों का कि साहित्य का मजा तब आना शुरू हुया । बडे बडे नाम भी पहली बार ९-१२वीं के दौरान ही सुने, तब ही पता चला कि रामवृक्ष बेनीपुरी, यशपाल, सोहनलाल द्विवेदी, रामकृष्ण शुक्ल, भी कोई चीज हैं । इस समय थोडा विषयांतर जरूरी है जो विनीत की पोस्ट से सम्बन्धित है।

घर में हमारी बडी बहन हमसे २ वर्ष बडी थी तो उनकी पुस्तकें हम तक आती थीं। वो बडी थीं तो उनसे अपेक्षा थी कि किताबें पर कलम से नीला/पीला/लाल कुछ न लिखा जाये लेकिन चूंकि हमारी छोटी बहन हमसे पांच साल छोटी थी तो हम पर ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं था। हां, लेकिन फ़िर भी किताबों का ध्यान रखने को लेकर मोटे तौर पर उलाहने मिलते रहते थे। चूंकि गणित में दीदी का हाथ थोडा तंग था तो गणित की किताबों की बडी बहन बहुत दुर्गति कर देती थीं और हमें हर वर्ष गणित की नयी किताब मिलती थी। पिताजी के गणित प्रेम के चलते गणित का कोर्स भी गर्मियों की छुट्टियों में खतम हो जाता था और क्लास के साथ उसका रिवीजन चलता था।

हिन्दी की कहानियां समय से २ वर्ष पूर्व खत्म कर दी जाती थीं क्योंकि किताबें घर पर ही होती थीं। एक और मजेदार किस्सा याद आया। हमारे स्कूल में नकल इत्यादि रोकने के लिये परीक्षा के दौरान छठी के विद्यार्थियों को आठवीं के साथ बैठाकर परीक्षा दिलवायी जाती थी। हमें खूब याद है कि हमने छठीं में अपने आठवीं के सीनियर को हिन्दी/गणित के प्रश्नपत्र के कुछ प्रश्नों के सही उत्तर बताये थे। जय हो हमारे पिताजी और उनके कडक स्वभाव की :)

९-१२वीं में हमारा क्लास को ओपन चैलेन्ज हुआ करता था कि हिन्दी की किताब के गद्य वाले चैप्टर/कहानी की केवल एक लाईन बोल दो और हम कहानी/निबन्ध और उसके लेखक का नाम बता देंगे। चर्चा हमारे हिन्दी के अध्यापक तक पंहुची और जब उनके, "चिल्ला जाडा पड रहा था" समाप्त होने के पहले हमने उत्तर दिया, "स्मृति, लेखक शायद(उस समय पक्का पता था) रामवृक्ष बेनीपुरी", तो उन्होने आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता से हमें चाकलेट देने का वायदा किया था।


दूसरा भाग मेरे लिए :
बी.टेक प्रथम वर्ष में हमारे होस्टल में फ़ोटोकापी का रिवाज था। जो कुछ किताबें होती थीं परीक्षा के समय पर मजबूरीं में उनके चेप्टर फ़ाडकर ६ लोग अगल अलग चैप्टर पढते थे। ऐसे में हमारे दिल्ली के एक दोस्त आदित्य गोयल थे (हैं) से एक बार बात चल रही थी तो उन्होनें बताया कि सेमेस्टर में घरवालों का हम लोग कितना खर्चा करा देते हैं? हमने सोचकर कहा कि फ़ीस/मैस/कैंटीन वगैरह मिलाकर तकरीबन १५-१८ हजार । उन्होने पूछा कि अगर कोर्स की सभी किताबें खरीदो तो कितना खर्चा होगा? हमने कहा कि हद से हद हजार/बारह सौ । बोले बात समझे? हमने कहा, समझ गये । उस दिन के बाद से कभी फ़ोटोकापी के सहारे नहीं रहे और किताबों से पढने की जो आदत लगी वो आज तक नहीं छूटी।

बंगलौर (२००२-०४) के दौरान ५००० माहवार छात्रवृत्ति मिलती थी जो उस समय अधिकतर किताबों पर खर्च हुयी । २००४ में निकलते समय समस्या थी कि किताबों के बडे जखीरे का क्या करें? एक मित्र ने सलाह दी कि एक बडे बाक्स में बन्द करके रेलवे से पार्सल कर देते हैं, पंहुचा तो पंहुचा और नहीं तो भगवान की मर्जी। हमने कहा कि कम से कम २० हजार की किताबें हैं तो बोले रेल पर भरोसा रखो। भला हो रेलवे का १ महीने में ठोकर खाते खाते हमारा बक्सा बंगलौर से आगरा आ गया। वो किताबें अब घर की किसी अलमारी में धूल खा रही हैं। उनमें से चुनिन्दा अपने साथ ह्यूस्टन आयी लेकिन ह्यूस्टन में फ़िर से किताबों का ढेर बढता जा रहा है और पढने की आदत कम होती जा रही है। देखो आगे भविष्य में क्या होता है।

लेकिन अगर भारत की भारत में किताबें भेजनी हो तो बडे बक्से को रेलवे से भेजो और ऊपर लिख देना हम ज्ञानदत्त पांडेजी को जानते हैं ;) हा हा...फ़िर पक्का पंहुच जायेगा...

और भी कुछ है लिखने को लेकिन फ़िर कभी और..

कुछ नीरज के बारे में, यह पुराने ब्लोगरों में से आते हैं मगर अभी शुशुप्तावस्था में हैं, अभी महीनों स कुछ ना लिखते हुए भी ब्लोगों पर नजर जमाये हुए.. :) मैराथन दौड़ दौड़ने के एवं मिथुन दा कि फिल्मों के शौकीनों में से.. :) ब्लॉग जगत के मेरे कुछ बेहद पुराने मित्रों में से एक, बेहद हाजिरजवाब और हंसमुख.. फिलहाल अमेरिका में.. अब इन्हें इनके फिर कभी को आगे बढाने के लिए प्रेरित किया जाए..

11 comments:

  1. मेरे पिताजी पढ़ने के बहुत शौक़ीन थे और हर तरह के विषय पढ़ते थे. इसलिए हमारे घर में बचपन से ही किताबें ही किताबें होती थीं और ढेर सारी पत्रिकाएँ भी. मेरे पिताजी भी रेलवे में थे और उनके एक मित्र की रेलवे पर बुकस्टाल थी. वहाँ से हमलोग बच्चों की कुछ पत्रिकाएँ खरीदते थे और कुछ उधार लेकर पढ़कर लौटा देते थे.पर पता नहीं बाऊ को कॉमिक्स से इतनी चिढ़ क्यों थी. वो घर नहीं लाने देते थे, तो हमलोग छिपकर पढ़ते थे.
    हाँ, विनीत के उलट मेरे घर में एक भी धार्मिक पुस्तक नहीं रहती थी क्योंकि बाऊ गैरधार्मिक थे, बस अम्मा की हनुमान चालीसा थी और एक रामचरित मानस.

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  2. Thanks PD 2 bahut hi behtareen sansmaran padhwa diye tumne.Thanks again.

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  3. बिना संदर्भों में गए और जाने बिना भी प्रस्‍तुति की सहजता रोचक लगी.

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  4. पुस्तक प्रेम की सबकी अपनी कहानी है, नीरज जी की तो पढ़कर रोमांच आ गया। घर में एक पुस्तक भी नहीं छोड़ी थी हमने, भले ही उपन्यास ही क्यों न हो।

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  5. पुस्तकों से सच्चा और अच्छा कोई साथी नहीं...यकीएँ ना हो तो मेरी किताबों की दुनिया वाली श्रृंखला पढ़ें...:-)

    नीरज

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  6. बहुत ही सुन्दर ढग से संसम्रण पढ़वाने के लिए धन्यवाद|

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  7. आप सभी की टिप्पणियों के लिये धन्यवाद ।

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  8. नीरज भाई जैसा पाठक बहुत कम मिलेगा जो किसी भी ब्‍लाग को पढ़ते है फिर उस पर आपनी आलोचना या प्रशंशा करते है।

    उत्तर प्रदेश शिक्षा परिषद को, माध्‍यमिक शिक्षा परिषद इलाहाबाद कहते है :)

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  9. पुस्तक प्रेम भी अनूठा है। क्यों न हम सब अपनी दस प्रिय पुस्तकों की चर्चा करें।

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  10. अफसोस मेरे घर में किताबें मैं ही लाई.उससे पहले कोई नही पढता था.

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