Saturday, August 21, 2010

क्यों पार्टनर, आपकी पोलिटिक्स क्या है?

"Oh! So you are from Lalu's place?"

यह एक ऐसा जुमला है जो बिहार से बाहर निकलने पर जाने कितनी ही बार सुना हूँ.. मानो बिहार में लालू के अलावा और रहता ही ना हो.. वह चाहे कोई भी हो, उसे जैसे ही पता चलता है कि यह बन्दा उत्तर भारत से है तो स्वाभाविक तौर से वह पूछ बैठता है कि कहाँ से हो? उत्तर बिहार के रूप में जैसे ही मिलता है वैसे ही एक कटाक्ष के रूप में सुनने को वही मिलता है.. "Oh! So you are from Lalu's place?"

कम से कम नब्बे फ़ीसदी लोगों का कमेन्ट यही रहता है..

जब मूड ठीक होता है तो बस मुस्कुरा कर सहमति जता कर चल देता हूँ.. जब मूड थोड़ा खराब रहता है तो पलट कर पूछ लेता हूँ "जनाब, यह कहने का आपका मतलब क्या है?" और वह जबदस्ती का कोई तर्क देता है और अंत में कहता है, "Just Kidding buddy" जिसे सुनकर पहले तो मन में गालियाँ देता हूँ कि "अबे, तू मेरे ससुराल वालों में से हो क्या या लंगोटिया यार हो जो बिना परमिट के ही पहली मुलाकात में मजाक करने का अधिकार मिल गया?" फिर उसका कहा अनसुना करके निकल लेता हूँ.. मगर जब मूड बेहद खराब रहता है और इस सवाल से बुरी तरह इरिटेट हो चुका होऊं तो पलट कर मैं कटाक्ष कर देता हूँ "Partner, what is your politics?" अव्वल तो यह सवाल अमूमन उन्हें समझ में ही नहीं आता है, और सामने वाले को अगर यह सवाल समझ में आ गया तो वह इस सवाल से बुरी तरह अकचका जाता है, कि सामने वाला कहना क्या चाहता है? सवाल को नहीं समझने वाले से मैं कुछ कहता नहीं हूँ, समझाना भी नहीं चाहता हूँ.. जिन्हें समझ में आती है उनसे अगला सवाल दाग देता हूँ "Do you want to demoralize me with this question? Or do you want show off that look buddy, I am better than you. Because I am not from Lalu's place, I am from Jaya's or Karunanidhi's place and 'they are very neat and clean'."

अक्सर कुछ कुतर्क सुनने को मिल जाया करते हैं मगर मेरे इस सवाल का अभी तक 'उनसे' संतोषजनक जवाब नहीं मिला है..

माफ़ी चाहूँगा, मगर कुर्ग यात्रा अगले भाग में. :)

Monday, August 16, 2010

दो बजिया बैराग्य - भाग छः

ऐसा लग रहा है जैसे मैं कुछ अधिक ही आत्मकेंद्रित हुआ जा रहा हूँ.. सुबह घर में अकेले.. दिन भर दफ्तर में अकेले.. और शाम में भी अकेले ही.. ऐसा नहीं की किसी मजबूरी के तहत मैं अकेला रह रहा हूँ और ऐसा भी नहीं की संगी-साथी भी ना हों !! बस ये मेरे द्वारा ही चुनी गई स्थिति है.. एक खतरनाक आदत जो अक्सर अवसाद को जन्म देने लगती है.. दफ्तर में भी अक्सर जितना काम होता है उतनी ही बातें भी होती हैं, अब इतने सालों से एक ही जगह काम कर रहा हूँ तो कुछ मित्र भी बना लिए हैं जो बिना काम के भी टोकने चले आते हैं.. ईमानदारी से कहूँ तो अक्सर उनसे जबरदस्ती कि बनाई मुस्कान के साथ ही बात करता हूँ..

पहले ब्लॉग या फेसबुक पर आभासी मित्रों के साथ अच्छा समय गुजर जाता था, धीरे-धीरे उनसे भी वार्तालाप में कमी आ गई है.. कल को यह अचानक से बन्द ही हो जाए तो किसी को कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए.. फेसबुक पर कम से कम अभिषेक तो हमेशा मिल ही जाता है.. पिछले महीने भर से सोच रहा हूँ कि लवली से बात करूँ, मगर नहीं कर पा रहा हूँ.. कई दफे उसका नंबर सेलेक्ट करके कैंसिल कर दे रहा हूँ.. हालत कुछ यहाँ तक पहुँच चुकी है कि कुछ जरूरी जगहों पर फोन करनी है, जिसके बिना काम नहीं चल सकता है.. मगर एक-एक दिन करके टालते हुए अब पन्द्रह दिन होने जा रहे हैं उसके.. उन जरूरी चीजों में सबसे पहला नंबर है 'बैंक'..

कुछ किताबें, बस!! एक खत्म हुई, दूसरी शुरू.. दूसरी खत्म हुई तो तीसरी शुरू.. अपने पास रखी सभी किताबें खत्म हुई तो, बाहर से कुछ नई ले ली.. बस!!

दोपहर में अमूमन खाना खा कर घर पर फोन लगाता हूँ.. बिना बात किये हाँ, हूँ कह कर कर फोन रख देता हूँ.. मानो यह जताना चाह रहा था कि देखिये पापाजी, मैं ठीक हूँ.. खाना भी खा लिया हूँ.. आप चिंता ना करें.. अंदर ही अंदर कुछ घुट सा रहा है.. क्या? मुझे भी नहीं पता.. स्नेहा को फोन करता हूँ.. उधर भी फिर वही हाँ, हूँ करके फोन काट देता हूँ.. और वापस अपने खोल में घुस जाता हूँ, जहाँ से मुझ तक किसी का पहुंचना नामुमकिन हो जाए.. किसी चक्रव्यूह कि तरह जिसे भेदना हर किसी के बस की बात ना हो..

किसी से कोई बात करने का मन भी नहीं करता है दिन भर.. कभी कभी लगने लगता है कि कहीं हर दिन घर पर बात करना भी ड्यूटी का ही तो हिस्सा नहीं है? मगर इसका जवाब रात को एक या दो बजे के लगभग मिलता है जब माँ से खूब बात करने का मन करता है.. उस वक्त लगता है कि नहीं, ये ड्यूटी का हिस्सा नहीं है.. उन्हें बताने का मन करता है कि उनसे कितना प्यार करता हूँ या उन्हें कितना मिस करता हूँ.. अक्सर जब वो सामने होती है या फोन पर बात करते समय "क्या कर रहे हो" या "कैसे हो" या "खाना खाये या नहीं" जैसी औपचारिक बातों से बात शुरू होती है, और बात खत्म भी हो जाती है.. मगर रात का समय!!! मुझे पता होता है कि इस समय वो सो रही होंगी, तो भी उन्हें जगाया जा सकता है.. मगर ये भी पता होता है कि फिर वो भी मेरी ही तरह सारी रात सो नहीं पाएंगी.. सबसे छोटे बेटे कि चिंता से..

थोड़ी देर अंदर ही अंदर कसमसाता रहता हूँ.. चलो किसी दोस्त से ही बात कर लूं, जैसी बात मन में आती है.. अब इतनी रात गए कौन जगा हो सकता है? मनोज, ये एक ऐसा सख्श है जिसे मैं कभी भी किसी भी समय फोन कर सकता हूँ.. मगर उसे भी तो सुबह दफ्तर की चाकरी बजानी होती है.. ऐसे वक्त में पंकज को ही अक्सर फोन लगाता हूँ.. थैंक्स पंकज, अक्सर मुझे इतनी रात गए बर्दास्त करने के लिए.. अक्सर मेरी अवसादग्रस्त बाते सुनने के लिए, और ढाढस भी बंधाने के लिए.. स्तुति से भी अक्सर उसी समय बात होती है अगर वह दफ्तर में ना होकर घर में हुई तो.. उसके अमेरिका में होने का ये फायदा तो जरूर मिल रहा है..

सोने से पहले घर पर पापा के नंबर पर एक SMS छोड़ देता हूँ, "Love you & miss you both. Good Night." both लिखने के पीछे कि मनोदशा कुछ समझ में नहीं आती है.. उसे लिखने से पहले एक-दो मिनट सोचता हूँ, फिर वही लिखता हूँ और भेज देता हूँ.. सुबह दस बजे के करीब फोन कि घंटी से नींद खुलती है, और माँ पूछती है कि निशाचर हो क्या? सुबह के चार-पांच बजे तक जगे हुए थे? मैं बस टाल जाता हूँ.. माँ कुछ देर इन्तजार करती है, शायद कुछ कहेगा.. कुछ देर कि चुप्पी के बाद दफ्तर का बहाना करके फोन रख देता हूँ.. मैं फिर से किसी से बात ना करने वाले मनःस्थिति में हूँ.. दिन भर बीतने के बाद फिर से बैंक में फोन नहीं कर पाता हूँ..

दो बजिया बैराग्य के पुराने भाग पढ़ने के लिए लिंक.

कुर्ग यात्रा अगले भाग में.

Tuesday, August 03, 2010

Coorg - वह चाँद, जो सारी रात साथ चलता रहा Part 3

सुबह जागने पर पाया कि वही रेल जो रात चाँद के साथ कदमताल मिला कर चल रहा था, सुबह दूर खड़े पेड़ के साथ रिले रेस लगा रहा था.. जो कुछ दूर साथ-साथ दौड़ते हैं और अचानक कुछ निश्चित दूरी तय करने के बाद किसी और पेड़ को अपने स्थान पर दौड़ने के लिए छोड़ दे रहे थे.. रेल कि खिडकी और उस पर भी उससे झांकता चाँद, मुझे बेहद नॉस्टैल्जिक कर देता है.. बहुत देर तक यूँ ही खिडकी से झांकता रहा, बाद में सभी के सोने के बाद दरवाजे पर खड़े होकर रात के अँधेरे में अपनी रंगीनियत खोकर काली हो चुकी झाडियों पर पड़ती रेल की बत्तियों कि रोशनियों को तेजी से अपना आकार बदलते देखता रहा.. कई दफे लोगों को भी ऐसे ही बदलते देख चुका हूँ, सो उनसे इनकी तुलना करने लगा.. लगा कि ये झाडियाँ उनसे कहीं अच्छी है, कम से कम किसी का विश्वास तो नहीं तोड़ती हैं.. फिर सो गया.. क्योंकि कुछ पता नहीं था कि कल फिर किस समय आराम करने को मिलेगा..

तीन घंटे का सफर जो मैसूर से कुर्ग तक जाता था, उसे हमने लगभग पांच घंटे में पूरा किया.. आराम से रूकते-चलते.. काश जिंदगी भी ऐसे ही आराम से रूकते-चलते कटती होती! यहाँ तो हर मोड़ पर एक दौड़ का आयोजन सा लगता है.. घर से निकलो तो ट्रैफिक की दौड़.. पार्किंग में पहले पार्क करने की दौड़.. दफ्तर पहुँचने पर यही दौड़ अपनी उत्कर्ष पर पहुँच जाती है, जिसके सामने भावनाएं भी बचा पाना दिन-ब-दिन मुश्किल सा लगने लगा है.. देखते हैं कब तक संभाले रख पाता हूँ खुद को इन गलियों से.. वैसे भी जिंदगी तीन के बदले पांच का मौका किसी को नहीं देती.. जो करना है उसी तीन में करो, हो सके तो उससे भी पहले करके किसी और का हक मारो या किसी और की मदद करो, यह आदमी-आदमी पर निर्भर है..

जहाँ हमें जाना था, वह जगह कुर्ग शहर से लगभग पन्द्रह किलोमीटर दूर थी.. पहाडियों के ऊपर कहीं बसी हुई.. जहाँ तक आम आदमियों का जाना संभव नहीं.. पूरी पहाड़ी ही उस "Home Stay" के मालिकों का था.. बस ने हमें जहाँ छोड़ा था वहां से लगभग तीन-साढे तीन किलोमीटर तक "Home Stay" वालों द्वारा चलाये जाने वाले वाहनों से ही जाना संभव था, या फिर पैदल.. पैदल जाना नए लोगों के लिए मुनासिब नहीं था, क्योंकि रास्ते में फिसलन बहुत थी.. मुझे जैसे दो-तीन लोग जो पैदल जाना चाह रहे थे उन्हें इसी वजह से मना कर दिया गया..

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जब हम वहाँ पहुंचे तब तक दोपहर के एक बजने को थे, हलकी बरसात शुरू हो चुकी थी, और मैं बस में आधे घंटे कि नींद पूरी करने के कारण तरोताजा महसूस कर रहा था.. बाहर तीन जीप और एक कमांडर लगी हुई थी जो हमारी ही अगुवाई के लिए आयी थी.. बहुत दिनों बाद ऐसी जीप देखने को मिली, बचपन में पापा जी को ऐसी जीप मिला करती थी जो बाद में जिप्सी या सुमो या एम्बेसडर में बदल गई.. वह जीप भी उन्हें नॉस्टैल्जिक करने को बहुत होगी जिन्होंने कभी वैसी गाड़ियों में सफर किया होगा..

"कुछ साल पहले तक चेंगप्पा परिवार(Honey-Valley Home Stay) ही सभी आगंतुकों का स्वागत खुद करते थे, पर अब उन्होंने काम बढ़ने से कुछ आदमी रख लिए हैं.. मेरी इस बात कि पुष्टि आप इस लेख से कर सकते हैं जो आज से लगभग ढाई साल पहले लिखी गई थी.."


मैं टीम के Organizing Committee में सीधे तौर पर ना होते हुए भी उनकी मदद कर रहा था.. सीधे तौर पर से Organizing Committee से ना जुड़ने के विभिन्न कारणों को जानने के लिए मेरे एक मित्र द्वारा लिखा यह ब्लॉग पोस्ट आपको जरूर पढ़ना चाहिए(ओह, अभी देखा तो उसने वह पोस्ट हटा दिया है.. उसकी भी अपनी कुछ मजबूरियां रही होगी).. अब चूंकि मैं Organizing Committee में ना होते हुए भी उसका एक हिस्सा था तो फर्ज बनता था कि पहले दूसरे लोगों को भेज दिया जाए..

सबसे पहले महिलाओं कि बारी आयी, फिर दूसरों की.. सबसे अंत में बस की पूरी छान-बीन करने के बाद हम(मैं, संतोष और काईला) प्लानिंग कर रहे थे कि साढ़े तीन किलोमीटर कि लगभग सीधी चढाई पैदल ही पार किया जाए.. बाहर हल्की बरसात हो रही थी, लगभग सभी लोग जा चुके थे.. बड़े ग्रुप में नियत स्थान पर सबसे अंत में पहुँचने का सबसे बड़ा घाटा यह होता है कि आपको सबसे अंत में बचा हुआ ऐसा कमरा मिलता है जिसे सभी देख कर छोड़ चुके होते हैं..

जारी...

Coorg - एक अनोखी यात्रा
Coorg - खुद से बातें Part 2