Thursday, April 29, 2010

दो बजिया बैराग्य पार्ट फोर

मैंने कभी भी पापाजी को गुस्से में चीखते-चिल्लाते नहीं देखा है.. वह भी एक आम इंसान हैं, और किसी और कि तरह गुस्साते भी हैं.. मगर घर में उनके गुस्से को ऊँची आवाज कभी नहीं मिली.. उनका चुप रह जाना ही अपने आप में सब कह जाता था.. जब तक इतनी समझ नहीं आयी थी कि पापाजी चुप हैं मतलब गुस्से में हैं, तब तक वह जरा सा आँख तरेर देते थे और बस इतना ही काफी होता था हमारे सहम जाने के लिए.. हमारे से मेरा मतलब हम तीनो भाई-बहन..

अपने घर का सबसे प्रोब्लेमेटिक बच्चा मैं खुद को ही मानता हूँ.. हर बात पर गुस्सा, हर चीज से खीज, पढाई लिखाई से भी हमेशा दूर.. मगर फिर भी पापाजी का दुलारा.. पता नहीं कब तक लाड़-छिड़ियाते रहा हूँ.. अब पापाजी पर तो नहीं लेकिन जब घर जाता हूँ तो मम्मी पर जम कर लाड़-छिड़ियाता हूँ.. घर में पापाजी से सबसे ज्यादा पिटाई भी मुझे ही लगी है, मगर उसे अब आंकलन करता हूँ तो उसे गुस्से में की गई पिटाई नहीं पता हूँ.. एक नियंत्रित मात्र डर पैदा करने के लिए एक सजा ही पाता हूँ.. और जब भी पिटाई लगी तो वो सिर्फ दीदी को मारने के एवज़ में.. वैसे पिटाई कि बात करें तो भैया को सबसे अधिक पिटाई लगी है.. मगर पापाजी से नहीं, मम्मी से.. अभी याद करने बैठा हूँ तो एक वाकया भी ऐसा याद नहीं आ रहा जब भैया को पापाजी से पिटाई लगी हो(कल सुबह ही पापाजी से लड़ने वाला हूँ कि आप भैया को कभी नहीं मारे, आज मारिये.. भैया को पिटाई खिलाना है).. :)

उनका एक तकिया कलाम जैसा ही कुछ हुआ करता था.. वो हमेशा हम बच्चों के बारे में कहते थे कि "मेरा बैल है, हम कुल्हारिये से नाथेंगे, कोई क्या कर लेगा?".. आज जब मैं अपने भतीजे के बारे में यही कहता हूँ तो बोलते हैं कि हम कभी नाथे थे क्या जो तुम अपने बैल को नाथोगे?

मैं पापाजी से एक बात सिखने कि बहुत कोशिश करता हूँ.. वो कभी भी ऑफिस का तनाव घर लेकर नहीं आते थे.. ऑफिस का टेंशन ऑफिस में रहता था.. एक प्रशासनिक अधिकारी को कई तरह के तनाव हर वक़्त घेरे रहता है, मगर वह कभी भी हम देख नहीं पाए.. दफ्तर में एक कड़क अधिकारी कि पहचान रखने वाले पापाजी के मातहत कर्मचारी अगर घर में उन्हें हमारे साथ देख लेते थे तो आश्चर्य में पड़ जाया करते थे.. 'साहब ऐसे भी हैं, ये तो पता ही नहीं था' वो एक बार मुझे एक बात बोले थे, जिसे मैंने गाँठ बाँध कर रख लिया है.. वो बोले थे कि "किसी भी इंसान कि पहचान इससे नहीं होता है कि वह अपने से बड़े के साथ कैसा बर्ताव करता है, बल्कि इससे होता है कि वह अपने से छोटे से कैसा व्यवहार रखता है".. मैं अच्छे से जानता हूँ कि पापाजी अगर ये पढेंगे तो उन्हें आश्चर्य ही होगा कि वो कब ये बात बोले थे.. बाद में भैया से भी ये मैंने सुना था..

अभी कुछ दिन पहले पापाजी से बात हो रही थी.. उन्हें मैं किसी बात पर अपने कुछ दोस्तों के बारे में बता रहा था.. बता क्या रहा था, एक तरह का कान्फेशन(Confession) ही था.. उन्हें अपने दोस्तों कि खूबियों के बारे में बता रहा था कि वो किन-किन मामलों में मुझसे अच्छे हैं.. पापाजी पूछ बैठे, "क्या वे सब तुम्हारे आदर्श हैं?" मेरा कहना था कि अभी तक अपने जीवन में किसी भी ऐसे व्यक्ति से नहीं मिला हूँ जिसे मैं अपना आदर्श मान सकूं, अगर उन्हें अपने आदर्श कि कसौटी पर कसने बैठ गया तो वे मुझे बेचारे से नजर आयेंगे.. मेरा एक्सपेक्टेशन लेवल बहुत ऊंचा है इस मामले में.. मेरा कहना था कि किसी को खुद से अच्छा मानना एक अलग बात है और किसी को अपना आदर्श मानना अलग.. हाँ मगर यह बात जरूर है कि अगर कोई मुझसे पूछे कि तुम कैसा बनना चाहोगे, तो मेरा जवाब होगा "अपने पापा जैसा"..

एक बार आठवीं कक्षा कि परीक्षा में मैंने चोरी कि थी.. परीक्षा भवन में तो किसी को कुछ भी पता नहीं चला मगर इंस्ट्रूमेंट बाक्स में छुपाया गया चीट घर में गवाही दे गया.. जिस दिन घर में पता चला उस दिन ही उसका परिणाम भी आने वाला था और मुझे स्कूल में भैया से ये खबर मिली.. मगर उस पर भी पापाजी मुझ पर चीखें-चिल्लाये नहीं और ना ही मार पड़ी.. और मुझे वह आत्मग्लानी कई दिनों तक खाती रही, जिसके कारण से फिर मुझे फेल होना तो मंजूर था मगर कभी चोरी करने कि हिम्मत नहीं हुई.. एक दफ़े भैया भी एक गलती किये थे अपने कालेज में, घर आने पर जब दो-तीन दिनों तक कोई कुछ भी उसके बारे में नहीं पूछा तो तीसरे दिन भैया खुद ही पापा-मम्मी के सामने फूट-फूट कर रोने लगे..

अभी अगस्त २००८ कि बात है.. केशू होने वाला था सो घर के सभी सदस्य इकठ्ठा थे.. बातों का दौर चल रहा था.. दीदी यूँ ही पूछ बैठी थी, "आपके होठों का रंग इतना काला क्यों होता जा रहा है? सिगरेट पीने लगे हैं क्या?" एक पल को मैं ठिठका, और बोल दिया "हाँ".. यूँ तो भैया-भाभी को पता था और शायद भैया मम्मी को भी बता चुके थे.. मगर पापाजी को इसकी भनक भी नहीं थी.. एक सन्नाटा सा छा गया.. मम्मी कुछ बोली, जो मुझे याद नहीं है.. क्योंकि मैं पापाजी कि डांट सुनना चाह रहा था.. पापाजी एक बार फिर कुछ नहीं बोले.. ना ही आँखे तरेरे.. एक-दो मिनट बैठे और फिर धीमे से उठकर चुपचाप चले गए..



२२ अप्रैल को पापा-मम्मी कि शादी कि सालगिरह पर ली गई तस्वीर

दो बजिया बैराग्य वन
दो बजिया बैराग्य टू
दो बजिया बैराग्य थ्री

चलते-चलते : लिख चुकने के बाद जब पिछले पोस्टों का लिंक ढूंढ रहा था तो मैंने पाया कि एक-दो बातों को मैंने रिपीट किया है इस दफ़े.. अपनी सफाई में मैं कह सकता हूँ कि पहली बार वह छोटे में ही निपटा दिया था, जबकि इस बार यह विस्तार लिए हुए है.. मगर कहीं ना कहीं सागर कि बात भी सच होती दिख रही है.. उसने कहा था "एक सच बताऊँ ... जब मैंने तुम्हें पहली बार पढ़ा था तो मुझे लगा था इतनी ज़मीनी बात करने वाला ज्यादा पोस्ट नहीं लिख सकता... लेकिन में गलत था... अपनी साफगोई और इमानदारी के कारण तुम बहुत कुछ लिख सकते हो जो प्रभावित करती रहेंगी... (माफ़ करना PD मैंने तुम्हारे बारे में गलत सोचा था)" अब मुझे लग रहा है कि सागर कि बात कही सच ना हो जाए..

Tuesday, April 27, 2010

ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?

कल मैंने एक दफ़े फिर से यह सिनेमा देखी, और इस पुरानी पोस्ट को फिर से ठेल दिया। पहली बार जब मैंने यह लिखा था तब शायद ही कोई मेरे ब्लॉग को पढता था, शायद अबकी कोई पढ़ ले। :)

कल मैंने फिर से प्यासा देखी, ये एक ऐसी फ़िल्म है जिसे मैं जितनी बार देखता हूं उतनी बार एक बार और देखने का जी चाहता है। मेरा ऐसा मानना है कि अगर कोई भी डायरेक्टर अपने जीवन में इस तरह का फ़िल्म बनाता है तो फिर उसे कोई और फ़िल्म बनाने कि जरूरत ही नहीं है, क्योंकि वो फ़िल्म व्यवसाय को इससे अच्छा उपहार दे ही नहीं सकता है। मगर जैसा कि अपवाद हर जगह होता है, बिलकुल वैसे ही गुरूदत्त जैसा अपवाद हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री को भी मिला। उन्होंने हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री को एक से बढकर एक कई अच्छे और दिल को छू जाने वाले फ़िल्म दिये। जैसे ‘कागज़ के फूल’, ‘चौदहवीं का चांद’, ‘साहिब, बीवी और गुलाम’, ‘मिस्टर एंड मिसेस 55’, ‘बाज़ी’, इत्यादी।

यहाँ मैं बस प्यासा फ़िल्म की चर्चा करने जा रहा हूं। मेरे मुताबिक ये फ़िल्म अपने आप में एक विशिष्ठ श्रेणी की फ़िल्म थी, क्योंकि यह फ़िल्म तब बनी थी जब जवाहर लाल नेहरू के सपनों के भारत का जन्म हो रहा था। और उस समय गुरूदत्त ने जो समाज का चित्रन किया था वो आज कि परिदृष्य में भी सही बैठता है।

प्यासा, जो सन १९५७ में बनी थी, में वह सबकुछ है जो किसी फ़िल्म के अर्से तक प्रभावी व जादुई बने रहने के लिए ज़रुरी होता है। सामान्य दर्शक के लिए एक अच्छी, कसी हुई, सामयिक कहानी का संतोष (फ़िल्म के सभी, सातों गाने सुपर हिट)। और सुलझे हुए दर्शक के लिए फ़िल्म हर व्यूईंग में जैसे कुछ नया खोलती है। अपनी समझ व संवेदना के अनुरुप दर्शक प्यासा में कई सारी परतों की पहचान कर सकता है, और हर परत जैसे एक स्वतंत्र कहानी कहती चलती है। परिवार, प्रेम, व्यक्ति की समाज में जगह, एक कलाकार का द्वंद्व व उसका भीषण अकेलापन, पैसे का सर्वव्यापी बर्चस्व और उसके जुडे संबंधों के आगे बाकी सारे संबंधों का बेमतलब होते जाना।

मैं यहां प्यासा फ़िल्म का एक गाना लिख रहा हूं जो कि आज के समाज पर भी उतना ही बड़ा कटाक्ष कर रहा है जैसा उस समय पर था। ये मेरे अब-तक के सबसे पसंदीदा गानों में से भी है।

ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया..
ये इंसान के दुश्मन समाजों की दुनिया..
ये दौलत के भूखे रिवाजों की दुनिया..
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है??

हर एक जिस्म घायल, हर एक रूह प्यासी..
निगाहों में उलझन दिलों में उदासी..
ये दुनिया है या आलम-ए-बदहवासी..
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है??

यहां एक खिलौना है इंसान की हस्ती..
ये बस्ती है मुर्दा-परस्तों की बस्ती..
यहां पर तो जीवन से है मौत सस्ती..
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है??

जवानी भटकती है बदकार बनकर..
जवां जिस्म सजते हैं बाजार बनकर..
यहां प्यार होता है व्यापार बनकर..
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है??

ये दुनिया, जहां आदमी कुछ नहीं है..
वफ़ा कुछ नहीं, दोस्ती कुछ नहीं है..
जहां प्यार की कद्र ही कुछ नहीं है..
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है??

जला दो इसे फ़ूंक डालो ये दुनिया..
मेरे सामने से हटा दो ये दुनिया..
तुम्हारी है, तुम ही संभालो ये दुनिया..
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है??


Saturday, April 17, 2010

दो बजिया वैराग्य पार्ट थ्री


कल दीदी का फोन आया, तक़रीबन रात साढ़े दस बजे के आस पास.. अक्सर जब भी फोन करती है तो उसका समय दस से ग्यारह के बीच ही होता है.. बहुत खुश होकर फोन कि थी और सिर्फ एक सूचना देकर एक मिनट से भी कम समय में फोन रख दी.. बोली कि मैंने आखिर अपना इमेल बना ही लिया है और आपको(सबसे छोटा होने के बाद भी सभी मुझे घर में 'आप' ही कहते हैं.. क्यों, कारण फिर कभी) मेल भी कर दिए हैं.. इससे पहले शायद 2001 के लगभग दीदी Rediff पर अपना इमेल यूज करती थी, अब तो उसे उसका ID भी याद नहीं है पासवर्ड कि बात तो बेहद दूर है..

बचपन से लेकर अभी तक दीदी मुझे लगभग हर मुसीबत(जो उन्हें ज्ञात हो) से बचाती आई है.. मैं कितना भी याद करने कि कोशिश करता हूँ मगर मुझे यह कभी याद नहीं आता कि दीदी कभी भी मुझपर हाथ उठाई हो.. हाँ, मगर ऐसे किस्से खूब याद हैं जब मैंने बचपन कि नासमझी में दीदी को मारा हूँ.. एकाध किस्सों को छोड़ दिया जाये तो मुझे पापाजी से जब कभी भी पिटाई लगी है तो सिर्फ और सिर्फ दीदी को मारने के कारण ही.. और उस समय भी मुझे बचाने वाली दीदी ही हुआ करती थी.. पापाजी से लगभग लड़ लेती थी कि मेरे भाई को मत मारिये..

पटना में आने के बाद से जब भैया आगे कि पढाई के लिए घर से बाहर निकल गए और मेरा घर से बाहर निकलना कुछ बढ़ा, तब दीदी ही मेरी मित्र-सखा सब कुछ थी.. उसी समय पहली बार हमें जेबखर्च के नाम पर कुछ मिलना शुरू हुआ था.. 1999-2000 कि बात कर रहा हूँ.. वैसे जेबखर्च मिलना-ना मिलाना, दोनों मेरे लिए बराबर ही था.. घर के सारे सामान मैं ही लाता था, सो कभी ये हिसाब नहीं रहता था कि मैंने अपने जेबखर्च से घर का सामान खरीद लिया है या फिर घर के सामान के लिए मिलने वाले पैसे को अपने ऊपर खर्च कर लिया है..

कुल जमा 300 रूपये हमें मिला करता था, और दीदी के पास वह जब कभी 500-1000 के पास पहुँचता था तब दीदी वह सारे पैसे मुझ पर खर्च कर देती थी.. कभी कोई सनग्लास तो कभी कोई टीशर्ट्स तो कभी कुछ.. दीदी कि शादी के समय दीदी के पास लगभग 300-400 रूपये थे उन्ही जेबखर्च से बचे हुए और वह भी दीदी मुझे दे दी थी.. मैंने भी उन्हें 2003 से अभी तक छुपा रखा है अपनी एक डायरी के अंदर.. यक़ीनन रूप से मैं यह कह सकता हूँ कि वह पैसे मुझ से कभी भी खर्च ना हो सकेगा..

मेरी वह डायरी भी एक अजीब अजायब घर से कम नहीं दिखती है.. एक स्केच जो मेरे लिए मोनालिसा के पेंटिंग से भी अधिक कीमती है.. दीदी के दिए कुछ रूपये, और जीजाजी से लिए गए 5 अमेरिकन डॉलर.. मेरे लिए कुछ अमूल्य पेपर कि कतरने.. दो-तीन सूखे हुए गुलाब कि झड़ी हुई पंखुडियां जिनसे अब खुश्बू नहीं आती.. कुछ खास लोगों के पासपोर्ट साइज की तस्वीरें.. इन सबमे से अगर उन रूपयों और डॉलर को हटा दिया जाए तो बाकि चीजों कि कीमत पांच पैसे भी कोई ना लगाये, मगर मैं उन्हें अपने उस ताले वाले डायरी में हमेशा बंद करके रखता हूँ.. इस कदर कि कोई उसे देख भी ना सके..

बिहार और बिहार के बाहर के लोगों का अक्सर यह मानना होता है कि जो भी बिहार बोर्ड से पढ़ा-लिखा है तो उसकी अंग्रेजी खराब होना निश्चित है(अभी तक के अनुभव से इसे सही पाया भी है, बिहारी विद्यार्थी को अक्सर इसी मोर्चे पर मात खाते भी देखा है).. दीदी इसे भी मिथ्या साबित कर दिखाई थी.. हम दोनों भाई केंद्रीय विद्यालय से पढ़े होने के बाद भी दीदी कि अंग्रेजी के सामने कुछ भी नहीं थे..

घर में शुरू से ही एक स्कूटर रहा है और बाद में एक कार भी आ गई थी.. हम सभी के वयस्क होने के बाद भी पापाजी अक्सर हमें उसे चलाने से रोकते थे.. किसी अनजाने भय से ग्रसित होकर कि एक्सीडेंट कर देगा, वगैरह-वगैरह.. दीदी अक्सर मुझे स्कूटर निकलने को कहती थी और जब तक मैं वापस ना आ जाऊं तब तक घर में संभाले रखती थी कि किसी को पता ना चल जाए कि मैं स्कूटर लेकर सिखने निकल गया हूँ.. कार में मामले में स्थिति अलग थी, कार थोड़ी बड़ी थी और सभी को आराम से पता चल जाता(फिर भी दो-तीन दफ़े मैं जब पटना में अकेला होता था तो कार लेकर कालेज चला जाता था, कुछ चलाने के लालच से और कुछ शो-ऑफ करने के लालच से)..

जब घर में हम दो बच्चे ही थे(भैया इंजीनियरिंग कि पढाई के लिए पहले ही बाहर जा चुके थे) तो उनमे झगडा होना भी जरूरी था.. और हम झगड़ते भी थे.. पूरे दो साल तक मैं हर दिन सुबह साढ़े छः-सात बजे तक दीदी को कालेज छोडने जाता था.. और यह रूटीन मेरा कभी नहीं टूटा, चाहे हम दोनों में कितना भी अनबन चल रहा हो.. हर दिन सुबह दीदी को उठाना और अगर झगडा चल रहा हो तो कोई सामान पटक कर शोर मचा कर उठाना, मगर उठाना.. गर्मी हो बरसात हो या 3-4 डिग्री वाली हाड़कंपाती सर्दी..

इसे अचानक से यहीं खत्म कर रहा हूँ, क्योंकि इसे मैं चाह कर भी किसी इंड प्वाइंट तक लाकर खत्म नहीं कर सकता.. ऐसे ही अनाप-सनाप लिखता ही चला जाऊंगा..


दो बजिया बैरागी पार्ट 1
दो बजिया बैरागी पार्ट 2

Thursday, April 15, 2010

इंडिया सर ये चीज धुरंधर

किसी ने सच ही कहा है, कि अंग्रेजी में अक्सर अपशब्द डाल्यूट हो जाया करते हैं.. अपनी तीव्रता नहीं बनाये रख पाते हैं.. कुछ ऐसा ही फौलोवर शब्द के साथ भी है.. शब्दकोश.कॉम पर फौलोवर शब्द के तरह-तरह के मतलब दे रखे हैं.. मसलन - अनुगामी, अनुयायी, शिष्य, अनुसरणकर्ता, अधीन चेला, आगे दिया हुआ.. मेरी समझ में इसी का स्लैंग रूप "चमचागिरी" भी है..

आजकल अजित अंजुम जी फेसबुक पर चमचों के ऊपर रिसर्च कर रहे हैं.. उन्हें तरह-तरह के नये शब्द लोग सुझा रहे हैं.. कोई चमचाधिराज बता रहा है टो कोई चाटू नारायण.. एक भाई साहब आकर बेलचा पर भी नजरें इनायत करके आख्यान दे गये इस हिदायत के साथ कि चमचा और बेलचा का पुराना नाता है..

मेरी समझ में अगर आप किसी के साथ, अपनी इच्छा ना होते हुये भी, दो कदम अधिक चल लेते हैं तो इसे चमचागिरी के कैटेगरी में नहीं रखा जा सकता है.. एक उदहारण देना चाहूँगा, अगर आपके पास 'ए' और 'बी' ऑप्शन है और आप कुछ भी चुने इससे आपको कोई अंतर नहीं पड़ता हो, ऐसे में किसी के कहने पर आप 'ए' चुन लेते हैं और लोग आपको उसका चमचा बता जाते हैं..इस पर मुझे सिर्फ एक शेर याद आता है, "करीब जाकर छोटे लगे... वो लोग जो आसमान थे.." आज प्यार या लगाव भी चमचागिरी के फेर में पड़ने लगे हैं, खैर ये अपनी अपनी समझ का फेर है..

चमचागिरी के कैटगरी पर बात उठाने पर राजीव मिश्र जी आकर उसे छः भागों मे ऐसे बांटते हैं कि इस दुनिया जहान का हर कर्म चमचागिरी के घेरे मे आ जाये.. वो बताते हैं :

पहली वेरायटी --- वो जो बॉस की हाँ में हाँ तुरंत मिलाते हैं।

दूसरी वेरायटी --- जो बॉस की हाँ में हाँ मिलाने की पहले वजह ढूंढते हैं।

तीसरी वेरायटी --- क्या बात है सर जी, वाह भई वाह, आपने तो कमाल कर दिया, सिर्फ आप ही यह कर सकते थे आदि आदि वाक्यों से अपनी बात कहते हैं।

चौथी वेरायटी --- ऐसा कोई मौका नहीं खोते जैसे उनका जन्मदिन, शादी की सालगिरह, बच्चे का जन्म दिन, बीवी का जन्मदिन... जिसमें उनसे पहले कोई बधाई देदे।

पांचवीं वेरायटी --- कुछ ऐसे होते हैं कि कुछ लोग सिर्फ अपने होने का एहसास कराने के लिए बीच-बीच में लाइक्स इट, हं, हमममम आदि लिख देते हैं।

छठा वेरायटी --- भी जो अपनी शेखी बघारने के लिए अपने से मेल खाता विचार आने का इंतजार करते रहते हैं...

यह सब पढते हुए मेरे मन मे लालू प्रसाद यादव जी द्वारा अक्सर प्रयोग मे लाया जाने वाला जुमला याद हो आया.. टीटीएम, यानि ताबड़तोड़ तेल मालिश.. कुछ घंटे बाद ही अजित जी ने भी यह बात लिख डाली..

अंत मे रविन्द्र पंचोली जी द्वारा लिखा गया कविता, दोहा या गजल टाइप का ही कुछ भी पढते जाएँ..
सुन चमचा संसार में सभी चम्मच एक रंग
कोई उड़ाए दारू तो कोई पीए भंग
काम करने वाला रोए और ये लंबी तान कर सोए
ये काटते माल ख़ुद्दार दिहाड़ी को रोए..


अधिक विस्तार से पढ़ने के लिए आप अजित जी के फेसबुक प्रोफाइल में झाँक आयें.. चमचागिरी पर अगर कोई PHD करना चाहे तो पूरी थिसिस का माल उन्हें वहाँ मिल ही जायेगा.. कई थ्रेड बने हुए हैं चमचों के ऊपर..

Tuesday, April 06, 2010

मां रेवा तोरा पानी निर्मल, खलखल बहतो जायो रे!!


अभी कुछ दिनों पहले रविश जी ने फेसबुक पर "इंडियन ओशन" के एक गीत "मां रेवा" का जिक्र करते हुये कहा था "मां रेवा...तेरा पानी निर्मल..कल कल बहतो जाए...इंडियन ओशन का जब यह गाना सुनता हूं तो मां रेवा हलक के भीतर उतरने लगती है। नर्मदा के दीदार की तमाम ख्वाहिशें मचलने लगती हैं। इंडियन ओशन का संगीत सकारात्मक उन्माद पैदा करता है।"

उनका लिखा यह पढ़ते ही यह गीत सीधा दिल तक उतर आया.. अपने लैपटॉप के हार्डडिस्क में खूब ढ़ूंढ़ा मगर कमबख्त जाने कहां गुमा हुआ सा बैठा था कि नहीं मिला.. फिर इंटरनेट महाराज ने मुझ पर असीम कृपा दिखाई और मैंने यह गीत डाउनलोड करके अपने मोबाईल में डाल लिया..

ईश्वर जैसी चीजों को मैं हमेशा से ही नकारता रहा हूं, मगर मानता रहा हूं कि विश्व कि किसी भी सभ्यता के शुरूवाती क्षणों में लोग प्रकृति की ही पूजा किया करते थे.. वे हर उन चीजों को पूजते थे जिसे वह जीवन के लिये जरूरी मानते थे.. हमारी भारतीय संस्कृति में भी हम नदियों को मां और पर्वतों को पिता का दर्जा देते आये हैं..

मैंने कभी मां नर्मदा को देखा नहीं है.. बचपन उत्तर बिहार के लखनदेई नदी और चक्रधरपुर के पहाड़ी नदी के किनारे बीता है और किसोरावस्था से जवानी की दहलीज तक पांव रखते हुये मां गंगे को नजदीक से देखा हूं, सो यह गीत सीधा दिल को चीर कर अंदर तक घुसता प्रतीत होता है.. रविश जी सच ही इसे एक सकारात्मक उन्माद का नाम दिये हैं.. एक ऐसा उन्माद जो आपको प्रकृति की ओर खिंचता है..

मां रेवा तोरा पानी निर्मल,
खलखल बहतो जायो रे..
मां रेवा!!!

अमरकंठ से निकली है रेवा,
जन-जन कर गयो भाड़ी सेवा..
सेवा से सब पावे मेवा,
ये वेद पुराण बतायो रे!!

मां रेवा तोरा पानी निर्मल,
खलखल बहतो जायो रे..
मां रेवा!!!


शाम तक इसे पॉडकास्ट करता हूं..


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बाद में जोड़ा गया..

Sunday, April 04, 2010

दो बजिया वैराग्य पार्ट टू


घर से कई किताबें लाया हूँ जिनमे अधिकतर फणीश्वरनाथ रेणु जी कि हैं.. उनकी कहानियों का एक संकलन आज ही पढ़ कर खत्म किया हूँ, 'अच्छे आदमी'.. पूरी किताब खत्म करने के बाद फुरसत में बैठा चेन्नई सेन्ट्रल रेलवे स्टेशन पर अपने मित्र के ट्रेन के आने का इंतजार कर रहा था, तो उस किताब कि बाकी चीजों पर भी गौर करना शुरू किया.. उसके पहले पन्ने पर पापाजी कुछ लिख रखे थे, जिसमे उस किताब के ख़रीदे जाने के समय वह कहाँ पदस्थापित थे और वह उनके द्वारा ख़रीदे जाने वाली कौन से नंबर का उपन्यास है.. "चकबंदी, बाजपट्टी".. उस समय पापाजी वही पदस्थापित थे.. इससे मैंने अंदाजा लगाया कि यह किताब सन १९८२ से १९८६ के बीच कभी खरीदी गई होगी.. मगर किताब के ऊपरी भाग को देखने से कहीं से भी यह किताब उतनी पुरानी नहीं लगती है, हाँ अंदर झाँकने पर पृष्ठ कुछ भूरे रंग के हो चले हैं और पुरानी किताबों जैसी सौंधी सौंधी सी खुशबू भी आती है.. एक जिम्मेदारी का एहसास होता है कि जिस तरह उन्होंने इसे संभाल कर अभी तक इन किताबों को रखा है, मुझे भी ऐसा ही व्यवहार इन किताबों के साथ करना चाहिए..

कुछ याद भी आया, जो पापाजी का किताबों के प्रति दीवानापन दिखाता है.. मैं बचपन से लेकर अभी तक खरीदी हुई लगभग हर चम्पक, नंदन, बालहंस, सुमन-सौरभ और कामिक्सों को भी ऐसे ही संभाल कर रखा हुआ हूँ जैसे पापाजी इन उपन्यासों को.. किसी भी कहानी कि किताब का एक पन्ना भी कोई ना मोड़े और अगर किसी को उसे मोड कर पढ़ना है तो कम से कम मेरी कहानी कि किताबों को तो मत ही छुवें.. उसे मोड़ कर पढ़ने का अधिकार मैंने पापाजी को भी नहीं दे रखा है..

कुछ पुरानी यादों में गोते भी मारा, वैसे भी कोई और काम था नहीं.. बगल में एक दो-ढाई साल की बच्ची के साथ आँख मिचौली भी बैठे-बैठे ही खेला.. पीले रंग की फ्रॉक पहन कर इतराती फिर रही थी, दीन-दुनिया से बेखबर.. उस किताब के ख़रीदे जाने के समय मैं अधिक से अधिक तीन से पांच साल का रहा होऊंगा..

बिहार एक बेहद रूढ़िवाद से जकडा हुआ प्रदेश है जहाँ जाति और समाज के कुचक्रों से बचकर निकलना बहुत मुश्किल है.. ऐसे माहौल में भी पापाजी का हम बच्चों से सदा मित्रवत व्यवहार रहा.. उन्होंने अपना बचपन संघर्षों में ही बिताया है और B.A.S. में आने से पहले उन्हें कई सीढियाँ नापनी पड़ी थी.. अपने भीतर के आत्मविश्वास को भी जगाना पड़ा था.. और जब आत्मविश्वास इस स्तर तक पहुंचा की वह I.A.S. के बारे में सोचें भी, उस परीक्षा में बैठने की उनकी उमर गुजर चुकी थी.. उन्होंने कभी भी अपनी बात, अपने सपने हम पर नहीं थोपे.. मगर फिर भी हमें यह भली भांति पता है की उनका एक सपना था की उनका कोई बेटा I.A.S. बने..

बचपन से ही पढाई-लिखाई के मामले में पापाजी का मुझ पर एक ऐसा अटूट भरोसा था जिसे मैं अक्सर तोड़ता फिरता था.. यह सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक मैं कंप्यूटर सीखना शुरू नहीं किया था.. जब भरोसा ऐसा था तब मुझसे भी बिना कहे, लगभग मूक संवाद जैसा ही कुछ, उन्हें यह उम्मीद भी थी की यह बेटा भी I.A.S. बने.. उनकी इस उम्मीद पर सबसे पहले मैंने पानी फेरा, यह कहकर की मैं कंप्यूटर फील्ड नहीं छोड़ने वाला हूँ.. और बाद में भैया ने भी यह स्पष्ट कर दिया की अगर मुझे I.A.S. ही बनना था तो मुझे M.Tech. तक की पढाई करने की क्या जरूरत थी? और बाद में भैया ने आधे स्तर पर ही सही पापाजी का आधा सपना पूरा कर दिया I.E.S. ज्वाइन करने के बाद..

मेरा तब भी और अब भी यही मानना है की हम तीनो भाई बहन में दीदी सबसे अधिक इंटेलेक्ट थी और है भी.. और दीदी के लिए I.A.S. निकालना 'पीस ऑफ अ केक' के ही सामान था.. मगर दीदी हमेशा अपने सपनो में ही गुमी सी रहने वाली लड़की थी.. जिसमे कुछ आसमान, कुछ तितलियाँ, कुछ चिड़ियों ने अपनी जगह बना रखी थी.. घर में हम तीनो भाई-बहन में अगर कोई कभी भी I.A.S. की परीक्षा में बैठा था तो वह दीदी थी.. मगर दीदी कभी भी उसे सीरियसली नहीं ली..

पापाजी की एक आदत है.. कभी-कभी वह अक्सर जान बूझकर कुछ ऐसी बात कह जाते हैं जिससे हम हद दर्जे तक इरिटेट हो जाएँ.. इधर हम इरिटेट हुए और उनके चहरे पर एक विजयी मुस्कान आ जाती है.. यह भी कुछ वैसा ही है जैसे हम अपने किसी सबसे अच्छे मित्र को जानबूझ कर इरिटेट करते फिरते हैं..

एक दफ़े उनसे बात करते-करते उन्होंने कहा की मेरे बच्चे बेवकूफ हैं जो काबिलियत होते हुए भी I.A.S. नहीं बने.. मैंने आगे जोड़ा, नहीं पापाजी.. आपके बड़े बच्चे बेवकूफ होंगे, मैं तो नालायक हूँ.. उनका कहना था की सिर्फ मुझे ही पता है की मेरा छोटा बेटा क्या है और उसमे क्या करने की क्षमता है.. मैं सोचने लग गया था.. "हर माँ-बाप को अपने बच्चे पर इस तरह का अन्धविश्वास क्यों होता है? या फिर यह एक ऐसा विश्वास है जो बच्चों में कुछ भी कर गुजरने की ताकत दे देता है?"

बहुत बकवास कर लिया आज.. बाकी फिर कभी.. :)
दो बजिया वैराग्य पार्ट वन