Saturday, January 30, 2010

समय चाहे जो भी लिखे, हम तो तटस्थ ही रहेंगे

आजकल जो हिंदी ब्लौग का माहौल बना हुआ है उसमें मेरे हिसाब से यही बात सही बैठती है.. तटस्थ ही रहें और अपनी ढफली बजाते रहने में ही भलाई है.. दो लोगों की अगर आपस में ठनी हुई है तो उसमें अपनी टांग ना घुसाने में ही मुझे भलाई दिखती है..

मैं यह सब बातें इसलिये लिख रहा हूं क्योंकि यहां जिन लोगों में ठनी हुई सी लगती है, उसमें से अधिकांश लोग मेरे बेहद प्रिय हैं.. अगर उनकी बातों में मैं घुसने लगा तो ना इधर का रहूंगा और ना ही उधर का.. दोनों ही तरफ के लोग मुझे दुसरे पक्ष का समझेंगे.. और इससे मेरे अपने निजी रिश्ते भी खराब होंगे..

उदाहरण के रूप में, पाबला जी मेरे बहुत प्रिय हैं और मैं उन्हें अंकल कह कर बुलाता हूं.. उनके तरफ से भी मुझे उतना ही प्यार मिलता है.. दूसरी तरफ अनूप जी से भी वैसे ही संबंध हैं.. और उनसे भी उतना ही प्यार मिलता है.. कुश से एक अलग ही यारों जैसा संबंध है, साथ ही समीर जी और ताऊ जी से भी.. रचना जी से अक्सर मतभेद रहते हुये भी मुझे वह पसंद हैं कारण उनकी बेबाकी, दूसरी तरफ अरविंद जी को पढ़ना भी उतना ही सुहाता है.. कुछ पुराने किस्सों को भी उधेरा जाये तो दिनेश जी और पंगेबाज अरूण जी से भी अच्छे संबंध हैं.. यह तो बस कुछ नाम ही गिनाया हूं, और भी कई नाम हैं यहां..

मुझे अभी तक यह समझ में नहीं आया है कि अगर विचारों में मतभेद हो जाये तो लोग पूर्वाग्रह क्यों पाल लेते हैं? विचारों में असहमतियां तो हमेशा ही बनी रहेगी, क्या दुनिया में कोई है जिससे हमारे विचार शत-प्रतिशत मेल खाते हों? कोई नहीं मिलेगा, चाहे ढ़िबरी लेकर ढ़ूंढ़ें या ट्यूबलाईट जला कर..

Monday, January 18, 2010

ख्यालातों के अजीब से कतरन

रात बहुत हो चुकी है, अब सो जाना चाहिये.. कहकर हम दोनों ने ही चादर को सर तक ढ़क लिया.. वैसे भी चेन्नई से बैंगलोर जाने वाले को ही समझ में आता है कि सर्दी क्या होती है, और अगर किसी तमिलियन को सर्दी के मौसम में दिल्ली भेज दो तो जिंदा या मुर्दा, मगर अकड़ा हुआ शरीर ही वापस आयेगा..

यूं तो कुछ दिन पहले भी बैंगलोर गया था.. उसी मित्र के यहां ठहरा था.. अमूमन इससे पहले मैं अपने कालेज वाले मित्र के घर ठहरता था, मगर पिछले दो-तीन बार से कालेज से बहुत पहले के जमाने के मित्र के घर ठहर रहा हूं..

चादर से थोड़ी देर बाद सर निकाल कर फिर एक नई बात निकल आती है, और हम दोनों ही उचक कर बैठ जाते हैं.. कौन मित्र कहां है? अभी कौन क्या कर रहा है.. जिंदगी में अभी तक क्या-क्या झेला है.. कुछ ऐसे मित्र जो अच्छे या बुरे थे.. एक तरह का गौसिप ही समझ लें.. बात निकल आती है..

मेरे कालेज के मित्र अक्सर मुझसे कहते हैं कि तुम अक्सरहां बहुत रिजर्व रहते हो, और अपना इमेज कुछ ऐसा बना लेते हो कि कोई कुछ कहने-पूछने में भी तुमसे डरने लगता है.. मगर वे यह नहीं जानते हैं कि जो मेरी जिंदगी में खुद अपनी जगह बनाते चले जाते हैं, उन्हें मैं कभी रोकता नहीं हूं.. मेरे बहुत कम और गिने-चुने ऐसे ही दोस्तों, जो पूरे अधिकार से मुझे कुछ भी कह-सुन लेते हैं, इन में से एक यह भी है.. रविन्द्र.. इसके अलावा कुछ और नाम सोचता हूं तो, एक विद्योतमा(रूबी) थी(अब कहीं इस दुनिया में खो गई है, पता नहीं कहां और कैसी होगी).. स्वाति थी(उसका भी कुछ पता नहीं).. एक मनोज है.. शिल्पी.. विकास को इसमें नहीं रखता हूं, उसे मैंने खुद बिना स्पेस मांगे मैंने दे दिया है.. सो इस लिस्ट में वह नहीं है.. शायद बस इतना ही..

सोचने की बिमारी बहुत पुरानी है.. किसी से कुछ कह दिया, तो उसके बारे में सोचता हूं.. किसी ने कुछ कह दिया, तो खूब सोचता हूं.. किसी ने कुछ नहीं कहा, तब भी सोचता हूं.. रिश्तों की बात आती है, चाहे वह खून का रिश्ता हो या फिर दोस्ती का, तब सोच-सोच कर पगला ही जाता हूं.. पुराने दिनों को भी खूब याद करता हूं.. अच्छे पल भी याद आते हैं, बुरे पल भी.. मगर कमबख्त याद बेहिसाब आते हैं.. वो शहर भी याद आता है.. वह लड़की भी याद आती है.. उसके घर को जाने वाली गली याद आती है, राजेन्द्र नगर रोड नंबर दो.. वह गीत भी याद आता है, जिसे सुनकर वह रो दी थी.. लगता है जैसे कुछ बदलना है पीछे जाकर.. अपनी कुछ गलतियां सुधारनी है.. मगर आगे आने वाली गलतियों का क्या? क्या उसे कोई माफ़ करेगा? क्या मैं उनकी गलतियों को माफ करूंगा? कहना आसान होता है, मगर करना मुश्किल..

अब नौस्टैल्जिक होना बेवकूफी कहलाती है.. और जरूरत से अधिक ईमानदार होना दूसरे के मन में शक पैदा करता है.. किसी का जरूरत से अधिक ख्याल कर जाता हूं तो अगले ही पल यह डर बैठ जाता है कि इससे कहीं वह इरीटेट तो नहीं हो गया होगा/होगी? तकलीफ में हूं, मगर जैसे ही कोई चैट बाक्स ऊछलकर सामने आ जाता है वैसे ही एक स्माईली बना देता हूं और सामने वाला समझता है कि बंदा बहुत खुश है.. उसकी स्माईली देखकर मुझे भी उसकी खुशी से ईर्ष्या होती है..

आज ही विकास का भेजा एक मेल पढ़ा जिसमें ग्राफ बना कर समझाया हुआ था कि इंटरनेट पर लोग अधिक ईमानदारी दिखाते हैं.. मन में आया कि जैसे जैसे संवाद एकतरफ़ा होता जाता है वैसे-वैसे ही ईमानदारी का लेवल भी बढ़ता जाता है.. पहले फोन फिर एस.एम.एस. और अब इंटरनेट ईमानदारी का पैमाना बन गया है.. सच भी है, नहीं तो इतनी रात गये कौन मेरी इस ईमानदारी से लिखी बातों को सुनेगा..

"याद है, पहले दिन बी.सी.ए. में तुम्हारे साथ तुम्हारे कालेज गया था.. उसे देखकर मैंने कहा था कि अगर यहां पर कोई तुम्हारे लायक है तो वह वही है.. और कोई उसके लायक है तो वह तुम ही हो.." रविन्द्र मुझसे कहता है.. मैं आगे जोड़ देता हूं, "और मैंने कहा था कि, तुझे जहां कोई खूबसूरत लड़की दिखी नहीं कि बस वहीं चालू हो जाते हो.." आज से नौ साल पहले हुये इस बात को याद करके दोनों ठहाके लगाते हैं.. फिर एक चुप्पी छा जाती है.. लगभग दस मिनट बाद मैं अपने मोबाईल पर गाना बजाने लगता हूं.. "तुम मुझे यूं भुला ना पाओगे.." लाता की आवाज कानों में मिश्री घोलने लगती है.. आधे मिनट बाद रविन्द्र कह उठता है.. काश जिंदगी को रिवाईंड कर पाते.. बीच में रविन्द्र बोलता है, "अबे तुम खुद तो सेंटी हो ही रहे हो, मुझे भी सेंटी कर रहे हो.." मैं अनसुना कर जाता हूं और आंखे बंद कर अपनी जिंदगी रिवाईंड करने लग जाता हूं..

होस्टल में रात भर जागकर गौसिप कर रहा हूं दोस्तों के साथ.. बैंगलोर में मुझसे मिलने के लिये वह आयी थी और उसका चेहरा खिला हुआ था.. विकास के साथ पहली बार बैंगलोर गया था.. उसके गोद में सर रख कर लेटा हुआ हूं और वह तिनकों से मेरे कान में गुदगुदी कर रही है.. रविन्द्र के साथ पटना की सड़कों पर गाड़ी दौड़ा रहा हूं.. मनोज को लेकर घर में बिना बताये "गांधी सेतू" पर पर स्कूटर दौड़ा रहा हूं.. शिल्पी मुझे पहली बार राखी बांधते कितनी इमोशनल हो गई थी.. रविन्द्र उसे लेकर कालेज के पहले दिन कितना चिढ़ा रहा है और मैं रविन्द्र को गरिया रहा हूं.. चक्रधरपुर के स्कूल में खो-खो खेल रहा हूं.. दीदी-भैया से लड़ाई कर रहा हूं.. मम्मी के डांटने पर मम्मी के ही पल्लू में छिपने की कोशिश कर रहा हूं.. पापा के गोद में सिमट कर सो रहा हूं और पापा जी मुझे कोई कविता या कहानी सुना रहे हैं..

बस यहां तक आने पर मन को सुकून मिल जाता है और नींद आने लगती है.. कड़वे पलों को याद करने का मन नहीं था उस वक्त.. किसी ने सच ही कहा है कि, "जिन्हें नींद नहीं आती वह अपराधी होते हैं.." आज फिर जाने कैसे अपराधबोध मन में लिये अभी तक जाग रहा हूं..

Sunday, January 10, 2010

हर तरफ बस तू ही तू

बहुत पहले कुछ गद्य के साथ इस पद्य को पोस्ट किया था.. आज फिर से इस पद्य को पोस्ट किये जा रहा हूं.. पूरी पोस्ट को पढ़ने के लिये उस पुराने पोस्ट पर जायें.. आपको कुछ निहायत लज़ीज कमेंटों को भी पढ़ने का लुत्फ आयेगा वहां..

मेरी प्रीत भी तू,
मेरी गीत भी तू,
मेरी रीत भी तू,
संगीत भी तू..

मेरी नींद भी तू,
मेरा ख्वाब भी तू,
मेरी धूप भी तू,
माहताब भी तू..

मेरी खामोशी भी तू,
मेरी गूंज भी तू,
मेरी बूंद भी तू,
समुंद भी तू..

मेरी सांस भी तू,
मेरी प्यास भी तू,
मेरी आस भी तू,
रास भी तू..

मेरा नक़्स भी तू,
मेरी हूक भी तू,
मेरा अक्स भी तू,
मेरी रूह भी तू..

मेरा मान भी तू,
मेरा ज्ञान भी तू,
मेरा ध्यान भी तू,
मेरी जान भी तू..

मेरा रंग भी तू,
ये उमंग भी तू,
मेरा अंग भी तू,
ये तरंग भी तू..

मेरे जिगर के सरखे-सरखे में
कुछ और नहीं
बस तू ही तू..

मेरे लहू के कतरे-कतरे में
कुछ और नहीं
बस तू ही तू..

Thursday, January 07, 2010

दिल तो बच्चा है जी


सिनेमा देखते हुये वह सीन आया जब रैंचो के दोनों दोस्त यह सोच कर उदास थे कि चलो हम दोनों नीचे से ही सही, मगर पास तो हुये.. मगर अपना यार रैंचो फेल हो गया.. थोड़ी देर बाद पता चलता है कि रैंचो तो टॉप किया है और दोनों का चेहरा और लटक जाता है और पीछे से आवाज आती है, "अपने नंबर कम आने से ज्यादा दुख अपने दोस्त के टॉप करने पर होता है.." और मैं बगल मुड़कर विकास को गरिया देता हूं, "साला.. चोट्टा.. कमीना.." क्या हुआ? गरिया क्यों रहा है? अबे साले, तेरे टॉप आने पर कालेज में नहीं गरियाया, सो अभी गरिया रहा हूं..

दिल तो बच्चा है जी.....

ऑफिस में अपने कलीग एवं मित्र का कुछ काम कर दिया.. बहुत देर से परेशान हो रहे थे उसे लेकर... उनके पास समय नहीं था उसे करने के लिये और उस काम कि प्रायोरिटी बहुत हाई थी... उसे खत्म हुआ देख कर बहुत खुश हुये.. उनके लिये यह किसी सरप्राईज से कम नहीं था.. "थैंक्यू वेरी मच.." उन्होंने कहा... मैंने बिना सोचे रिप्लाई किया, "यू आर मगरमच्छ..." एक सेकेण्ड को हड़बड़ाये फिर मतलब समझ कर दोनों हंसने लगे...

दिल तो बच्चा है जी.....

घर से निकलता हूं दफ़्तर के लिये.. पहले से ही देर हो चुकी है.. हड़बड़ी में लम्बे-लम्बे डग बढ़ाता हुआ चला जा रहा हूं बस स्टॉप की ओर.. तभी एक छोटा सा कंकड़ मेरे जूते से टकरा कर थोड़ी दूर चला जाता है.. तीन-चार कदम पर फिर से वही पत्थर के पास हूं, और इस बार निशाना लगा कर जूते से जोड़ से मार दिया.. अब कहां की देरी और कहां का ऑफिस.. अब तो पहले उस पत्थर को अपने साथ बस स्टॉप तक ले जाने की जुगत भर बाकी है.. जूते का टो खराब होता है तो होने दो....

दिल तो बच्चा है जी.....

छुट्टियों कि एक शाम अपने घर के बरामदे में बैठा बच्चों को क्रिकेट खेलता देख रहा था.. उन्हीं बच्चों का हमौम्र एक बच्चा हवा मिठाई(जिसे बूढ़ी के बाल भी कहते हैं) बेचते हुये जा रहा था.. अब दोनों तरफ के बच्चे लालच में आ जाते हैं, एक बच्चे को क्रिकेट खेलने का लालच और बाकी बच्चों को हवा मिठाई का... दोनों मिल कर तय करते हैं कि पांच गेंद बैटिंग करने को मिलेगा और उसके बदले एक हवा मिठाई का पैकेट.... और उनके इस तमाशे का एकमात्र गवाह मैं... हवा मिठाई वाला बच्चा चार गेंद को बल्ले से मारता है और कम से कम 20 गेंद बरबाद करता है, बाकी बच्चे परेशान हो जाते हैं... और गेंद फेंकने से मना कर देते हैं... हवा मिठाई वाला बच्चा भी एक पैकेट देने से मना कर देता है और जाने लगता है... थोड़ी देर तक सरे बच्चे आपस में झगड़ते हैं... मैं सारे बच्चों को बुलाता हूं... 4-5 हवा मिठाई का पैकेट लेकर सारे बच्चों को दे देता हूं और 4-5 अपने लिये ले लेता हूं... पैसे भी बिना किसी मोल भाव के बच्चे को दे देता हूं... सभी खुश... मेरे मित्र भी हवा मिठाई खाकर खुश.... हैप्पी इंडिंग....

दिल तो बच्चा है जी.....

अकसर देर रात फोन पर बतियाते हुये ग्रील खोल कर बाहर सड़क पर निकल आता हूं.. अक्सर रातों को बतियाते हुये उन आवारा कुत्तों को भी देखता हूं जो आपस में भागदौड़ कर खेलते रहते हैं और किसी नये मेहमान के उस गली से गुजरने पर खूब भौंकते हैं... एक पत्थर उठाकर उन्हें डराता हूं, वे थोड़ी दूर भाग कर पलट कर देखते हैं... मैं दो कदम आगे बढ़ता हूं, वे चार कदम पीछे जाते हैं.. यह खेल 4-5 मिनट चलता है, मैं फिर से बात करने में मशगूल हो जाता हूं... थोड़ी देर बाद ध्यान आता है कि सामने वाले घर में अपने बरामदे में बैठे अंकल जी शायद मेरी इस हरकत को देखकर मुस्कुरा रहे थे... मैं भी उनकी ओर देख, मुस्कुरा कर अंदर चला आता हूं...

दिल तो बच्चा है जी.....

चलते-चलते : जब से इस गाने को सुना है, मन में बस यही गूंज रहा है.. जैसे इसे सुनकर थोड़ा बच्चा मैं भी हुआ जा रहा हूं.. यूं तो ये गीत बेहद नौस्टैल्जिक करने वाला है, मगर इसे सुनकर मैं नौस्टैल्जिक हो कर बचपन को याद करने के बजाये सीधा बच्चा ही हुआ जा रहा हूं.... देखिये कब यह खुमार उतरता है? शायद उसके बाद कुछ नौरमल हो जाऊं... ;)
अभी ये लिख ही रहा था कि बीच में इसी गाने पर विनीत का पोस्ट देखा.. आधा ही पढ़कर छोड़ दिया, सोचा कि अगर पूरा पढ़ लूंगा तो इस पोस्ट को पूरा ना करके उनके पोस्ट के साथ बह निकलूंगा... वैसे "पापा तुस्सी ग्रेट हो" वाला ख्याल तो हमेशा ही आते हैं मन में.. हां!! मगर अपने अनुभव विनीत के अनुभव से बेहद जुदा हैं...

Tuesday, January 05, 2010

खुशियों का जरिया : ई-मेल या स्नेल-मेल


अभी थोड़ी देर हुये जब बीबीसी के हिंदी ब्लौग पर सलमा जैदी जी को पढ़ा, जिन्होंने नये साल में मिले ग्रीटिंग कार्ड को लेकर अपनी खुशी जाहिर की है.. और यह संयोग ही है कि आज ही मेरी प्यारी बहन और उतनी ही प्यारी मित्र स्नेहा का नये साल का ग्रीटिंग कार्ड के साथ हस्तलिखित खत भी मिला है..

उस पर भी तुर्रा यह कि खत पूरी तरह से अंग्रेजी में नहीं है, बल्कि हिंदी और अंग्रेजी का मिश्रण है.. जिसकी उम्मीद मुझे तो बिलकुल नहीं थी.. नहीं तो हस्तलिखित देवनागरी देखे ही जमाना बीत गया है(पिछली बार जब फुरसतिया जी चेन्नई यात्रा पर थे तब उन्होंने दो किताबें उपहार में मुझे दी थी, जिसपर उन्होंने देवनागरी में लिखा था..)

खैर फिलहाल तो मैं वह खत फिर से पढ़ रहा हूं.. ये कुल जमा चौथी बार है उसे पढ़ते हुये.. इससे पिछली दफ़ा मुझे हाथों से लिखा खत मेरी मित्र अर्चना ने भेजा था जब वह मेरे लिये यूएस से आई-पॉड लायी थी और फिर उसे मुंबई से चेन्नई कूरियर की थी..

इस ई-मेल के जमाने में आपको आखिरी हस्तलिखित खत कब मिला था? :)