Thursday, April 30, 2009

कम से कम बधाई तो दे ही सकते हैं आप

मैंने घर जाने का प्लान बहुत दिनों से बना रखा था, जिसे बाद में कुछ कार्यालय संबंधी व्यस्तताओं कि वजह से स्थगित कर दिया.. अगर घर जाना होता तो अभी मैं बैठकर पोस्ट नहीं लिख रहा होता, बल्की अभी मैं दिल्ली में होता और शाम में पटना कि ट्रेन पकड़ने कि जुगत में लगा होता.. शायद शाम में नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर कोई हिंदी कॉमिक्स भी खरीदता, आखिर बचपन से लगी इस आदत को कैसे छोड़ दूं? दिल्ली में किसी पुराने मित्र से मुलाकात भी करता जिनसे मिले सालों बीत गये हैं या फिर शायद किसी नये ब्लौगर मित्र या नेट फ्रेंड से पहली बार मुलाकात करता होता.. पटना जाने वाली ट्रेन(संपूर्ण क्रांती या राजधानी एक्सप्रेस) से दिल्ली से निकलते हुये हाशमी दवाखाना के प्रचार से रंगे दिवालों को भी अलीगढ़ तक देखता, जिसमें लिखा होता था कि वे गुप्त रोगों का इलाज शर्तीया तौर से और गुप्त तरीके से करते हैं.. उम्मीद है कि वे इस्तिहार जो पिछले आठ सालों में नहीं बदले थे वह पिछले आठ महिनों में भी नहीं बदले होंगे..

खैर यह हो ना सका, मैं घर जा नहीं पाया.. कार्यालय में कुछ अच्छा अवसर मिलने के लालच में अपना घर जाना स्थगित किया था वह कल मुझे मिल गया.. शायद आज से 3-4 महिने पहले यह मिला होता तो मैं बहुत खुश हुआ होता मगर जिस चीज का कई महिनों से मैं इंतजार कर रहा था वह मेरे घर जाने की छटपटाहट के कारण मुझे खुशी नहीं दे पा रहा है..

अपना शहर, अपना घर, अपने लोग... जाने क्यों यह किसी चुम्बकत्व शक्ति के जैसे अपनी ओर खींचता है.. यह मेरी समझ के बाहर है.. अभी-अभी कुछ दिन पहले पापा-मम्मी चेन्नई से आकर गये हैं, फिर भी यह मुझे अपनी ओर खींच रहा है.. इस बार यह खिंचाव शायद शहर कि तरफ से है.. या फिर मेरे बेटे कि तरफ से है..

खैर जो भी हो, कार्यालय कि गोपनीयता के चलते मैं यह तो नहीं बता रहा हूं कि मुझे क्या अवसर मिले हैं मगर आप कम से कम मुझे बधाई तो दे ही सकते हैं.. :)

इस बार भी मैं अपनी कड़ी को पूरा नहीं कर पा रहा हूं और शायद अगले पोस्ट में भी नहीं कर सकूंगा.. मगर उसके बाद का पोस्ट में आप मन में लड्डू फूटने का अंतिम अध्याय जरूर पढ़ेंगे..

Monday, April 27, 2009

बारिश

कई दिनों से बारिश नहीं हुई..
मन रीता सा लगता है..
अगर बारिश हो जाये तो
अपनी यादों को अच्छे से खंघालूं..
जो पुरानी यादें हैं उसे धो डालूं..
और रख दूं सूखने धूप में..
तब तक उसे सुखाता रहूं,
जब तक पुरानी यादों का दर्द उड़ ना जाये..
आखिर ये शरीर भी तो मांगता है,
बिना दर्द का मन....


अचानक से दोस्तों को मेल लिखते हुये यह कुछ पंक्तियां भी लिख डाला.. आज इसे ही पढ़ लिजिये, बेटा मन में लड्डू फूटा कथा का अंतिम भाग कल सुनाता हूं.. :)

Saturday, April 25, 2009

बेटा मन में लड्डू फूटा (पार्ट दो)

एक दिन "एक्स डियो" का एड देखा.. मन को बहुत भाया.. बस एक बार डियो लगाओ और सारी लड़कियां मेरे पीछे भागेगी.. मैंने प्रचार में देखा भी था कि एक्स डियो थोड़ा सा नहीं लगाया जाता है.. उसे तो ऐसे लगाते हुये दिखाता है जैसे उसी से नहा रहा हो.. मैंने भी तुरत जाकर एक एक्स डियो खरीदा.. पानी और साबुन से रगड़-रगड़ कर नहाने के बाद उस डियो से फिर से अच्छे से नहाया.. आजकल टूटे पैर कि वजह से एम.टी.सी(मद्रास ट्रांस्पोर्ट कॉरपोरेशन) का प्रयोग कर रहा हूं, सो निकल लिया ऑफिस के तरफ जाने वाली बस पकड़ने के लिये..

बस में चढ़ते ही मेरी नजर तो बस भटक रही थी कि शायद बस अभी कोई खूबसूरत सी लड़की अपना फोन नंबर देगी.. आस-पास की लड़कियां तो मेरी ओर देख ही रही थी और जैसे ही मैं उनके पास से गुजर रहा था वैसे ही उनके चेहरे का भाव भी बदल रहा था.. मैं खुश.. समझ गया कि यह जरूर डियो का ही असर है.. सोच, चलो इस बार तो काम बना.. मगर किसी ने अपना नंबर नहीं दिया.. मुझे इस बात कि भी खुशी हुई कि चलो अभी तक अपनी तथाकथित भारतीय संस्कार भी बचे हुये हैं.. अब तक मैं ऑफिस पहूंच चुका था.. जैसे ही ऑफिस के अंदर गया मेरे एक मित्र ने मुझे रोक कर यूं ही मजाक उड़ाते हुये पुछ, "कितने दिनों से नहीं नहाये हो भाई?" मैं चौंक गया और पूछा, "क्यों?" उसका कहना था कि इतना डियो तो बस वही लगाता है जो 3-4 दिनों से नहाया ना हो..

बस मेरी सारी खुशी हवा हो गई और अब जाकर समझ में आया कि वे सभी मुझे इतना घूर-घूर कर क्यों देख रही थी.. फिर पूरे दिन भर बस यही कोशिश करता रहा कि मैं जिस हद तक हो सके सभी से दूर ही रहो.. कोई और भी वैसा ही ना समझ ले.. मैं अक्सर रात में बहुत देर से घर आता हूं.. मेरे घर के आस-पास घूमने वाले आवारा कुत्ते भी मुझे मेरी शक्ल से नहीं मेरी गंध से पहचानते हैं.. अब 11 बजे रात में घर पहूंचा.. वहां के आवारा कुत्तों ने भी पहचानने से इनकार कर दिया.. गलती उनकी भी नहीं थी, बेचारों ने कभी शक्ल देखी ही नहीं है.. कुत्ता भी साला कुत्ता निकला.. आव ना देखा ताव बस दौड़ा दिया.. अब टूटे पैर से कैसे दौड़ा ये मैं ही जानता हूं या मेरा बेचारा पैर.. मन ही मन एक्स डियो वालों को गालियां देता हुआ जैसे तैसे घर पहूंचा..

अब अखिरी किस्से में मन में लड्डू फूटने कि कथा भी सुने.. यह कथा जो भी सुनता है उसके सात पुस्तों तक पुण्य का लाभ होता है.. :)

Thursday, April 23, 2009

अथ श्री बेटा मन में लड्डू फूटा कथा (पार्ट एक)

मैं चकाचक सफेद टी-शर्ट के ऊपर नीले रंग का जींस चढ़ा कर क्रिकेट खेलने के लिये मैंदान में पहूंचा था.. अंततः मेरा दोस्त आऊट हुआ और मेरी बैटिंग आ ही गई.. मेरे भीतर पूरा आत्मविश्वास था और पहली ही गेंद पर सिक्सर लगा दिया.. अरे यह क्या गेंद तो पड़ोस वाले अंकल के घर में चला गया.. अब चूंकि सबसे ज्यादा सफेद और चमकदार कपड़ा मैंने ही पहना था.. रिन डिटर्जेंट से रगड़-रगड़ कर.. सो जाहिर सी बात है सबसे ज्यादा आत्मविश्वास मेरे ही भीतर था.. और कायदा यही कहता है कि जो बैटिंग कर रहा हो वही गेंद लेकर आये.. मैं निकला पूरे आत्मविश्वास के साथ और अंकल जी से गेंद मांगा.. अंकल जी एक छड़ी लेकर खड़े थे, बोले "बेटा सिक्सर मारेगा? हाथ आगे करो.." मैंने अपने आत्मविश्वास का प्रयोग करते हुये दोनों हाथ बढ़ा दिया और बोला, "अंकल अगला बॉल भी सिक्सर ही जायेगा.." अंकल जी ने कान पकड़ा और दनादन छड़ी कि बरसात कर दी.. पहले मेरा पिछवाड़ा मार-मार सुजा दिये और फिर गेंद देकर बोले, "जा बेटा.. अब जी भर कर सिक्सर मारना.." अब काहे का सिक्सर भैया? चला भी नहीं जा रहा था..

कथा पूर्ण नहीं हुई है.. कल भी आईयेगा..
इसके शीर्षक से यह ना समझें कि कथा कुछ और है और शीर्षक कुछ और.. कथा का अंत मन में लड्डू फुटने से ही होगा.. :)

कथा पसंद आने पर ऊपर अपनी पसंद पर क्लिक करना ना भूलें.. :)

Wednesday, April 22, 2009

टुकड़ों में बंटा पोस्ट

पहला टुकड़ा -
आज मेरे पापा-मम्मी कि बत्तीसवीं शादी कि सालगिरह है.. घर कि याद भी बहुत आ रही है..

दुसरा टुकड़ा -
कल ऑफिस में मुझे कुछ बहुत जरूरी काम है मगर ऑफिस आना बहुत मुश्किल लग रहा है.. आखिर कल तमिलनाडु बंद है.. अगर कल नहीं आया तो मुझे शनिवार को ऑफिस आना पड़ेगा, जो मैं नहीं चाह रहा हूं..

तीसरा टुकड़ा -
मैंने अभी घर(पटना) जाने का प्लान बना रखा था.. मेरी मित्र की शादी है 5 मई को कोलकाता में उसी के लिये.. बस इसी शादी में जाने के लिये मैं होली में भी घर नहीं गया था और अभी भी ऑफिस के चक्कर में मेरा जाना संभव नहीं हो पा रहा है.. बहुत लाचारी महसूस हो रही है.. :(

चौथा टुकड़ा -
यह कोई टुकड़ा नहीं है दोस्तों.. असल में आज कुछ लिखने का मन कर भी रहा है और नहीं भी कर रहा है.. तो सोचा कि क्यों ना कुछ लिखे भी दूं और ना भी लिखूं.. ;) और इसलिये मैंने यह टुकड़ों में बंटा पोस्ट ठेल दिया..

Sunday, April 19, 2009

मेरे बेटूलाल का पहला कदम

मेरा बेटूलाल अब बिना किसी कि सहायता के सरकना सीख लिया है.. अभी कुछ दिन पहले मेरे पापा-मम्मी यहाँ चेन्नई मेरे पास आये हुए थे और इसी बीच मेरा बेटूलाल(भैया का बेटा शाश्वत प्रियदर्शी) ने बिस्तर के बाहर अपना कदम फैलाना शुरू कर दिया.. यहाँ एक वीडियो भैया ने उपलोड किया है जिसे मैं यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ.. :)

Saturday, April 18, 2009

अथ हिंदीभाषी कथा इन चेन्नई भाग दो

मेरा पिछला पोस्ट पढ़कर मेरे अधिकतर मित्रों ने कमेंट के द्वारा रोष ही प्रकट किया है.. चाहे वह तमिल या किसी अन्य प्रादेशिक भाषा को लेकर हो या फिर लोग किसी प्रदेश में जाकर भी वहां कि भाषा-संस्कृति को लेकर अपना सम्मान नहीं दिखाते हैं उसे लेकर..

पहला कमेंट ही कुछ ऐसा था जो PN Subramanian जी ने लिखा था, "रोचक अनुभव. करोड़ों दक्षिण भारतीय उत्तर में अपनी रोजी रोटी में लगे हैं. उन्हें कोई परेशानी नहीं है. लेकिन अब जब कुछ उत्तर वासियों को दक्षिण जाना पड़ रहा है तो बड़ा हाय तौबा मचा दिया, ऐसा क्यों? यह आपकी मानसिकता का प्रतिबिम्ब है." मुझे बस यह समझ में नहीं आया कि मेरी मानसिकता का पता इतनी आसानी से वे कैसे लगा लिये और व्यक्तिगत आक्षेप लगाने में भी नहीं चूके.. मैंने कहीं भी ये नहीं लिखा था कि मुझे चेन्नई पसंद नहीं या तमिल से मुझे चिढ़ है.. मैं उन्हें उनका चिट्ठा मल्हार से जानता हूं और एक विवेकशील समझता था और अभी भी समझता हूं.. खैर, यह उनकी सोच है..

रंजना [रंजू भाटिया] जी ने लिखा, "रोचक अनुभव है यह ..पर अब जिस तरह से नौकरी के लिए कहीं भी जाना पड़ सकता है तो बिना किसी भेद भाव के वहां कि भाषा का ज्ञान हो तो अच्छा है.." बिलकुल सही कहा आपने.. मगर भाषा कोई भी हो, उसे सीखने में समय लगता है.. और जब बात तमिल की हो, जो एक ऐसी भाषा है जिसका देवनागरी लीपी से कोई संबंध नहीं है तो, ऐसे में उसे सीखने में उत्तर भारत से आये लोगों को समय लगता ही है..

रवि रतलामी जी ने अपना अनुभव भी सुनाया वेल्लोर शहर का.. मैंने अपने कालेज का समय वेल्लोर में ही बिताया है और कालेज में मेरे बैच में एक भी तमिल भाषी विद्यार्थी नहीं था.. अब ऐसे में पूरे ढ़ाई साल मुझे ना तो तमिल सीखने का मौका मिला और पूरा समय हिंदी और अंग्रेजी के सहारे ही बिताना पड़ा.. मैं अभी तक तमिलनाडु में जितने भी शहर में गया हूं उसमें वेल्लोर में ही सबसे अधिक हिंदी भाषी लोग मिले हैं.. क्योंकि वहां का व्यवसाय पूरी तरह से उत्तर भारत से आने वाले मरीजों और विद्यार्थियों पर निर्भर है..

कविता वाचक्नवी Kavita Vachaknavee जी ने कहा, "आपने जिस प्रकार के उदाहरण दिए हैं वे एकतरफ़ा हैं, मानो,जिसने तमिलनाडु तो क्या केवल मद्रास को भी पूरा ठीक ठीक पूरा नहीं जाना।" जी बिलकुल सही पहचाना.. अभी जानने सीखने कि प्रक्रिया से ही गुजर रहा हूं.. सच कहूं तो मैं अभी तक अपने जन्म स्थान दरभंगा को भी ठीक से नहीं जान सका हूं..

अनिल जी ने लिखा, "मेरा दोस्त तो तमिलनाडु में हिंदी बोलने पर पिट चुका है! कभी फुरसत से पढ़ियेगा।" उनके मित्र का अनुभव सच में बहुत भयावह है मगर फिर भी उनसे मेरा कहना है कि दोस्त, अच्छे और बुरे लोग तो हर जगह मिलते हैं.. अगर हम चंद बुरे तमिलभाषी लोगों के चलते हम पूरे तमिलभाषी को ही कठघरे में खरा कर दें हमारी मानसिकता और उनकी मानसिकता में कोई अंतर ही नहीं रह जायेगा..

चलते-चलते मैं अपना एक और अनुभव भी सुनाता चलता हूं.. मैं अभी तक जितने भी तमिल लोगों के संपर्क में आया हूं उसमें से अधिकतर स्वभाव के बहुत विनम्र हैं और मित्रवत भी हूं.. ऑफिस में भी अधिकतर ऐसा होता कि दोपहर के खाने के समय वे मुझसे टूटी-फूटी हिंदी में पूछते हैं, "खाना खाने चलो" और मैं उन्हें जवाब देता हूं, "पोलामा.."(मतलब चलिये)....

Friday, April 17, 2009

अथ हिंदीभाषी कथा इन चेन्नई

पिछली कथा पढ़कर घुघुती जी ने मुझसे यह उम्मीद जतायी कि मैं जल्द ही यहां हिंदी बोलने के ऊपर कि कोई कथा लेकर आऊंगा, तो लिजिये हाजिर हूं.. इसके कयी छोटे-छोटे अध्याय हैं और सभी अद्याय अपने आप में संपूर्ण.. तो चलिये आपको यहां कि भाष के साथ अपने और अपने मित्रों के कुछ हिंदी से जुड़े दिलचस्प और कड़वे अनुभव सुनाता हूं..

अध्याय एक -
मेरा एक मित्र जब पॉडिचेरी घूम रहा था तब उसे एक ट्रैफिक पुलिस ने पकर लिया.. पुलिस का कहना था कि आप वन वे में हैं और मेरा मित्र का कहना था कि यहां कहां लिखा हुआ है कि यह वन वे है? उसने उसे साईन बोर्ड दिखाया जिसमे तमिल में लिखा हुआ था.. मेरे मित्र ने उसे कहा कि उसे तमिल कि समझ नहीं है, तो उस पर उस पुलिस वाले ने कमेंट करते हुये कहा कि तमिल नहीं आती तो तमिलनाडु में क्यों आये? मेरे मित्र ने उस समय उससे बहस के मूड में नहीं था लेकिन बाद में उसका कहना था कि अगर इन्हें हिंदी नहीं आती तो भारत में क्या कर रहे हैं? इन्हें श्रीलंका ही भगा देना चाहिये..

अध्याय दो -
यहां तमिलनाडु में रहते हुये हमने सबसे पहले एक से दस तक तमिल में गिनती सीख ली.. जब शुरूवात में चेन्नई आये थे तब मैं और मेरा मित्र शिवेन्द्र बस से ऑफिस तक का सफर साथ-साथ किया करते थे.. हम जब भी अंग्रेजी में कंडक्टर को कहते थे कि, "अन्ना टू टिकट!! पौंडिबाजार".. तो तमिल में उत्तर आता था.. एक दिन हममे से किसी ने टिकट के लिये कंडक्टर को तमिल में कहा, "अन्ना रंड टिकट!! पौंडिबाजार".. उधर से जवाब आया, "दो टिकट चाहिये?" ;)
(तमिल गिनती में रंड का मतलब दो होता है)

अध्याय तीन -
मेरी एक मित्र का हमेशा कहना होता है कि, "यहां बाजार में कहीं चलते हुये अगर् किसी को हिंदी बोलते हुये सुन लो तो झट से आंखों कि बत्ती जल जाती है.. अरे, ये तो नोर्थ इंडियन है.." ;)
जी हां, यह बिलकुल सच है.. यहां के लोग अपनी भाषा को बिलकुल पकर कर रहते हैं और किसी भी हालत में उसे छोड़ना पसंद नहीं करते हैं.. अगर उन्हें हिंदी आती भी है तो हिंदी ना समझने का नाटक करते रहते हैं.. वैसे अब धीरे-धीरे यह मानसिकता खत्म हो रही है.. खासतौर से उन लोगों का अनुभव जिन्हें हिंदी नहीं आती है और कभी उत्तर भारत चले गये हों तो उनकी परेशानी का कोई ठिकाना नहीं रहा था..

अभी कुछ दिन पहले यहां के एक लोकल समाचार पत्र में मैंने पढ़ा था कि अब यहां के लोग अपने बच्चों को तमिल के साथ-साथ हिंदी भी सिखाने के लिये आगे आ रहे हैं.. क्योंकि अब उन्हें भी समझ में आ रहा है कि इस ग्लोबलाईजेशन के समय में हो सकता है कि उनके बच्चों को उत्तर भारत में जाकर काम करना परे.. उस रिपोर्ट में यह भी था कि यहां के बुजुर्ग जो तमिल भाषा को बिलकुल पकड़ कर बैठे हुये हैं, वे इसे तमिल के ऊपर हिंदी का हमला मान रहे हैं मगर उनके पास भी कोई दूसरा विकल्प नहीं है..

Wednesday, April 15, 2009

अथ टैक्सी चालक कथा

अध्याय एक :
स्थान - लखनऊ के आस-पास(कौन सा हिस्सा मुझे पता नहीं.. ;))
मास - फरवरी, 2009

मेरे पापाजी किसी वर्कशॉप में वहां गये हुये थे.. वहां उन्होंने टैक्सी किया और उससे टैक्सी के किराये के बारे में पूछने पर उसने कहा कि साहब आप यहां आये हैं तो आपसे किराया लूंगा थोड़े ही ना? यह कह कर उसने जबरदस्ती किराया नहीं लिया और वो हर जगह पहूंचाया जहां उन्हें काम था और अपनी मर्जी से कुछ दुकानों में भी घुमाया कि यहां कि प्रसिद्ध चीज इन दुकानों में मिलती है(अब पापाजी वहां कुछ खरीदे या नहीं यह तो वही जाने).. कुछ दिन बाद जब पापाजी का काम खत्म हो गया और वो फिर उस टैक्सी वाले को कहे स्टेशन चलने को तो उसका टका सा जवाब था कि साहब गाड़ी खराब हो गई है.. फिर उस जगह के टैक्सी चालकों के बारे में पता करने पर पता चला कि वहां कोई भी आता है तो उसे ऐसे ही टैक्सी वाले मुफ़्त में घुमाते हैं और उन दुकानों में भी ले जाते हैं.. उस दुकान में मात्र ग्राहक पहुंचाने का उसे 300-400 तक कमीशन मिलता है और अगर किसी ने कुछ खरीदा तो जितनी कि खरीददारी उसने की उस पर 20%-30% का कमीशन ऊपर से मिलता है..

अध्याय दो :
स्थान - ऊंटी
मास - मार्च, 2009

हम तीन मित्र और मेरे मित्र के पिताजी ऊटी घूमने के लिये निकले थे.. वहां टैक्सी का हर दाम लगभग तय था, चाहे आप किसी भी टैक्सी चालक से पूछो सभी का दाम फिक्स था.. उस समय ऑफ सीजन होने के चलते एक दिन का 1000 रूपये और अगर कोई दिनभर ऊंटी घूमने के साथ शाम में मेट्टुपलयम रेलवे स्टेशन तक वापस भी जाना चाहता हो तो 1100/-. अब जहां दाम फिक्स हो तो बेईमानी की उम्मीद भी कम हो जाती है.. ड्राईवर टैक्सी लेकर आया और अच्छे से बातचीत करते हुये निकल पड़ा.. कुछ दूर तक तो सामान्य लहजे में बात करता रहा और अचानक से ही बिलकुल प्रोफेशनल तरीके से बोला, "गुड मौर्निंग सर, अब आप लोग ऊटी के के मशहूर गोल्फ क्लब के सामने से गुजर रहे हैं.. यहीं रोजा सिनेमा की शूटिंग हुई थी.........ब्लाह.....ब्लाह.........." उसके बाद हर दूसरे-तीसरे जगह पर पैसा मांगना शुरू कि यहां पार्किंग का इतना लगेगा तो यहां टिकट का इतना लगेगा.. हमने जब उस सबका टिकट के साथ हिसाब मांगना शुरू किया तो बगलें झांकने लगा..

अध्याय तीन :
स्थान - चेन्नई
मास - अप्रैल, 2009

अभी मेरे पापा-मम्मी यहां मेरे पास आये हुये हैं.. पहले तो सोचा था कि तिरूपति तरफ ले जाऊंगा मगर टूटे पैर के साथ यह संभव नहीं है, तो सोचा क्यों ना यहीं आस-पास की जगहों को दिखा दिया जाये.. कल तमिलनाडू में तमिल न्यू ईयर के कारण कार्यालय भी बंद था, सो मुहुर्त भी अच्छा.. एक टैक्सी बुक करके निकल पड़े.. टैक्सी वाला नेपाल का रहने वाला था और स्वभाव का भी कुल मिलाकर अच्छा था.. दिनभर अच्छे से घुमाते हुये शाम में कांचीपुरम पहुंचे.. वहां पापा-मम्मी मंदिरों के दर्शन किये.. फिर उसने बताया कि आपको सिल्क फैक्टरी घुमाता हूं.. हमने सोचा कि शायद कोई घूमने की जगह होगी.. वहां पहूंच कर अंदर जाने पर पता चला की यह तो कांचीवरम् साड़ियों कि एक दुकान भर है जिसे वह सिल्क फैक्टरी कह रहा था.. हमने वहां से कुछ खरीदा तो नहीं क्योंकि हमारी शौपिंग एक दिन पहले ही चेन्नई के सुप्रसिद्ध दुकान नल्ली में हो चुकी थी.. मगर अनुमान लगाया कि शायद वहां भी उसका कमीशन फिक्स ही रहा होगा..

ऐसे अनगिनत अध्याय पड़े हुये होंगे हम सभी के यादों के किसी कोने में.. और यह टैक्सी कथा यूं ही आगे चलता ही रहेगा.. :)

Monday, April 13, 2009

ताऊ का तोता हिरामन या पोपटलाल?


कुछ साल पहले कि बात है.. कौन बनेगा करोड़पति बिलकुल सुपर-डुपर हिट टीवी का प्रोग्राम था.. ताऊ के घर में भी बहुत प्रसिद्ध था यह.. ताऊ, ताई, सैम, बीनू-फिरंगी, हिरामन, रामप्यारी.. सभी साथ बैठकर कौन बनेगा करोड़पति देखा करते थे और साथ में करोड़पति बनने के सपने भी देखते थे.. सभी सपने में सोचते थे कि कभी हमें भी इस हॉट सीट पर बैठने का मौका मिलेगा.. उस हॉट सीट का उन्हें दो फायदा दिखता था.. पहला पैसा कमाने का मौका लेकिन दूसरा सबसे बड़ा फायदा अमिताभ बच्चन के साथ बैठने का मौका मिलना.. मगर कभी करोड़पति का फोन नंबर लगने की बात तो दूर आज तक उन्हें कभी किसी मित्र ने फोन अ फ्रेंड में भी फोन नहीं किया.. मगर वे सभी तो थे धुन के पक्के.. इंतजार करना नहीं छोड़े..

अब एक दिन की बात है.. एक फोन आया और उसे संयोग से हिरामन तोते ने उठाया.. उधर से अमिताभ बच्चन जैसी आवाज थी..

"मैं अमिताभ बच्चन बोल रहा हूं कौन बनेगा करोड़पति से.. क्या पोपटलाल है?"

हिरामन सोचा कि मैं तो हिरामन हूं, सो बोला "नहीं".. इससे आगे कुछ कहता उससे पहले ही उधर से फोन रख दिया गया..

दुबारा फिर से फोन आया, "मैं अमिताभ बच्चन बोल रहा हूं कौन बनेगा करोड़पति से.. क्या पोपटलाल है?"

फिर से हिरामन ने कहा, "नहीं" और फिर से फोन रख दिया गया..

एक बार फिर फोन आया, "मैं अमिताभ बच्चन बोल रहा हूं कौन बनेगा करोड़पति से.. क्या पोपटलाल है?"

अबकी हिरामन समझ गया कि हो ना हो कोई ऐसे ही परेशान कर रहा है. आखिर ताऊ का तोता था सो होशियारी उसमें कूट-कूट कर भड़ी हुई थी.. उसे गुस्सा भी खूब आया, मगर वो पूरी धीरता से फोन का जवाब दे रहा था..

ऐसे ही करके 6-7 बार फोन आया और हर बार यही पूछता और जैसे ही हिरामन 'नहीं' कहता वैसे ही फोन रख दिया जाता.. अब तक हिरामन बहुत गुस्से में आ गया था, मगर उसने खुद को संभालते हुये सोचा कि जब सामने वाला मजाक कर रहा है तो मैं भी क्यों ना थोड़ा सा मजाक कर लूं..

अबकी बार जैसे ही फोन आया और उधर से आवाज आयी, "मैं अमिताभ बच्चन बोल रहा हूं कौन बनेगा करोड़पति से.. क्या पोपटलाल है?" वैसे ही हिरामन बोला.. "हां.. पोपटलाल है.."

उधर से आवाज आयी,"गलत जवाब.. पोपट लाल नहीं पोपट हरा होता है.." और फिर फोन नहीं आया..

इधर हमारा हिरामन गुस्से से लाल होकर अपना शक्ल आईने में देख कर सोच रहा था कि मैं तो पोपट ही हूं और गुस्से से लाल भी.. तो जवाब गलत कहां था? जवाब तो सही था.................

Thursday, April 09, 2009

करोड़पति बनने का ऊपाय नंबर टू

अभी हफ्ते भर भी नहीं बीता है जब मेरा एक मित्र कम से कम छः महिने के लिये अधिकतम पता नहीं कितने समय के लिये ऑनसाईट के लिये ऊड़न-छू हो गया.. उसने इंगलैंड का रूख किया है.. मुझे जैसे ही पता चला की हमारे भाईजान(इनका नाम अफ़रोज है मगर हम दोस्तों के बीच यह भाईजान के नाम से ही प्रसिद्ध हैं) यू.के. की ओर रूख कर रहे हैं मैं तुरत-फुरत में उनसे अपना दुखड़ा लेकर बैठ गये..

मैंने कहा, "भाईजान! आपको पता नहीं है.. हम यहां गरीबी में किसी तरह दिन काट रहे हैं और उधर मेरा करोड़ों का माल यू.के. में अटका हुआ है.. अब तो मेरी सारी उम्मीद आप पर ही टिकी हुई है.."

"क्या हुआ भाई? पहले कभी इस बारे में चर्चा नहीं किये थे?" उनका उत्तर था..

"किस मुह से कहते? और बताने का कुछ फायदा भी तो नहीं था.. मगर अब जबकी आप यू.के. जा रहे हैं तो आपसे बहुत उम्मीदें हैं कि आप मेरा फंसा हुआ पैसा मुझे दिलवा सकते हैं.."

अब तक हमारे भाईजान की आंखें गोल-गोल होकर फैल चुकी थी और वह बहुत उत्सुकता से मेरी बात सुनने लगे थे..

"भाई क्या बताऊं, हर दिन कम से कम दो-तीन मेल मेरे इन्बॉक्स में तो आ ही जाता है कि आप 1 मिलियन पाउंड जीत गये हैं.. वो आता है यू.के.लॉटरी की तरफ से और मैं इतनी बड़ी रकम को लेकर कोई रिस्क नहीं लेना चाहता हूं सो इ-मेल पर उनसे बात करने में हिचकता हूं.. अब तुम यू.के. जा ही रहे हो तो जरा उसके बारे में भी पता करते आना.. तुम्हें बहुत दुवायें मिलेगी.."

अब मेरा इतना कहना था की वो लगा खीसें निपोरने.. "क्या भाई.. तुम भी बढ़िया मजाक कर लेते हो.." उसका इतना कहना था कि मैं समझ गया, वो इतनी आसानी से यह काम नहीं करने वाला है.. आखिर भारतीय ट्रेंड है कि किसी को भी खुश देख लो चलेगा मगर अपने खास दोस्तों के लिये तो हमेशा परेशानी ही पैदा करो.. थोड़ी धमकी भी दिया और थोड़ा दोस्ती की दुहाई देकर ईमोशनल अत्याचार भी किया.. साम-दाम-दंड-भेद, सभी अपना लिया उस पर.. उसे यहां तक कहा कि हर दिन जो मैं पैसे जीतता हूं उसमें 60% तुम्हारा..

अंत में जाने से पहले उसने कुछ कहा नहीं.. और हम तो कुछ नहीं का मतलब मूक सहमती ही समझते हैं.. सो अब इंतजार में बैठा हूं कि कब वह उसके बारे में पता करता है और कब मैं करोड़पति बनता हूं.. लेकिन जिस दिन करोड़पति बन गया मैं अपने ब्लौगर दोस्तों को भी नहीं भूलूंगा.. एक जबरदस्त पार्टी जरूर दूंगा.. सो अब आप लोग भी मेरे लिये उस पार्टी की खातिर दुवायें मांगना शुरू कर दिजिये.. ;)


इस चित्र को बड़ा करके देख सकते हैं यू.के. लॉटरी के बारे में..

Tuesday, April 07, 2009

कड़ोड़पति बनने की ओर अग्रसर

अभी हाल फिलहाल में दो ऐसी घटना घटी है जिससे मुझे अब ऐसा लगने लगा है कि मैं जल्द ही कड़ोड़पति बनने जा रहा हूं और वो भी अपने इस जीमेल और ब्लौग के कारण.. चलिये मैं अपनी बात आपके सामने सिलसिलेवार ढ़ंग से रखता हूं..

1. अभी कुछ दिन पहले की बात है.. मैं द्विवेदी अंकल के अनवरत ब्लौग पर यूं ही टहला-टहली कर रहा था कि मैंने देखा उनके ब्लौग की कीमत.. आंखें फैल कर चौड़ी हो गई, "अरी तोड़ी की.. द्विवेदी अंकल इत्ते पैसे वाले हैं और हमें पता ही नहीं?" फिर सोचा की हम अपना चिट्ठा भी देख ही डालते हैं.. हम कितने पानी में हैं यह अभी पता चल जायेगा..
जो हमने देखा वह आप भी देखिये.. आपकी भी आंखे हमारे जैसी ही आप मेरा आंकड़ा देखेंगे.. नीचे के स्नैप शॉट पर जरा गौर फरमायें..


सबसे आश्चर्य की बात है कि कई ऐसे चिट्ठे जो मेरे चिट्ठे से ज्यादा पढ़े जाते हैं उनकी कीमत भी मेरे चिट्ठे की कीमत से कम दिखा रहा है.. वहीं कई ऐसे भी चिट्ठे हैं जो मेरे अनुमान से कम पढ़े जाते हैं मगर उनकी कीमत मेरे चिट्ठे से ज्यादा दिखा रहा है.. ऐसा क्यों? यह तो पता नहीं..

मैंने कुछ और भी ब्लौगों का आंकड़ा देखा, उन सबकी कीमत इस प्रकार है (बाकी लोग अपनी कीमत का अंदाजा यहां इस लिंक से लगायें :))-

अनवरत - 1,273,804
उड़न-तस्तरी - 917,156
मोहल्ला - 1,331,671
ताऊ जी का हरियाणवी ताऊनामा - 1,889,893
सभी आंकड़े अमेरिकन डॉलर में है..

मैंने लगभग साल भर पहले इस विषय से संबंधित एक और पोस्ट लिखी थी, जो किसी और साईट से छनकर आती थी.. वह पोस्ट आप यहां पढ़ सकते हैं.. कहने को चाहे जो कुछ भी कहें हम तो अभी से ही ख्याली पलाव पकाने लगे हैं.. ;)

क्या हमारा दुसरा राज भी आज ही जानना है? अरे मित्रवर इसके लिये आप कम से कम एक दिन का इंतजार कर ही लिजिये.. कल पक्के से आपको अपने कड़ोड़पति बनने का दुसरा राज बताने वाले हैं जो बिलकुल अचूक है.. :)

Friday, April 03, 2009

उसका यूं ही चले जाना किसी मौत से कम नहीं था

वो कब इस जीवन में आयी और कब चली गई कुछ पता ही नहीं चला.. ऐसा लगता है जैसे जीवन के पांच साल यूं ही हवा में उड़ गये.. जीवन के सबसे खुशनुमा पांच साल.. उसकी कमी आज भी खलती है.. मन उदास भी होता है.. उसके वापस आने की कल्पना भी करता हूं.. मगर उसे पाने की कामना नहीं करता हूं.. उसके साथ जीवन के कयी खूबसूरत रंग देखे थे.. किसी के प्यार में आना क्या होता है यह भी उसका साथ पाकर ही जाना था.. उस प्यार का पागलपन.. उस प्यार की गहराई.. उस प्यार का अंधापन.. उस प्यार का दर्द.. वहीं उसके यूं ही चले जाने के बाद ही यह भी जाना की जिसे अंतर्मन से आप चाहते हैं और उसके बिना एक पल भी गुजारने का ख्याल भी डरा जाता हो, उसके अचानक यूं ही चले जाना.. बिना कुछ कहे.. बिना कोई कारण बताये.. शायद किसी अपने की मौत भी तो यूं ही होती है.. कहने को कई बातें होती है.. जिन बातों पर बहस होती थी उन्ही बातों को फिर से सुनने के लिये कान तरस जाते हैं.. अपनी भूल के लिये आप माफी मांगना चाहते हैं.. मगर कुछ कर नहीं सकते.. बस एक छटपटाहट अंदर तक रह जाती है जो अनगिनत रातें आपको पागलों कि तरह जगाती है.. तुम्हारे जाने से दुनिया को एक अलग नजरीये से भी देखा.. कई बुराईयां जिनसे दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं था, उन्हें भी अपना लिया.. मगर शायद पहले से अच्छा इंसान हो गया.. लेकिन उससे क्या तुम्हारी कमी पूरी हो गई? मुझे पता है कि उत्तर तुम नहीं दोगी.. यहां जो नहीं हो.. मगर क्या यहां होने पर भी उत्तर देती? नहीं.. उत्तर हम दोनों को ही पता है.. नहीं.. क्यों चली गई तुम यह सवाल आज भी अंदर तक मुझे खाता है.. उस बेचैनी को धुंवे तले छिपाने की नाकाम कोशिशें भी करता हूं.. अक्सर कईयों से यह सुना है कि जब उदास हो तो उन पुरानी यादों को याद करना चाहिये जब हम बेवजह खुश हुआ करते थे.. मगर मैं किन यादों को याद करूं? सभी बेवजह की खुशियां भी तो तुमसे ही थी, जिन्हें तुम साथ ले गई.. हां! शायद दुनिया के लिये तुम हो इसी दुनिया में कहीं, मगर मेरे लिये तो तुम्हारा यूं ही चले जाना किसी मौत से कम नहीं है..

Wednesday, April 01, 2009

अप्रैल फूल नहीं बना रहा हूं, सच्ची में टांग टूट गया :(

अप्रैल फूल नहीं बना रहा हूं, सच्ची में टांग टूट गया.. एक फ्रैक्चर पैर के कानी अंगुलीवाली हड्डी में हो गया.. शनिवार की रात एक ऑटो वाले ने ठोंक दिया और हो गया मेरा पैर शहीद.. मेरे दोस्तों और मेरा भला चाहने वाले भी खुश.. वाह!! फिर से मौका मिला है अपना शोक अदा करने का.. तो चलिये पूरी घटना जरा विस्तार से जानते हैं.. अपनी इस अकेली टांग को ब्लौग में टांग ही देते हैं.. जिससे आने वाली हिंदी ब्लौग पीढ़ी हमेशा याद रखे की एक थे पीडी और एक था उनका टूटा टांग.. इस बेचारे टांग को हिंदी ब्लौग जगत में अमर करने में मेरी सहायता करें..

चलिये जानते हैं कि इस पर लोगों की प्रतिक्रिया किस-किस तरह की रही..

सबसे पहले तो यह बता दूं कि यह एक्सिडेंट शनिवार रात को हुयी.. और जब रविवार को मेरा मित्र विकास मेरा नंबर अस्पताल में लगाने गया तो उसे पता चला की आज बस इमरजेंसी केस ही देखा जाता है.. सुनकर मन में ख्याल आया, "मतलब अगर किसी को डाक्टर की जरूरत रविवार को हो तो सबसे पहले वो अपने साधारण केस को इमरजेंसी का केस बनाये फिर अस्पताल का रूख करे.. तो इस हिसाब से मुझे ऑटो से नहीं ट्रक से ठुकवाना चाहिये था.."

मेरी भाभी ने मुझे चिढ़ाते हुये कहा की शादी कर लिये होते तो वहां पर सेवा करने के लिये कोई तो होता? यह सुनते ही मुझे बचपन की एक बात याद आ गयी.. छुटपन में जब पापाजी बोलते थे की सेवा कर दो तो हम तीनों भाई-बहन उनके पैर पर चढ़ कर उछल-कूद मचाने लगते थे.. ये सोचकर ही मेरी रूह तक कांप गयी.. ना भाई ना.. टूटे टांग की कोई ऐसे सेवा करे उससे अच्छा तो हम खुद ही अपनी देखभाल कर लेंगे.. ;) शादी-वादी से हम दूर ही भले.. :)

मेरे एक सहकर्मी ने मुझे सुझाया की किसी अस्पताल में एक रूम खरीद ही लो.. बार-बार के झंझट से छुटकारा मिल जायेगा.. उनकी इस बात पर हम गहण विचार-विमर्श कर रहे हैं.. फिलहाल हम अपना फैसला सुप्रीम कोर्ट की तरह सुरक्षित रखे हुये हैं..

मेरे बॉस ने अपने बॉस वाले स्टाईल में ही मुझसे डेडलाईन की मांग कर बैठे.. मैंने उन्हें कहा कि वो अनालिसिस खत्म होने पर ही आपको दे सकूंगा.. उससे पहले टाईम एटीमेशन कैसे कर सकता हूं.. वो दर असल मेरी टांग के ठीक होने का टाईम एटीमेशन नहीं मांग रहे थे.. उनका कहना था की ऐसे ही जल्दी-जल्दी एक्सीडेंट करते रहे तो जल्द ही फिजिकल डिसेबल्ड वाला सर्टिफिकेट बनवा ही लोगे.. उससे बहुत सारे फायदे भी होंगे.. सो जल्दी से अपना डेड लाईन फिक्स कर ही लो.. ;)


कई मित्रों द्वारा बधाई संदेश भी आया.. पहली हड्डी टूटने की बधाईयां दे रहे थे.. वहीं मेरा एक मित्र जो यद-कदा अपनी हड्डियां तोड़ता ही रहता है वो दुखीः था.. अब वो अकेला जो नहीं रह गया है.. अब इस क्लब में मैं भी जो शामिल हो गया हूं..

पहले सोचा था कि अबकी बार जो टांग टूटा है, उसके बारे में मैं ब्लौग पर नहीं लिखूंगा.. सिर्फ अनूप जी और लवली को बताया था.. बस इतना ही काफी था और सभी को पता चल गया.. तो मैं भी इसका फायदा उठाते हुये एक पोस्ट का जुगाड़ कर लिया.. फिलहाल पैर को हवा में लटका कर ऑफिस का काम कर रहा हूं.. :)