Monday, November 26, 2007

मेरे मित्र का प्रणय निवेदन

"यार! ये प्राणाय क्या होता है?", शिवेन्द्र ने चीख कर पूछा।

"क्या? मैं कुछ समझा नहीं", मैंने रसोई में रोटीयां सेकते हुये चिल्ला कर पूछा साथ में रोटीयां बेलते हुये विकास ने भी पूछा।

"प्राणाय? प्राणाय?"

"पूरी बात बताओ तब समझ में आयेगा।"

"यहां लिखा हुआ है यह एक प्रणय कथा है--नहीं, नहीं!"

"अबे प्रणय कथा का मतलब लव स्टोरी होता है, हिंदी में कहो तो प्रेम कथा", मैंने कहा।

"और ये प्राणाय नहीं, प्रणय होता है", पीछे से विकास ने भी आवाज लगायी।

"मुझे कुछ-कुछ याद आ रहा है कि बचपन में हम अप्लिकेशन(आवेदन) लिखते थे की प्रणय निवेदन है कि.....", शिवेन्द्र ने कहा।

और उसके बाद हमलोगों का ठहाका रोके नहीं रूक रहा था। शिवेन्द्र बेचारा हक्का-बक्का होकर हमें देख रहा था कि उसने ऐसा क्या कह दिया। थोड़ी देर बाद मैंने उसे कहा, "अरे यार प्रणय निवेदन नहीं, सविनय निवेदन।" और फिर उसके चेहरे पर शर्मीली सी हंसी थी। फिर हमने उसे चिढाना चालू किया कि, "तुम अपने प्रिंसिपल को प्रणय निवेदन भेजते थे क्या?"

और फिर हमारे बीच ढेर सारी ब्लाह...ब्लाह...ब्लाह...ब्लाह...

हुआ ये था कि शिवेन्द्र ने मेरे और विकास के मुंह से ययाति की बड़ाई सुन कर उसे पढने के लिये उठाया था और उसके पहले पन्ने पर ही प्रणय शब्द पढकर उलझन में पर गया था। ये बात और है कि वो अभी भी उस पुस्तक को लेकर मैदान में डटा हुआ है। आप कृपया उसका उत्साह कमेंटस के द्वारा बढाये ताकि हिंदी पाठकों कि संख्या एक और बढे। धन्यवाद। :)

Friday, November 23, 2007

एक अजनबी सी मुलाकात, एक अजनबी से मुलाकात

मैंने वंदना को फोन किया और पूछा कहां हो तुम, उसने कहा कि 10 मिनट में आती हूं। उस समय सुबह के 10 बजकर 15मिनट हो रहे थे। हमने 10 बजे मिलने का समय तय किया था पर मैं 15 मिनट देर् से पहूंचा था और वंदना, जिसे मैंने पहले बता दिया था कि मैं 15 मिनट देर से आऊंगा, जो मुझपर पहले देर से आने के कारण गुस्सा हो रही थी वो मुझे फोन करके और 10-15 मिनट मांग रही थी। मैंने उसे आने को कहा और तब तक के लिये अपने मोबाईल पर अपनी पसंद के गानों को सुनने लगा। थोड़ि देर तक मैं 'द ग्रेट इंडिया मौल' के सामने वाले हिस्से में बैठा रहा और फिर सड़क वाले हिस्से में चला गया। लगभग 10:25 के आस-पास मुझे लगा कि कोई मुझे देख रहा है। ये मानव स्वभाव होता है कि जब कोई उसे एकटक देखता रहता है तो उसे इस बात कि अनुभूती हो जाती है। मैंने तेजी से अपनी नजर उधर डाल कर उसी तेजी से हटा भी लिया, मैंने पाया की कोई लड़की मुझे लगातार देखे जा रही है। मैं समझ गया कि वंदना ही है पर फिर भी मैंने ऐसे दिखाया कि मैंने उसे नहीं देखा। मैं उसे पूरा मौका देना चाहता था मुझे अचम्भित करने के लिये, क्योंकि मुझे पता है कि किसी को भी अचंभे में डालने पर हर किसी को प्रसन्नता का अनुभव होता है और मैं वही खुशी उसके चेहरे पर भी देखना चाहता था।



नोयडा मे ग्रेट इंडिया मॉल के सामने वाला मॉल


लगभग 2 मिनट के बाद मैंने देखा की वो आकृति मेरी ओर आ रही है तो मैंने पीछे मुड़ कर देखा और वंदना को देखकर मुस्कुराया। जब वो पास आयी तो पता नहीं मैं क्या सोच रहा था और पहले अभिनंदन करने का मौका उसे मिल गया। वो आसमानी रंग के सल्वार-समीज में आयी थी, चेहरे पर कोई मेक-अप नहीं था, चेहरे पर अंडाकार वाला चश्मा और बाल खुले हुये थे। मुझे अच्छा लगा, क्योंकि जब भी आप किसी ऐसे से मिलते हैं जिसके विचार आपसे मिलते हों तो उनसे मिलकर प्रसन्नता का अनुभव होना स्वभाविक ही है, क्योंकि मैं भी कोई कास्मेटिक प्रयोग में नहीं लाता हूं यहां तक की आफ्टर सेव लोशन भी नहीं रखता हूं। मिलने के बाद हाथ मिलाते हुये उसने कई बातें पूछी, जैसे शादी कैसी रही, अभी तक की यात्रा कैसी रही, इत्यादि। इधर-उधर की बातों से गुजरते हुये उसने मुझसे पूछा "आप तो मुझे गालियां दे रहे होंगे, मैं देर से जो आयी?" और मैंने अपने प्राकृतिक ढंग से उत्तर दिया "हां" और ये हमारे कालेज के दोस्तों के बीच बहुत सामान्य सा है, पर शायद उसे पहली मुलाकात में इसकी उम्मीद नहीं थी। शायद उसे इस तरह के उत्तर की आशा नहीं थी और ये भाव उसके चेहरे पर साफ झलक रहा था। फिर मैंने अपने उत्तर पर थोड़ी सी लीपा-पोती की, और उसने भी शायद मेरा साथ देने के लिये उस बात को वहीं छोड़ दिया। मैं जाने से पहले सोच रहा था की मैं कुछ भी उपहार लेकर नहीं जा रहा हूं और सच्चाई यही थी की वास्तव में मुझे उतना समय मिला भी नहीं था कि मैं उसके लिये कुछ ले पाता, पर वंदना नहीं भूली और मेरे लिये मेरी पसंदीदा मिठाई काजू की बर्फी लेती आई थी।

एक परिचयः


वंदना जी से मेरी मित्रता और्कुट के माध्यम से पिछले साल दिसम्बर में हुई थी। उस समय मैं दीदी के घर जयपूर गया हुआ था। उसके बाद कभी हमारी बातें हुई तो कभी नहीं हुई और हमारी मित्रता का स्वरूप बस किसी भी आम नेट फ़्रेंड तक ही था। धीरे-धीरे उसमे कब प्रगाढता आती चली गई इसका मुझे पता ही नहीं चला। आज ये चिट्ठा लिखते समय ना जाने क्यों अनायास ही मुझे वो बात याद आ गयी जब मैं जून में चेन्नई आया था और ट्रेनिंग में था और एक झेलाऊ लेक्चर में मैंने उनसे लगभग 2-3 घंटे चैट किया था। उसकी लम्बाई लगभग 590 पंक्तियां थी। मैंने अभी तक इनको जितना समझा है उस आधार पर ये तो जरूर कह सकता हूं कि ये स्वभाव से बहुत ही संवेदनशील हैं और विनोदिता में तो इनकी कोई सानी नहीं है। इनकी संवेदनशीलता का अंदाजा आप इनके चिट्ठे पर इनकी कविताओं से लगा सकते हैं। मैं इनका परिचय यहीं खत्म करता हूं क्योंकि अगर मैं इनके बारे में लिखता रहा तो मेरा चिट्ठा भी शायद पूरा ना पड़े।

मैंने उस समय से पहले ये तो जानता था कि वंदना जी हर चीज पर बहुत ही सूक्ष्म दृष्टि डालती हैं इसे प्रत्यक्षतः अपनी आंखो से उस दिन देख भी लिया। और बाद में मुझे पता चला कि मैंने जो भी देखा वो 10% भी नहीं था। मैं क्या कर रहा हूं, मैं क्या पढ रहा हूं, मैं क्या देख रहा हूं। हर चीज पर सूक्ष्म दृष्टि।



मुझे कभी ये सोचकर आश्चर्य भी होता है की कई चीजों के बारे में हमारे विचार इतना ज्यादा मेल क्यों खाते हैं जिसे हम अक्सर हंसी-मजाक में कहते हैं कि "फ़्रिक्वेंसी मैच" करना। जैसे इन्हें भी मौल संस्कृति पसंद नहीं है और मुझे भी उससे ज्यादा लगाव नहीं है, ये बात और है कि हमारी पहली मुलाकात नोयडा के एक शौपिंग मौल में हुई। ये भी नेट का कीड़ा हैं और मैं भी। अंकों को याद रखने में इनकी कोई सानी नहीं है और मुझे भी अंक बहुत याद रहते हैं। सबसे बड़ी बात तो ये है की हमारी दोस्ती औरकुट के जिस कम्यूनिटी में हुई थी उसमें हमारे उम्र के लोगों की दखल कम ही होती है क्योंकि वो बच्चों की कामिक्स वाली कम्यूनिटी है।

समय अपनी पूरी रफ़्तार से भागा जा रहा था, वंदना जी को 12 बजे कार्यालय के लिये निकल लेना था। पर उन्होंने अपने टिम के सदस्यों से बात करके उसे और बढा लिया। हमारे पास इतनी बातें थी कहने के लिये की वो समय भी कम हो गया था। मुझे बाद में वंदना जी ने कहा कि वो सोच रही थी की 12 बजे से पहले ही हमारी मीटिंग खत्म हो जायेगी पर ऐसा हुआ नहीं। मुझे तो जाना था ही और मैं वहां से 1:25 में निकला और पीछे छोड़ गया एक और यादों का सिलसिला। जिसे मैं कभी भूलाना नहीं चाहूंगा।

हम हर दिन पता नहीं कितने लोगों से मिलते हैं पर बहुत ही कम लोग अपने पद-चिन्ह छोड़ जाते हैं। और वंदना के पद-चिन्ह किसी रेत पर नहीं किसी पत्थर जैसी सख्त चीज पर है, जो शायद कभी नहीं मिटेगी।

Tuesday, November 20, 2007

एक क्षण

एक क्षण,
जब कुछ भी आपके लिये मायने नहीं रखता,
एक पल में सब अधूरा लगने लगता है..

ना जिंदगी से प्यार,
ना मौत से भय,
ना सुख का उल्लास,
ना दुख का सूनापन,
ना चोटों से दर्द,
ना सड़कों की गर्द..

निर्वाण की तलाश,
आप करना चाहते हैं,
पर मखौल उड़ाती जिंदगी,
खुद आपको तलाशती फिरती है..

एक क्षण में आपको,
दुनिया बदलती सी लगती है..
पर बदलता कुछ भी नहीं है..
बदलते तो आप हैं,
ये दुनिया आपको,
बदलने पर मजबूर कर देती है..

एक क्षण में,
आप खुद को,
लाचार महसूस करने लगते हैं..
एक क्षण में,
ना जाने क्या कुछ हो जाता है..

एक क्षण..



तस्वीर के लिए गूगल को आभार

Saturday, November 17, 2007

दिपावली कि छुट्टीयां

शुक्रवार का दिन था, मैं आफिस से जल्दी घर लौटना चाह रहा था और अपना सामान ठीक करके जल्दी सो जाना चाह रहा था क्योंकि मुझे अगले दिन दिल्ली के लिये फ्लाईट पकड़नी था। मैं जिस छुट्टी का कई दिनों से इंतजार कर रहा था वो पास आ चुका था। मैंने आफिस से निकलने से पहले विशाल (मेरा रूम मेट और सहकर्मचारी भी) से भी पूछ लिया क्योंकि उसकी भोपाल जाने वाली ट्रेन रात में ही थी और वो भी मेरे साथ घर के लिये हो लिया।

रात में खाना तो जल्दी खा लिया लेकिन वंदना से बाते करते हुये रात के साढे ग्यारह बज ही गये। मैंने उसे बताया की मुझे कल सुबह की फ्लाईट पकड्ड्ढनी है और उसके लिये मुझे सुबह 3:15 में उठना है। उसने मुझे आश्वस्त किया की मैं उठा दूंगी, मैंने मना भी किया की मैं उठ जाऊंगा तुम क्यों परेशान होती हो? लेकिन वो नहीं मानी और ठीक सुबह 3:15 में मुझे फोन करके उठा दिया। शायद ये अच्छा ही हुआ की उसने मेरी बात नहीं मानी क्योंकि मैंने 3 बजे की घंटी लगाई तो थी पर नींद में ही उसे बंद करके फिर सो गया था।

मैंने घर ठीक 4:08 पर छोड़ा और समय पर चेन्नई एयरपोर्ट पहूंच गया। मैंने जब पहली बार हवाई यात्रा की थी तो मुझे बहुत आनंद आया था और ये रोचकता अगले 1-2 और हवाई यात्रा तक बनी रही, पर अब मुझे इस हवाई यात्रा से उब सी होने लगी है। सारे लोग शराफत का चोंगा पहनकर अपने-अपने में सिमटे हुये से लगते हैं। और अगर किसी से कुछ पूछो तो विदेशी भाषा में उत्तर मिलता है, जैसे अगर वो हिंदी में कुछ बोलेंगे तो कहीं कठपूतलियों की ये भीड़ जो प्लास्टिक के मुखौटे ओढे हुये हैं उन्हें गंवार करार न दें। इससे अच्छा तो मुझे ट्रेन के स्लीपर क्लास का डब्बा लगता है। मैं एक तो रात में ठीक से सो नहीं पाया था और दूसरा हवाई जहाज में कोई बातें करने वाला नहीं होता है सो मैंने बैठते ही सोने का निश्चय कर लिया और जब दिल्ली उतरने वाला था तब जाकर उठा। हवाई जहाज से सूर्योदय का समां कुछ निराला ही था और बहुत दिनों बाद सूर्योदय देखने का मौका भी मिला सो मन को बहुत सुकून मिला।



हवाई जहाज से सूर्योदय का चित्र


दिल्ली में भी मेरे मित्र मंडली के कुछ रत्न रहते हैं और उनमें से ही एक है निधि। इनसे मेरी मित्रता नीता के कारण हुआ जो मेरे साथ कालेज में थी और मेरी अच्छी मित्र भी थी और निधि नीता की अच्छी मित्र है। मेरी दिल्ली जाने से पहले उससे बात हुई थी और उसने कहा था की वो मुझे लेने हवाई अड्डे पहूंच जायेगी, पर जब मैं दिल्ली पहूंच कर उसे फोन किया तो पता चला कि वो अभी तक सोयी हुई थी। अब चूंकी वो तत्काल वहां तो पहूंच नहीं सकती थी सो उसने मुझे "इस्को चौक" आने को कहा और रास्ता बताया जो उसके घर के बिलकुल पास में ही था। जब मैं वहां पहूंचा तो वो पहले से मेरा इंतजार कर रही थी। ये हमारी तीसरी मुलाकात थी, और हमारी ज्यादातर बातें नेट पर चैट के द्वारा ही होती आयी थी और कभी-कभी फोन पर भी। सो जब मैं वहां पहूंचा तो कई तरह के पूर्वाग्रहों के साथ था। लेकिन जब निधि से मिला तो सारे पूर्वाग्रह पता नहीं कहां चले गये और बचा रहा तो बस अच्छे दोस्तों कि चुहलबाजियाँ। हमारे बीच एक बहुत पूराना थोड़े से पैसों का हिसाब बाकि था जिसे लेकर मैं अक्सर उसे चिढाता था कि मेरे पैसे कब वापस दोगी, इस बार उसने बहुत प्रयत्न किया उसे वापस करने के लिये पर मैंने मना कर दिया की अगर अभी ये ले लूंगा तो आगे कैसे चिढाऊंगा? :) वहां से जाने से पहले निधि ने पूछा की अगली बार कब मिलोगे, और मैंने उसे चिढाते हुये आश्वासन दिया की तुम्हारी शादी में पार्टी खाने जरूर आऊंगा। फिर उसने मुझे जयपूर जाने वाली बस में बैठा दिया। (यहां मैंने एक बहुत अच्छे से अनुभव को छोटे में ही समेट दिया है, उसके लिये क्षमा चाहूंगा)।



मेरी दोनों भांजियां और मेरी मम्मी


मैं शाम में 7 बजे के करीब जयपूर पहूंचा और वहां उतर गया जहां मेरे पाहूनजी(हम लोग जीजाजी को इसी नाम से बुलाते हैं) ने मेरे लिये एक गाड़ी भिजवा दी थी। मगर यहां भी एक उलझन थी, मैं वाहन चालक को नहीं पहचानता था और वो मुझे नहीं पहचानता था। एक दूसरे को खोजने में ही 8 बज गये, उस समय थोड़ी झल्लाहट भी हुई की अगर मैं औटोरिक्सा किया होता तो अब तक मैं घर पर होता। खैर अंततः मैं घर पहूंच गया और वहां मम्मी, पापा, दीदी और मेरी प्यारी सी भांजी मेरा इंतजार कर रही थी। मेरी भांजी तो सुबह से ही रट लगायी हुई थी की मामू आयेंगे फिर मैकडोनाल्ड जायेंगे। थोड़ा सा मम्मी और दीदी से प्यार भड़ा उलाहना भी सुनना परा की दोस्तों के चक्कर में मम्मी-दीदी को भूल जाता है तभी इतनी देर से आ रहा है। नहीं तो 2-3 घंटे पहले ही आ जाता। फिर हमलोग रात का खाना बाहर खाये और घर आकर सो गये।



जयपूर जाते समय लिया हुआ एक चित्र


मेरी नौ दिनों की छुट्टीयों के कुछ महत्वपूर्ण हिस्सों में से ये हिस्सा यहीं खत्म होता है। अगले हिस्सों और किस्सों के साथ जल्दी ही आऊंगा।

Thursday, November 15, 2007

ययाति

मैं जब घर से चला तो मैंने पापाजी से हमेशा की तरह पूछा, कोई अच्छी किताब मिलेगी क्या? उन्होंने कहा, "उधर रैक पर से कोई सा भी उठा लो"। मेरी नजर सबसे पहले ययाति पर पड़ी और मैंने उसे ही उठा लिया और पापाजी से पूछा कि ये कैसी है, और उनका उत्तर सकारात्मक पा कर मैं उसे लेकर घर से निकल पड़ा। इधर कुछ दिनों से मुझे कुछ भी पढना नहीं भा रहा था, इसका क्या कारण था ये मुझे नहीं पता पर जब मैंने इसे पढना शुरू किया तो मेरे भीतर पढने की पूरानी भूख फिर से जाग उठी और मैंने इसे एक सुर में ही पढ डाला। इस किताब को पढने से और कुछ हुआ हो चाहे ना हुआ हो, पर एक आत्मिक सुख की प्राप्ति तो जरूर हुई। मन कई विचारों में उलझा हुआ था पर इस किताब को पढकर उसे सुलझाने में कुछ मदद मिली।

इसमे एक तरफ तो शर्मिष्ठा का त्याग था जिसके कारण वो ययाति से दूर अपने बच्चे पूरू को लेकर जंगल और पहाड़ों में भटकती रही तो दुसरी तरफ देवयानी का अहंकार, ऐसा अहंकार जिसके आगे वो किसी को कुछ भी नहीं समझती थी।

एक तरफ महाराज नहुश को मौत का भय सता रहा था तो दूसरी तरफ ययाति को मुकुलिका के अधरों का पान करने का नशा था, ययाति का उन्माद था, ययाति का उन्माद भरा विलाश था।

एक तरफ शुक्रचार्य का विनाश करने को तत्पर रहने वाला स्वभाव जो उन्हें हमेशा कठोर तपस्या करने के लिये प्रेरित करता था तो दूसरी तरफ कच का दुनिया को बचाने के लिये हमेशा तत्पर रहते हुये उसी के लिये कठोर तपस्या करते रहना।

एक तरफ देवयानी को नीचा दिखाने और अपनी इच्छा-लालसाओं को पूरा करने की धुन में अपने ही पुत्र से ययाति द्वारा यौवन कि भीख मांगना, तो दूसरी तरफ एक पुत्र का बिना किसी झिझक के अपना यौवन अपने पिता को सौंप देना तो वहीं दूसरे पुत्र का यह सब देख कर वहां से भाग जाना।

राजमहल के उन्माद से लेकर दासियों की करूण स्थिति भी। एक नवयुवक का उत्साह ययाति के रूप में दिखाया गया है जिसमें वो किशोरावस्था में ही अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा लेकर विश्व विजय को निकल पड़े थे। सुख और दुख कि अजीब परिभाषा भी, जिसके अनुसार जो अभी इस क्षण हमारे लिये सुख है वो संभवतया किसी और के लिये दुख का कारण हो। और जिसे हम दुख समझ रहें हैं वो यथार्थ मे किसी और को सुख देता हो। यथार्थ में हमें ये भी पता नहीं होता है की हम सुखी हैं या दुखी।

अंत में कुछ अपने बारे में बताना चाहूंगा, मैं अभी दिपावली में घर(पटना) चला गया था जहां मेरा समय बहुत अच्छे से व्यतीत हुआ और कुछ रोचक किस्से भी बने। उन किस्सों के साथ मैं जल्द ही आपके पास आऊंगा।

Friday, November 02, 2007

यादें तरह-तरह की

कुछ याद करने पर बहुत कुछ याद आता है। यादें अच्छी भी होती हैं और बुरी भी, पर यादें तो यादें होती हैं और उसे अच्छे बुरे का ज्ञान नहीं होता है। पर हां मेरी एक आदत बहुत बुरी है, मैं यादों को संजो कर रखता हूं। मुझसे कई लोग अक्सर कहते हैं, "बुरी यादों को भूल जाने में ही समझदारी होती है।" मैं कुछ कह नहीं पाता हूं डर लगता है की कोई नया तर्क सामने ना आ जाये जिसे पार पाना मेरे बस के बाहर हो। मैं बस सोच कर रह जाता हूं की यादें अच्छी हो या बुरी, हैं तो अपनी ही। तो अच्छी चीजों को याद रखना और बुरी चीजों को भूल जाना, ये कैसी बात हुई?

जब कहीं किसी बच्चे को साइकिल पर स्कूल जाते देखता हूं तो अपनी वो साइकिल याद आती है जिस पर बैठ कर मैंने उसे चलाना सीखा था, अपना वो स्कूल याद आता है जहां मैंने कई अच्छी तो कई गालियाँ भी सीखी। ये बात और है की गालियों को एक प्रवाह में देने का हुनर आज भी नहीं सीख पाया हूं।

जब कभी कहीं अमरूद बिकते देखता हूं तो वे पेड़ याद आते हैं जो हमारे सितामढी वाले घर में था। उन मीठे फलों की याद तो बहुत ही अच्छी है पर उन यादों को कैसे भूल जाऊं जो उन पेड़ों के कटने से तकलीफ पहूंचा गयी थी?

जब किसी छोटे बच्चे को अपनी माँ के साथ लाड़-दुलार करते देखता हूं तो एक अजीब सी सुखद अनुभूती होती है। पर उन दिनों को कैसे भूल जाऊं जब दिल्ली के मुनिरका गांव के एक छोटे से बंद कमरे में बैठ कर माँ को याद करते हुये पहली बार रोया था?

किसी युगल को सबसे छुप कर ठिठोली करते देखना तो अच्छा लगता ही है। पर उस दिन को कैसे भूल जाऊं जब खुद को दुनिया के सामने ठगा हुआ महसूस किया था?

ये सोचना तो अच्छा लगता है जब मैंने BCA की पांचवीं छमाही में अपने विश्विद्यालय में दूसरा स्थान प्राप्त किया था। पर उसे क्यों भूलूं जब मैं इंटर की परिक्षा में अनुत्तीर्ण हुआ था और जिसने जिंदगी के बहुत सारे सबक सिखाये थे?



ये भाग दौड़ की दुनिया कुछ भी सोचने का मौका नहीं देती है, और अगर आप अपने जीवन के पूराने पन्नों को पलटना चाहते हैं तो ऐसा लगता है जैसे ये दुनिया आपसे बहुत आगे निकल गयी है और फिर आप पूरानी चीजों को पीछे छोड़ कर आगे निकलना चाहते हैं। मगर यादें तो हमेशा ही साथ होती है।

आज मेरे मन में ये गीत चल रहा है जो यादों से जुड़ी हुई है आप लोगों को भी सुनाना चाहूंगा। मन को छू लेने वाले इस गीत को राहत फ़तेह अली खान ने अपनी आवाज से सजाया है।



मैं जहां रहूं, मैं कहीं भी रहूं..
तेरी याद साथ है..
किसी से कहूं, किसी से ना कहूं..
ये जो दिल की बात है..

कहने को साथ अपने, एक दुनिया चलती है,
पर छुप के इस दिल में तन्हाई पलती है..
बस याद साथ है, तेरी याद साथ है..

मैं जहां रहूं, मैं कहीं भी रहूं..
तेरी याद साथ है..

कहीं तो दिल में यादों की एक सूली गड़ जाती है..
कहीं हर एक तस्वीर बहुत ही धुंधली पर जाती है..
कोई नयी दुनिया के नये, रंगों में खुश रहता है..
कोई सब कुछ पा के भी, ये मन ही मन कहता है..

कहने को साथ अपने, एक दुनिया चलती है,
पर छुप के इस दिल में तन्हाई पलती है..
बस याद साथ है, तेरी याद साथ है..

कहीं तो बीते कल की जड़े दिल में ही उतर जाती है..
कहीं जो धागे टूटे तो मालाऐं बिखर जाती है..
कोई दिल में जगह नयी बातों के लिये रखता है..
कोई अपने पलकों पर यादों के दिये रखता है..

कहने को साथ अपने, एक दुनिया चलती है,
पर छुप के इस दिल में तन्हाई पलती है..
बस याद साथ है, तेरी याद साथ है..


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